महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने एक तीर से कई निशाने लगाए हैं। एक, उद्धव ठाकरे को कमजोर कर दिया। पार्टी उद्धव ठाकरे को पाखंडी साबित करना चाहती है। वह बताना चाहती है कि 2019 में उद्धव ठाकरे केवल मुख्यमंत्री पद हासिल करने को लालायित थे, जिसके लिए उन्होंने चुनाव-पूर्व गठबंधन को तोड़ा और अपने वैचारिक प्रतिस्पर्धियों के साथ समझौता किया।
बीजेपी पर सरकार गिराने का जो कलंक लगा है कि उसने
शिवसेना की सरकार गिराई, उसे धोने के लिए उसने शिवसेना का मुख्यमंत्री और पूर्व
मुख्यमंत्री को उनका डिप्टी बनाया है। इस प्रकार वह त्याग की प्रतिमूर्ति भी बनी
आई है। फिलहाल उसकी रणनीति है कि बालासाहेब ठाकरे की विरासत का दावा करने की उद्धव
ठाकरे की योजनाओं को विफल किया जाए। बालासाहेब ठाकरे ने सरकारी पद हासिल नहीं करने
का जो फैसला किया था, उद्धव ठाकरे ने उसे खुद पर लागू नहीं किया। वे न केवल
मुख्यमंत्री बने, बल्कि अपने बेटे को मंत्रिपद भी दिया, जिनके पास कोई प्रशासनिक
अनुभव नहीं था।
शिंदे को पता था?
आज के इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर छापी है कि
बीजेपी नेतृत्व ने शिंदे
को मुख्यमंत्री बनाने का निश्चय कर रखा था और इस बात से शिंदे को शुरू में ही
अवगत करा दिया गया था। पर गुरुवार की शाम शपथ ग्रहण के समय पैदा हुए भ्रम से लगता
है कि देवेंद्र फडणवीस को इस बात की जानकारी नहीं थी। इस वजह से जेपी नड्डा और
अमित शाह को उप-मुख्यमंत्री पद को लेकर सफाई देनी पड़ी। बीजेपी फडणवीस को भी सरकार
में चाहती है, ताकि सरकार पर उसका नियंत्रण बना रहे।
फडणवीस योग्य प्रशासक हैं। उनकी उपेक्षा नहीं
की जा सकती है। बीजेपी को 2024 के चुनाव के पहले अपने कई मेगा-प्रोजेक्ट पूरे करने
हैं। इनमें बुलेट ट्रेन की परियोजना भी है। वे यदि सरकार से बाहर रहते, तो उनके
माध्यम से सरकार चलाना उसपर नियंत्रण रखना गैर-सांविधानिक होता। उससे गलत संदेश
जाता और बदमज़गी पैदा होती। पर यह भी लगता है कि उन्हें पूरी तस्वीर का पता नहीं
था। इस दौरान वे दो बार दिल्ली गए और अमित शाह तथा जेपी नड्डा से उनकी मुलाकात भी
हुई, पर शायद उन्हें सारी योजना का पता नहीं था। गुरुवार की शाम उन्होंने ही शिंदे
को मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी। उन्होंने तब कहा था कि मैं सरकार से
बाहर रहूँगा। ऐसा इसीलिए हुआ होगा क्योंकि उन्हें पूरी जानकारी नहीं थी।
उनकी इस घोषणा ने राजनीतिक पंडितों को चौंका
दिया था। इसके कुछ देर बाद जो कुछ हुआ, वह ज़्यादा
चौंकाने वाला था। चिमगोइयाँ शुरू हो गई कि उनके पर कतरे गए हैं। फडणवीस ने
उसी समय अपने एक ट्वीट से स्पष्ट किया कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। सवाल
यह भी है कि उन्होंने यह क्यों कहा कि मैं सरकार में शामिल नहीं होऊँगा? क्या इस विषय पर उनका नेतृत्व के साथ संवाद नहीं हुआ था?
पारिवारिक विरासत
काफी पर्यवेक्षक मान रहे हैं कि केवल शिंदे की मदद से शिवसेना की पारिवारिक विरासत को झपटना आसान नहीं होगा। पर भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण हैं, जब आक्रामक और उत्साही नेताओं ने पारिवारिक विरासत की परवाह नहीं की। 1989 में मुलायम सिंह ने चौधरी चरण सिंह की विरासत के बावजूद अजित सिंह को परास्त किया। उसके पहले 1987 में जयललिता ने एमजी रामचंद्रन की विरासत को जीता।