Saturday, October 27, 2018

क्यों मचा फिर से मंदिर का शोर?


भारतीय जनता पार्टी के लिए राम मंदिर एक औजार है, जिसका इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से होता है। कभी लगता है कि वह इस भारी हथौड़े का इस्तेमाल नहीं करना चाहती और कभी इसे फिर से उठा लेती है। पिछले लोकसभा चुनाव में लगता था कि इस मसले से पार्टी ने किनाराकशी कर ली है। और अब लग रहा है कि वह इसे बड़ा मुद्दा बनाएगी। सुप्रीम कोर्ट में 29 अक्तूबर से इस मामले पर सुनवाई शुरू हो रही है। उधर चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में मंदिर भी मुद्दा बन गया है।

पिछले हफ्ते पुणे के श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई गणपति मंदिर में पूजा करने आए संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि अयोध्या में शीघ्र मंदिर निर्माण होगा। बताते हैं कि संघ प्रमुख खासतौर से राम-मंदिर और राम-राज्य मनोकामना की पूर्ति के लिए अभिषेक करके गए हैं। इससे पहले वे राम मंदिर पर कानून बनाने की सलाह सरकार को दे चुके हैं।

मंदिर को लेकर उत्साह

उधर छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रचार के लिए आए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, अयोध्या में जल्द बनेगा भव्य राम मंदिर। इसकी शुरुआत हो चुकी है। पिछले कुछ समय से अचानक अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर मंदिर बनाने की मुहिम में उतरे हैं। साम-दाम-दंड हर तरह से कोशिशें चल रहीं हैं। पिछले डेढ़ सौ साल से ज़्यादा समय में कम से कम नौ बड़ी कोशिशें मंदिर-मस्जिद मसले के समाधान के लिए हुईं और परिणाम कुछ नहीं निकला।


कुछ पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि पार्टी 2019 के पहले मंदिर बनाना चाहती है। कुछ महीने पहले सुब्रमण्यम स्वामी ने पिछले साल के उत्तरार्ध में ट्वीट किया था, राम मंदिर का हल नहीं निकला तो अगले साल, यानी 2018 में अयोध्या में वैसे ही राम मंदिर बना दिया जाएगा। हालांकि अभी तक ऐसा कुछ हुआ नहीं है, पर मोहन भागवत ने कानून बनाने का सुझाव देकर इस बहस को एक नया आयाम जरूर दे दिया है।

अध्यादेश लाने की सलाह

नागपुर में संघ के मुख्यालय में विजयदशमी के अपने संबोधन में मोहन भागवत ने कहा, 'राम जन्मभूमि स्थल का आवंटन होना बाकी है, जबकि साक्ष्यों से पुष्टि हो चुकी है कि उस जगह पर मंदिर था। राजनीतिक दखल नहीं होता तो मंदिर बहुत पहले बन गया होता। हम चाहते हैं कि सरकार कानून के जरिए मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे।' कुछ समय पहले शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ऐसी माँग कर चुके हैं। मोहन भागवत के इस वक्तव्य के बाद शिवसेना ने उसका स्वागत किया। क्या बीजेपी चुनाव के पहले कोई बड़ा फैसला करने या करा पाने में सफल होगी? क्या अध्यादेश जारी करके मंदिर बनाया जा सकता है? क्या मंदिर वास्तव में चुनाव जिताने का औजार बनेगा?

शिवसेना ने मिशन अयोध्या की घोषणा कर दी है। उद्धव ठाकरे ने 25 नवम्बर को अयोध्या यात्रा का कार्यक्रम भी बना लिया है। अयोध्या में भी माहौल गरमा रहा है। अयोध्या राम घाट स्थित तपस्वी छावनी के उत्तराधिकारी महंत परमहंस दास आमरण अनशन पर बैठे। स्वास्थ्य के आधार पर अनशन तुड़वा दिया गया, पर उन्होंने कहा है कि लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लगने से पहले मंदिर निर्माण शुरू नहीं हुआ तो मैं आत्मदाह कर लूंगा।

क्या मंदिर के नाम पर वोट मिलेगा?

प्रवीण तोगड़िया ने भी अयोध्या में धूनी रमाई है। बाबरी विध्वंस की वर्षगाँठ भी करीब है। यह सब अनायास नहीं है और इसे 2019 के चुनाव से अलग करके देखा भी नहीं जा सकता। सवाल यह है कि क्या महंगाई, बेरोजगारी और सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से पीड़ित वोटर क्या इस मुद्दे पर वोट डालेगा?

सन 2014 के चुनाव में बीजेपी की विजय के पीछे नौजवानों, स्त्रियों और वोटरों की बड़ी भूमिका थी। इसबार इस वर्ग की इतनी बड़ी भूमिका नहीं होगी। सम्भव है कि बड़ी संख्या में वोटर निकलें भी नहीं, क्योंकि उनके पास विकल्प नहीं हैं। वे कांग्रेस को भी चुनना नहीं चाहेंगे, क्योंकि उससे बड़ी निराशा उन्हें मिली। वोटर की इस बड़ी निराशा के बावजूद एक वर्ग मोदी का समर्थक भी है। यह वर्ग राष्ट्रवाद, चीन-पाकिस्तान गठजोड़, कश्मीर में उग्रवाद और भारत के विश्व-शक्ति के रूप में उभरने जैसी बातों से प्रभावित है और हिंदू-पहचान को स्थापित करना चाहता है।

विरोधी दलों की रणनीति

इस रणनीति को विफल करने के लिए विरोधी दलों ने मुसलमानों, ओबीसी और अजा-जजा गठजोड़ बनाने की जो रणनीति बनाई है, उसमें तमाम झोल हैं। बुनियादी रूप से यह सामाजिक अंतर्विरोधों पर निर्भर है। दूसरे यह गठजोड़ भी पूरी तरह स्थापित नहीं है। तीसरे इन दलों का वैचारिक धरातल पर अपना कोई बयानिया (नैरेटिव) नहीं है। वे बीजेपी का जातीय और साम्प्रदायिक तोड़ खोज रहे हैं, वैचारिक नहीं। सामाजिक जोड़-तोड़ के खेल में कांग्रेस इस बुरी तरह उलझ गई कि उसकी छवि हिंदू-विरोधी पार्टी के रूप में रूढ़ होती गई। सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्बल के दखल से लगा कि इस मामले की सुनवाई रोकने की कोशिश की जा रही है।

बीजेपी पूरी तरह मंदिर के सहारे नहीं है। वह उज्ज्वला, आयुष्मान भारत और स्वच्छ भारत जैसे कार्यक्रमों पर भी जोर दे रही है। फिर भी उसके लिए मैदान उतना आसान नहीं है। लोकसभा चुनाव के पहले चार राज्यों के चुनाव टेस्ट केस हैं। यदि परिणामों से बीजेपी को बड़ा धक्का लगा, तो सम्भव है कि मंदिर का मसला सबसे ऊपर आ जाए।

कभी मंदिर, कभी विकास

सन 1992 के बाद 6 दिसम्बर की तारीख कई बार आई और गई। भाजपा ने इस मसले पर बात करना ही बंद कर दिया था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से केंद्र में यह तीसरा सरकार है, जिसमें भारतीय जनता पार्टी की प्रभावी भूमिका है। 1998 और 1999 में बनी सरकारें एनडीए की थीं। मान लिया उनमें सहयोगी दलों की सहमति मंदिर बनाने को लेकर नहीं थी। पर इस बार भाजपा अपने बूते बहुमत हासिल करके आई थी, फिर वह पहले तीन साल तक राम मंदिर पर मौन रही। और अब जब प्रतिस्पर्धियों ने उसे घेरना शुरू कर दिया, तो उसने अपने इस ब्रह्मास्त्र को फिर से उठा लिया है।

कोई वजह थी कि यह मसला भाजपा की राजनीति में टॉप से बॉटम पर आ गया था। और जरूर अब कोई और वजह है, जो यह बॉटम से टॉप पर आने को अधीर है। जिस मंदिर-राजनीति ने भाजपा को दिल्ली के दरवाजे तक पहुँचाया उसके प्रणेता लालकृष्ण आडवाणी के ब्लॉग पर अंग्रेजी में 23 अप्रैल 2014 और हिंदी में 3 अप्रैल के बाद से कोई पोस्ट नहीं है। शायद उनकी सारी कहानी दिल्ली की अपनी गद्दी तक सीमित थी। सन 1989 के चुनाव में आडवाणी जी की मंदिर राजनीति ने पहली बार भाजपा को भारी जीत का रास्ता दिखाया, जिसकी परिणति 1996 में 13 दिन की और फिर 1998 में एक साल की सरकार के रूप में हुई थी।

क्यों भूले राम का नाम?

सन1989 से 2009 तक भारतीय जनता पार्टी अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का वादा करती रही। यह वादा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उतरी भाजपा ने भी किया, पर उस शिद्दत के साथ नहीं। सन 2014 के 42 पेजों के चुनाव घोषणापत्र में 41 वें पेज पर महज दो-तीन लाइनों में यह वादा किया गया। वह भी मंदिर निर्माण के लिए संभावनाएं तलाशने का वादा। यह भी कि यह तलाश सांविधानिक दायरे में होगी।

नरेंद्र मोदी को हार्ड हिंदुत्व का नेता माना जाता है, पर 2014 के अपने पूरे चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने मंदिर की बात नहीं की। उन्होंने तो गिरिराज सिंह और तोगड़िया जैसे नेताओं को कड़वे बयानों से बचने की सलाह दी। लगता है कि भाजपा ने सन 2009 की पराजय के बाद मान लिया था कि दिल्ली की कुर्सी पर बैठना है तो जनता के सवालों को उठाना होगा।

जनता के सवाल

पार्टी का यह वैचारिक रूपांतरण 2009 में शुरू हो गया था। सन 2009 में पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी ने दिसम्बर में अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में विकास की बात की मंदिर की नहीं। उन्होंने पार्टी के भीतर की अनुशासनहीनता और गुटबाजी पर फिक्र जताई, हिंदुत्व की नहीं। उल्टे उन्होंने अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति, जन जाति, और असंगठित मजदूरों में पार्टी के प्रति विश्वास का निर्माण करने तथा गलतफहमियों को दूर करने की बात कही।

इसके बाद उन्होंने इंदौर में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कहा कि अगर मुस्लिम विवादित भूमि पर दावा छोड़ देते हैं तो मंदिर के पास ही मस्जिद भी बनवाई जाएगी। उनकी भाषा में विनम्रता थी। उन्होंने मुस्लिम समुदाय से अपील की कि हिंदुओं की भावनाओं के प्रति वे उदार रुख़ अपनाएं और भव्य राम मंदिर बनाने के लिए सहयोग दें। उन्होंने कहा, अगर विवादित भूमि पर आप अपना दावा छोड़ते हैं तो हम मंदिर के पास ही एक शानदार मस्जिद बनाने में आपका सहयोग करेंगे।" एक संवाददाता सम्मेलन में पार्टी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद से मंदिर के मुद्दे पर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, पार्टी की राय है कि इसे चुनावी मुद्दे के रूप में न देखा जाए। हम अपेक्षा करते हैं कि वहां भव्य राम मंदिर का निर्माण हो। इसके लिए भाजपा सभी धर्म और वर्ग के लोगों से सहयोग की अपील करती है।

सुलह-समझौता!!!

इसके बाद बाबरी मस्जिद मुकदमे के पैरोकार और मुद्दई हाशिम अंसारी ने 2014 में कहा, मैं रामलला को आजाद देखना चाहता हूँ। मैं छह दिसंबर को मुस्लिम संगठनों के यौमे गम में भी शामिल नहीं होऊँगा। दरवाजा बंद कर घर में रहूँगा। वे बाबरी मस्जिद पर हो रही सियासत से दुखी थे। उन्होंने कहा, रामलला तिरपाल में रह रहे हैं और उनके नाम की राजनीति करने वाले महलों में। लोग लड्डू खाएं और रामलला इलायची दाना। यह नहीं हो सकता...अब रामलला को आजाद देखना चाहता हूं।

जुलाई 2016 में हाशिम अंसारी का 95 साल की उम्र में निधन हो गया। वे 65 साल तक मस्जिद की पैरवी करते रहे। अपने आखिरी दिनों में वे कोई ऐसा समझौता चाहते थे, जिसमें मंदिर-मस्जिद दोनों बनें। वे इस मामले में पैरवी के लिए अपने बेटे इकबाल के नाम वसीयत कर गए हैं। इकबाल कहते हैं, 'वैसे तो बात चल रही है सुलह-समझौते की... यही उनकी ख्वाहिश थी... वही काम हम भी करेंगे।' बहरहाल लगता नहीं कि सुलह-समझौता होगा। यह संग्राम चुनाव-मैदान में लड़ा जाएगा। इसके अच्छे या बुरे परिणाम वहीं देखने को मिलेंगे।   

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (29-10-2018) को "मन में हजारों चाह हैं" (चर्चा अंक-3139) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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