आधुनिकता की ओर बढ़ता हमारा देश कई प्रकार के
अंतर्विरोधों से भी जूझ रहा है. पिछले हफ्ते हमारे सुप्रीम कोर्ट ने कम के कम छह
ऐसे फैसले किए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ
हैं. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा का कार्यकाल इस हफ्ते खत्म हो रहा है. वे देश के
पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना
दी गई. उसकी दस्तक सुप्रीम कोर्ट में भी हुई. उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए,
जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं. इनमें जज लोया और अयोध्या के
मामले शामिल हैं.
इस हफ्ते के ज्यादातर फैसलों के भी प्रत्यक्ष
और परोक्ष राजनीतिक निहितार्थ हैं. पर दो मामले ऐसे हैं, जो स्त्रियों के अधिकारों
और परम्परागत समाज के अंतर्विरोधों से जुड़े हैं. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने
समलैंगिकों के अधिकारों की रक्षा करते हुए एक बड़ा फैसला सुनाया था. लगभग उसी
प्रकार का एक फैसला इस हफ्ते व्यभिचार (विवाहेतर सम्बंध) से जुड़ा है. हमारे देश
में व्यभिचार आईपीसी की धारा 497 के तहत अपराध है, पर यह धारा केवल पुरुषों पर
लागू होती है. इसे रद्द करने की माँग पुरुषों को राहत देने के अनुरोध से की गई थी.
अलबत्ता अदालत ने इसे स्त्रियों के वैयक्तिक अधिकार से भी जोड़ा है.
सर्वसम्मति से सुनाए गए इस फैसले में मुख्य
न्यायधीश ने कहा, व्यभिचार
अपराध नहीं हो सकता. यह निजता का मामला है. पति, पत्नी का मालिक नहीं है. महिलाओं के
साथ पुरुषों के समान ही व्यवहार किया जाना चाहिए. वैवाहिक पवित्रता एक मुद्दा है
लेकिन व्यभिचार के लिए दंडात्मक प्रावधान अंतत: संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार
का उल्लंघन है. यह याचिका किसी विवाहित महिला से विवाहेतर यौन संबंध को अपराध
मानने और सिर्फ पुरुष को ही दंडित करने के प्रावधान के ख़िलाफ़ दायर की गई थी. अदालत
ने इस तर्क को स्वीकार किया साथ में यह भी कहा कि व्यभिचार को अब भी नैतिक रूप से
गलत माना जाएगा. इसे विवाह ख़त्म करने तथा तलाक़ लेने का आधार माना जाएगा. मुख्य
न्यायाधीश ने कहा कि व्यभिचार का आरोप महिला की वैयक्तिकता को ठेस पहुंचाता है.
स्त्रियों के समानता के अधिकार से जुड़ा दूसरा
महत्वपूर्ण मामला केरल के सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश को लेकर
था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी महिलाओं के लिए सबरीमाला मंदिर के दरवाजे खोले
जान चाहिए. इस मंदिर में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की
इजाजत नहीं थी, क्योंकि उन्हें मासिक धर्म होता है. इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन और
अन्य ने इस प्रथा को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि यह लैंगिक आधार पर भेदभाव करती
है. मासिक धर्म वाली महिलाओं से अस्पृश्यता जैसा ट्रीटमेंट होता है.
इन दोनों मामलों को स्त्रियों के अधिकारों से जोड़कर देखा जा रहा है,
पर दोनों मामले हमारी व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक समझदारी से भी जुड़े हैं.
सबरीमाला मंदिर के पहले कुछ और मंदिरों में स्त्रियों के प्रवेश के मामले सामने आए
हैं. इनकी माँग स्त्रियों के एक छोटे वर्ग ने की है, मुख्यधारा ने नहीं. जरूरत
मुख्यधारा के वैचारिक बदलाव की है. इसका दूसरा पहलू धार्मिक मान्यताओं और उनसे
जुड़े अधिकारों का भी है.
सबरीमाला मंदिर प्रवेश के मामले पर विचार करने वाले पीठ की एकमात्र
महिला सदस्य ने इस फैसले के विरोध में अपना फैसला लिखा है. उन्होंने लिखा है, समानता का अधिकार धार्मिक आज़ादी के अधिकार से
ऊपर नहीं हो सकता. धार्मिक परंपराओं में कोर्ट को दखल
नहीं देना चाहिए. ये प्रथाएं संविधान से संरक्षित हैं. कोर्ट का काम प्रथाओं को
रद्द करना नहीं है.
स्त्रियों के अधिकारों और धार्मिक मान्यताओं
में टकराव के सवाल इन दिनों उठे हैं. मुस्लिम समाज में ट्रिपल तलाक के खिलाफ माँग
उठ रही है. ऐसे सवालों का निदान तभी सम्भव है, जब समुदाय के भीतर भी इनपर विचार
हो. जरूरत इस बात की है कि पुरुष की प्रधानता वाले नियम बदले जाएं. बेशक अदालतें
सामाजिक बदलाव की वाहक सिद्ध होंगी, पर पहल समाज को भी करनी होगी. स्त्रियों की
गरिमा को स्थापित करना पूरे समाज की जिम्मेदारी है.
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते इन दो फैसलों के अलावा चार और फैसले
किए, जिनके व्यापक राजनीतिक निहितार्थ हैं. इनमें अयोध्या, ‘आधार’ और भीमा कोरेगाँव हिंसा से जुड़े मामले शामिल
हैं. ऐसा ही एक मामला प्रमोशन में आरक्षण से जुड़ा है, जो इस विषय पर चल रही बहस
को एक कदम आगे ले जाएगा, क्योंकि अदालत ने ‘क्रीमी
लेयर’ को लेकर कुछ सवाल उठाए हैं.
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट से पहला फैसला प्रमोशन
में आरक्षण को लेकर आया. अदालत ने कहा, राज्य सरकारें चाहें तो वे प्रमोशन में
आरक्षण दे सकती हैं. साथ ही यह भी कहा कि एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमीलेयर का
सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए. यह सिद्धांत अभी पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर लागू
होता है. यह फैसला आने के बाद सरकार ने कहा कि हम अभी इसका अध्ययन कर रहे हैं. सच
यह है कि इसे लागू करना आसान नहीं होगा. यह तभी आसान होगा, जब इसकी माँग आरक्षित
वर्ग ही करेगा.
उधर दशकों से लटके राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद
विवाद की सुप्रीम कोर्ट में जल्द सुनवाई का रास्ता साफ हो गया है. सुप्रीम कोर्ट
में अब 29
अक्टूबर से इस मामले की सुनवाई शुरू हो जाएगी. एक और विवादास्पद विषय है भीमा-कोरेगांव
हिंसा के सिलसिले में पाँच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का मामला. अदालत
ने इन्हें जमानत पर रिहा करने की माँग को अस्वीकार कर दिया है. इसी हफ्ते अदालत ने
‘आधार’ से
जुड़ा महत्वपूर्ण फैसला सुनाया.
ज्यादातर फैसले हमारे बदलते समाज की जरूरतों को रेखांकित कर रहे हैं.
इनके पीछे सामाजिक टकरावों के शमन की कामना भी है. इस सब के लिए बड़े स्तर पर जिस
समझदारी की जरूरत है, उसे विकसित करने का काम हमें ही करना है. पर उसके पहले इनसे
जुड़े सवालों पर संतुलित और संयत बहस होनी चाहिए. क्या हम तैयार हैं?
inext में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-10-2018) को "जय जवान-जय किसान" (चर्चा अंक-3112) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'