अयोध्या मामले का राजनीतिकरण इस हद तक हो चुका
है कि अब मंदिर बने तब और न बने तब भी उसका फायदा बीजेपी को मिलेगा। यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आ रही थी, जो अदालत में इसकी सुनवाई में विलंब कराने की
कोशिश कर रहे थे। अब इस मामले के राजनीतिक निहितार्थों को देखें और इंतजार
करें कि क्या होने वाला है। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि
इस मसले पर अगली सुनवाई जनवरी 2019 में एक उचित पीठ के समक्ष होगी। यह सुनवाई इलाहाबाद
हाईकोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह पर होगी। हाईकोर्ट
ने विवादित स्थल को तीन भागों रामलला, निर्मोही
अखाड़ा व मुस्लिम वादियों में बांटा था।
गौर करें, तो पाएंगे कि मंदिर मसले पर बीजेपी
को अपनी पहलकदमी के मुकाबले मंदिर-विरोधी राजनीति का लाभ ज्यादा मिला है। मंदिर
समर्थकों को कानूनी तरीके से जल्द मंदिर बनने की उम्मीद थी, जो फिलहाल पूरी होती
नजर नहीं आ रही है। यानी कि अब वे एक नया आंदोलन शुरू करेंगे। इस आंदोलन का असर
पाँच राज्यों के और लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। बेशक बीजेपी के नेताओं पर भी दबाव है,
पर इससे उन्हें नुकसान क्या होगा? वे कहेंगे हमारे हाथ मजबूत करो। बीजेपी
मंदिर मसले को चुनाव का मुद्दा नहीं बना रही थी, तो अब बनाएगी।
क्या अध्यादेश आएगा?
बीजेपी के भीतर से आवाजें आ रहीं हैं कि सरकार
अध्यादेश या बिल लाकर मंदिर बनाए। सरसंघ चालक मोहन
भागवत कह चुके हैं कि सरकार को कानून बनाना चाहिए। सुब्रमण्यम स्वामी ने इस माँग
का स्वागत किया है। संघ के अलावा विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना की भी यही राय है।
अध्यादेश या विधेयक से क्या मंदिर बन जाएगा? राज्यसभा में क्या
पर्याप्त समर्थन मिलेगा? नहीं मिला तब भी पार्टी यह कह सकती है कि
हमने कोशिश तो की । बिल पास भी हो जाए, तो सुप्रीम कोर्ट से भी
रुक सकता है। यह सब इतना आसान नहीं है, जितना समझाया जा रहा है। इसका हल सभी पक्षों के बीच समझौते से ही निकल सकता है।
इस सारी प्रक्रिया में
जो गतिविधियाँ होंगी क्या उनका राजनीतिक असर नहीं होगा? तीसरा रास्ता सुप्रीम
कोर्ट की सुनवाई के इंतजार का है। अदालत जनवरी में तय करेगी कि सुनवाई का तरीका
क्या होगा। उसमें समय लगेगा। चुनाव के पहले फैसला आने की उम्मीद नहीं। फिर इस बीच
क्या होगा? मामले का राजनीतिकरण होगा, जिससे बचने की सब सलाह दे
रहे हैं। व्यावहारिक सच यह है कि इस मसले को जितना टालेंगे, उतना ही इसका
राजनीतिकरण होगा।
राजनीतिकरण तो हो चुका
सच्चाई से आँखें मत मूँदिए।
इसका राजनीतिकरण हो चुका है। मंदिर बनाने की जिम्मेदारी बीजेपी ने ली है। पर वह बना
नहीं पाई तो उसका वोट कटने वाला नहीं है। और न यह वोट मंदिर-विरोधी पार्टियों को
मिलने वाला है। बीजेपी के लिए ‘राम मंदिर’ औजार है, जिसका इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से
होता है। पिछले लोकसभा चुनाव में लगता था कि इस मसले से पार्टी ने किनाराकशी कर ली। और
अब लगता है कि बड़ा मुद्दा बनेगा। मंदिर बन गया तो ठीक, नहीं बना तो कहेंगे कि
हमने तो पूरी कोशिश की थी। विरोधियों ने बनने नहीं दिया।
पिछले हफ्ते पुणे के
श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई गणपति मंदिर में पूजा करने आए संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने कहा
कि अयोध्या में शीघ्र मंदिर निर्माण होगा। बताते हैं कि संघ प्रमुख खासतौर से ‘राम-मंदिर और
राम-राज्य’ मनोकामना
की पूर्ति के लिए अभिषेक करके गए हैं। इससे पहले वे राम मंदिर पर कानून बनाने की सलाह सरकार
को दे चुके हैं। उधर छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रचार के लिए गए उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, अयोध्या में जल्द बनेगा भव्य राम मंदिर। इसकी
शुरुआत हो चुकी है। सुब्रह्मण्यम
स्वामी ने हाल में कहा था, मुझे उम्मीद है कि दिवाली से पहले राम जन्म भूमि पर भव्य
मंदिर का निर्माण शुरू हो जाएगा।
बनने से ज्यादा, बनने
का शोर
निर्माण हो या न हो,
निर्माण का शोर अब ज्यादा जोर का होगा। सुब्रमण्यम स्वामी ने पिछले साल के
उत्तरार्ध में ट्वीट किया था, राम मंदिर का हल नहीं निकला तो अगले साल, यानी 2018 में
अयोध्या में वैसे ही राम मंदिर बना दिया जाएगा। ऐसा कुछ हुआ नहीं, पर मोहन भागवत
ने कानून बनाने का सुझाव देकर इस बहस को एक नया आयाम जरूर दे दिया है।
क्या वास्तव में कानून
बनाना या अध्यादेश लाना सम्भव है? सम्भव है तो फिर देर क्यों की? नागपुर में संघ के
मुख्यालय में विजयदशमी के अपने संबोधन में मोहन भागवत ने कहा, 'राम जन्मभूमि स्थल का
आवंटन होना बाकी है, जबकि
साक्ष्यों से पुष्टि हो चुकी है कि उस जगह पर मंदिर था। राजनीतिक दखल नहीं होता तो
मंदिर बहुत पहले बन गया होता। हम चाहते हैं कि सरकार कानून के जरिए मंदिर निर्माण
का मार्ग प्रशस्त करे।'
कुछ समय पहले शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ऐसी
माँग कर चुके हैं। मोहन भागवत के इस वक्तव्य के बाद शिवसेना ने उसका स्वागत किया। क्या बीजेपी चुनाव के पहले कोई बड़ा फैसला करने या करा पाने में सफल
होगी? क्या अध्यादेश जारी
करके मंदिर बनाया जा सकता है? क्या मंदिर वास्तव में चुनाव जिताने का औजार बनेगा? शिवसेना ने ‘मिशन अयोध्या’ की घोषणा कर दी है। उद्धव ठाकरे ने 25
नवम्बर को अयोध्या यात्रा का कार्यक्रम भी बना लिया है।
अयोध्या में सरगर्मी
अयोध्या में भी माहौल गरमा रहा है। इस बीच अयोध्या राम घाट स्थित
तपस्वी छावनी के उत्तराधिकारी महंत परमहंस दास आमरण अनशन पर जा बैठे। स्वास्थ्य के
आधार पर अनशन तुड़वा दिया गया, पर उन्होंने कहा है कि लोकसभा चुनाव की आचार संहिता
लगने से पहले मंदिर निर्माण शुरू नहीं हुआ तो मैं आत्मदाह कर लूंगा। प्रवीण
तोगड़िया भी अयोध्या में धूनी रमाए हैं। साधु-संत आंदोलन का इंतजार कर ही रहे हैं।
सवाल है कि आंदोलन
खड़ा हुआ तो किसके पक्ष में जाएगा? किसे इस आंदोलन का राजनीतिक लाभ होगा? राजनीतिक लाभ
बीजेपी को ही मिलेगा। बीजेपी भी पूरी तरह मंदिर के सहारे नहीं है। उसे अपने उज्ज्वला,
आयुष्मान भारत और स्वच्छ भारत जैसे कार्यक्रमों पर उम्मीदें हैं। पर उसे लगा कि मैदान
उतना आसान नहीं है, तो वह मंदिर का नारा भी दे तो हैरत नहीं होगी। पार्टी नारा
नहीं देगी, तो अनुषंगी संगठन देंगे। लोकसभा चुनाव के पहले चार राज्यों के चुनाव
टेस्ट केस हैं। यदि परिणामों से बीजेपी को बड़ा धक्का लगा, तो सम्भव है कि मंदिर
का मसला सबसे ऊपर आ जाए। 6 दिसम्बर की तारीख करीब आ ही रही है।
मंदिर क्यों भूले?
सन 1992 के बाद 6
दिसम्बर की तारीख कई बार आई और गई। भाजपा ने इस मसले पर बात करना ही बंद कर दिया
था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से केंद्र में यह तीसरी सरकार है, जिसमें भारतीय जनता
पार्टी की प्रभावी भूमिका है। 1998 और 1999 में बनी सरकारें एनडीए की थीं। मान
लिया उनमें सहयोगी दलों की सहमति मंदिर बनाने को लेकर नहीं थी। पर इस बार भाजपा
अपने बूते बहुमत हासिल करके आई थी। पर वह पहले तीन साल तक राम मंदिर पर मौन रही। और
अब जब प्रतिस्पर्धियों ने उसे घेरना शुरू किया, तो उसने इस ब्रह्मास्त्र को फिर से
उठा लिया है।
कोई वजह थी कि यह मसला
भाजपा की राजनीति में टॉप से बॉटम पर आ गया था। और जरूर अब कोई और वजह है, जो यह
बॉटम से टॉप पर आने को अधीर है। जिस मंदिर-राजनीति ने भाजपा को दिल्ली के दरवाजे
तक पहुँचाया उसके प्रणेता लालकृष्ण आडवाणी के ब्लॉग पर अंग्रेजी में 23 अप्रैल
2014 और हिंदी में 3 अप्रैल के बाद से कोई पोस्ट नहीं है। उनकी सारी कहानी दिल्ली
की अपनी गद्दी तक सीमित थी। सन 1989 के चुनाव में आडवाणी जी की मंदिर राजनीति ने
पहली बार भाजपा को भारी जीत का रास्ता दिखाया, जिसकी परिणति 1996 में 13 दिन की और फिर
1998 में एक साल की सरकार के रूप में हुई थी।
सांविधानिक दायरा
सन1989 से 2009 तक
भारतीय जनता पार्टी अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का वादा करती रही। यह वादा
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उतरी भाजपा ने भी किया, पर उस शिद्दत के साथ नहीं। सन 2014 के 42
पेजों के चुनाव घोषणापत्र में 41 वें पेज पर महज दो-तीन लाइनों में यह वादा किया
गया। वह भी मंदिर निर्माण के लिए संभावनाएं तलाशने का वादा। यह भी कि यह तलाश
सांविधानिक दायरे में होगी। पार्टी आज भी सांविधानिक दायरे में मंदिर बनाने की बात
कर रही है। पर अब वह यह कह सकती है कि इस दायरे में देरी लग रही है, तो हम क्या कर
सकते हैं।
नरेंद्र मोदी को हार्ड
हिंदुत्व का नेता माना जाता है, पर 2014 के अपने पूरे चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने
मंदिर की बात नहीं की। उन्होंने तो गिरिराज सिंह और तोगड़िया जैसे नेताओं को कड़वे
बयानों से बचने की सलाह दी। लगता है कि भाजपा ने सन 2009 की पराजय के बाद मान लिया
था कि दिल्ली की कुर्सी पर बैठना है तो जनता के सवालों को उठाना होगा।
पार्टी का यह वैचारिक
रूपांतरण 2009 में शुरू हो गया था। सन 2009 में पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद नितिन
गडकरी ने दिसम्बर में अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में विकास की बात की मंदिर की
नहीं। उन्होंने पार्टी के भीतर की अनुशासनहीनता और गुटबाजी पर फिक्र जताई, हिंदुत्व की नहीं।
उल्टे उन्होंने अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति, जन जाति, और असंगठित मजदूरों में पार्टी के प्रति विश्वास का
निर्माण करने तथा गलतफहमियों को दूर करने की बात कही।
इसके बाद उन्होंने
इंदौर में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कहा कि अगर मुस्लिम विवादित भूमि
पर दावा छोड़ देते हैं तो मंदिर के पास ही मस्जिद भी बनवाई जाएगी। उनकी भाषा में
विनम्रता थी। उन्होंने मुस्लिम समुदाय से अपील की कि हिंदुओं की भावनाओं के प्रति
वे उदार रुख़ अपनाएं और भव्य राम मंदिर बनाने के लिए सहयोग दें। उन्होंने कहा, अगर विवादित भूमि पर
आप अपना दावा छोड़ते हैं तो हम मंदिर के पास ही एक शानदार मस्जिद बनाने में आपका
सहयोग करेंगे।"
उन्हीं दिनों एक
संवाददाता सम्मेलन में पार्टी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद से मंदिर के मुद्दे पर सवाल
पूछा गया तो उन्होंने कहा, पार्टी की राय है कि इसे चुनावी मुद्दे के रूप में न
देखा जाए। हम अपेक्षा करते हैं कि वहां भव्य राम मंदिर का निर्माण हो। इसके लिए
भाजपा सभी धर्म और वर्ग के लोगों से सहयोग की अपील करती है। उनसे आज पूछा जाए, तो
शायद वे आज भी यही बात कहेंगे। दिक्कत यह है कि समूची राजनीति इसमें अपने फायदे–नुकसान
देख रही है। इस मसले का समाधान व्यापक स्तर पर सहमति बनाकर ही हो सकता है। इसे
टालने से भावनाएं बुझेंगी नहीं, और ज्यादा भड़केंगी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (31-10-2018) को "मंदिर तो बना लें पर दंगों से डर लगता है" (चर्चा अंक-3141) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
इस मसले का समाधान व्यापक स्तर पर सहमति बनाकर ही हो सकता है। इसे टालने से भावनाएं बुझेंगी नहीं, और ज्यादा भड़केंगी।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने। मेरा यह विचार है कि अगर इस विवाद का हल हो गया तो एक बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा भाजपा के हाथ से निकल जायेगा। फिर भी देखना है कि आगे क्या होता है। सहमति से इसका एक बार में निपटारा होना देश हित के लिए आवश्यक है।