चीन के राष्ट्रपति शी
चिनफिंग की यात्रा के ठीक पहले भारतीय और चीनी मीडिया में इस बात को रेखांकित किया
गया कि तमिलनाडु के प्राचीन नगर मामल्लापुरम (महाबलीपुरम) का चयन क्यों किया और
किसने किया। खबरें थीं कि चीन ने खासतौर से इस जगह को चुना। चीनी डिप्लोमेसी की
विशेषता है कि वे संकेतों का सोच-समझकर इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के साथ चीन के
ईसा की पहली-दूसरी सदी के रिश्ते हैं। छठी-सातवीं सदी में पल्लव राजाओं ने चीन में
अपने दूत भेजे थे। सातवीं सदी में ह्वेनसांग इस इलाके में आए थे।
सन 1956 में तत्कालीन चीनी
प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भी मामल्लापुरम आए थे। क्या चीन ने जानबूझकर ऐसी जगह का
चुनाव किया, जो भगवा मंडली के राजनीतिक प्रभाव से मुक्त है? शायद इन रूपकों और
प्रतीकों की चर्चा होने की वजह से ही हमारे विदेश मंत्रालय ने सफाई पेश की कि इस जगह
को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुना था। मोदी ने शी के स्वागत में खासतौर से
तमिल परिधान वेष्टी को धारण किया।
चीनी राष्ट्रपति ने बीजिंग
जाकर कहा कि इन दोनों प्राचीन सभ्यताओं के बीच अगले 100 वर्षों के सहयोग का
कार्यक्रम बनना चाहिए। इसमें सैनिक सहयोग और विश्वास की स्थापना शामिल है। इतना ही
नहीं चीन से जारी एक बयान में कहा गया है कि चीन के फुजियान प्रांत और तमिलनाडु
तथा ग्वांजू शहर और चेन्नई के बीच एक नया रिश्ता कायम होगा, जो प्राचीन समुद्री
सिल्क रोड का नया अध्याय साबित होगा।
हमारे प्रचार-प्रिय प्रधानमंत्री ने दूसरी सुबह सागर तट से
कचरा बीनकर जो भी संदेश दिया हो, पर चीन की दिलचस्पी हिंद महासागर में है।
ज्यादातर चीनी मीडिया ने हिंद महासागर से होकर जाने वाले पुराने सिल्क रोड से
तमिलनाडु को जोड़ा। शी चिनफिंग ने इस बात का उल्लेख भी किया कि प्राचीन काल में तमिलनाडु
चीनी सिल्क रोड का महत्वपूर्ण ट्रांज़िट हब था।
डिप्लोमेसी के साथ प्रतीकात्मकता का गहरा रिश्ता है। इस
तमिलनाडु यात्रा से हालांकि दोनों देशों के बीच विश्वास का माहौल बना है, पर कुछ
कसक शी की नेपाल यात्रा से पैदा हुई है। उनका नेपाल में जैसा स्वागत हुआ, वैसा
शायद ही किसी विदेशी नेता का हुआ होगा। दिक्कत उनके स्वागत से नहीं, केपी शर्मा ओली की सरकार
के चीनी झुकाव से है। पिछले कुछ वर्षों से नेपाल की रीति-नीति में भारत की उपेक्षा
और चीन के प्रति झुकाव नजर आ रहा है। सामरिक दृष्टि से नेपाल और
चीन का गठजोड़ भारत के लिए खतरे की घंटी हैं।
पाकिस्तान-चीन कॉरिडोर के अलावा चीन ने म्यांमार-चीन
कॉरिडोर भी बना लिया है और अब नेपाल-चीन कॉरिडोर की बुनियाद भी डाल दी है। हालांकि
इस बात की औपचारिक घोषणा नहीं की गई है, पर चीन की नेपाल के रास्ते भारतीय सीमा पर
स्थिति लुम्बिनी तक रेल लाइन बिछाने की भी इच्छा है। तिब्बत के रास्ते काठमांडू तक
लाइन बिछाने का आश्वासन देकर शी चिनफिंग वापस गए हैं।
शी
चिनफिंग की यात्रा के बाद भारत और चीन के बीच हाल में पैदा हुई बदमज़गी कुछ कम होती
नजर आती है, पर यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि हमारे रिश्ते ऊँचे धरातल पर
पहुँच गए हैं। दिसम्बर 1956 में भी ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’
के दौर में चाऊ-एन-लाई इसी मामल्लापुरम में आए थे। उसके छह साल बाद ही 1962 की
लड़ाई हो गई। विदेश नीति का उद्देश्य दीर्घकालीन राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना
होता है।
चीनी समाचार एजेंसी
शिनह्वा के अनुसार शी चिनफिंग ने छह बिंदुओं में अपनी बात कही। दोनों देश हालात को
पढ़े और विश्वास को बढ़ाएं, दो, समय से एक-दूसरे को सूचित करें, सुरक्षा-सहयोग
सुधारें, कारोबारी मामलों में संवाद के मिकैनिज्म के सहारे विनिर्माण उद्योगों में
सहयोग करें। उन्होंने भारत के फार्मा और आईटी उद्योगों को चीन में निवेश करने का
निमंत्रण दिया। पाँचवीं बात सांस्कृतिक सहयोग की और छठी बात अंतरराष्ट्रीय संगठनों
में सहयोग की कही। चीनी राष्ट्रपति ने बताया कि इन अनौपचारिक सम्मेलनों का सुझाव
प्रधानमंत्री मोदी का है, पर यह उपयोगी है। इस श्रृंखला में अगली मुलाकात चीन में
होगी।
शी की इस यात्रा के
अर्थ को समझने के लिए उनके नेपाल पड़ाव पर भी नजर डालनी चाहिए। चीनी दबाव है कि हमारी ‘वन रोड, वन बेल्ट’ पहल में शामिल हों। नेपाल
उसमें शामिल है। नेपाल में बढ़ता चीनी असर हमें परेशान करता है। इसपर चीन का सुझाव
है कि आप भी इसमें शामिल हो जाइए। वहाँ चीनी पूँजी निवेश की स्थिति अभी स्पष्ट
नहीं है। चीनी निवेश का भार सहन करना आसान नहीं है। श्रीलंका का अनुभव है कि चीनी
सहयोग आसान नहीं है।
यह बैठक ऐसे समय हुई है जब आसियान देशों और भारत तथा
चीन सहित उनके छह व्यापारिक साझेदारों के बीच बैंकॉक में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक
साझेदारी (आरसीईपी) मुक्त व्यापार समझौते को लेकर वार्ता हो रही है। इसमें इन देशों
के वाणिज्य मंत्री शिरकत कर रहे हैं। भारत की दिलचस्पी अब दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग
संघ से हट रही है। चीन यदि इस क्षेत्र के विकास का हामी है, तो उसे भारत और
पाकिस्तान के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए।
भारतीय विदेश नीति के सामने इस समय तीन तरह की
चुनौतियाँ हैं। एक, राष्ट्रीय सुरक्षा, दूसरे आर्थिक विकास की गति और तीसरे
अमेरिका, चीन, रूस तथा यूरोपीय संघ के साथ रिश्तों में संतुलन बनाने की।
मामल्लापुरम की शिखर वार्ता भले ही अनौपचारिक थी, पर उसका औपचारिक महत्व है। पिछले
साल अप्रेल में चीन के वुहान शहर में हुए अनौपचारिक शिखर सम्मेलन से इस वार्ता की
शुरुआत हुई है, जिसका उद्देश्य टकराव के बीच सहयोग की तलाश।
दोनों देशों के बीच सीमा इतनी बड़ी समस्या नहीं है,
जितनी बड़ी चिंता चीनी नीति में पाकिस्तान की केन्द्रीयता से है। खुली बात है कि चीन न केवल पैसे से बल्कि रक्ष-तकनीक,
हथियारों तथा उपकरणों
से भी पाकिस्तान को लैस कर रहा है। भारत आने के पहले शी चिनफिंग ने इमरान खान को बुलाकर
उनसे बात की थी। यह एक प्रकार का प्रतीकात्मक संकेत था। सुरक्षा परिषद में भारत की
स्थायी सदस्यता और एनएसजी में चीनी अड़ंगा है। मसूद अज़हर को लेकर चीन ने कितनी आनाकानी
की।
कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के
बाद चीन ने मामले को सुरक्षा परिषद में उठाने की जब घोषणा की थी, तब विदेशमंत्री
एस जयशंकर ने चीन जाकर भारत के रुख को स्पष्ट किया था। भले ही चीन को बात समझ में
नहीं आए, पर समझाना हमारा फर्ज है। चीन ने सुरक्षा परिषद में और उसके बाद संयुक्त
राष्ट्र महासभा में पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया। सामरिक दृष्टि से वह हिंद
महासागर में हमें घेरने का प्रयास कर ही रहा है। उसके पास म्यांमार और श्रीलंका
में पोर्ट सुविधाएं हैं। ग्वादर में उसकी उपस्थिति है ही।
सामरिक प्रश्नों के अलावा दोनों देशों के बीच आर्थिक सवाल
हैं। दोनों का व्यापार 2018 में 95.54 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। इसमें भारत का व्यापार घाटा (निर्यात के मुकाबले
आयात) इस साल 53.6 अरब डॉलर तक पहुंच
गया है। शायद यह इससे भी ज्यादा है। 2017 में यह 51.72 अरब डॉलर था। मामल्लापुरम
बैठक के बाद भारत के विदेश सचिव विजय गोखले ने कहा कि चीन के साथ इस व्यापार घाटे
को कम करने के बारे में भी बात हुई है। भारत में चीन का पूँजी निवेश भी अपेक्षित
स्तर पर नहीं है। अप्रेल 2000 से जून 2019 के बीच चीन ने भारत में कुल 2.26 अरब डॉलर का निवेश किया है।
पिछले साल अप्रेल में वुहान शिखर वार्ता के बाद चीन
ने भारतीय औषधियों के लिए अपना बाजार खोलने की घोषणा की थी। चीन के बाजार में
हमारी दवाओं और आईटी उत्पादों और सेवाओं के प्रवेश जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। चीन
पर अमेरिकी प्रतिबंधों का दबाव भी है। खासतौर से टेलीकम्युनिकेशंस कम्पनी ह्वावे
को लेकर भारत पर अमेरिकी दबाव है। दोनों के बीच संतुलन बैठाने में भारत की परीक्षा
है।
भारतीय विदेश नीति की एक बड़ी परीक्षा हाल में
संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान हुई थी, जब भारत ने एक तरफ ब्रिक्स देशों के
सम्मेलन में और दूसरी तरफ चतुष्कोणीय सुरक्षा वार्ता में भी भाग लिया। चतुष्कोणीय
सुरक्षा यानी ‘क्वॉड’ वार्ता हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच
एक सामूहिक सुरक्षा समझौते की दिशा में बढ़ रही है। हालांकि भारत मानता है कि यह
चीन के खिलाफ बनने वाला मोर्चा नहीं है, पर ऐसा नहीं है तो क्या है?
चीन से प्रतिस्पर्धा के लिए भारत को स्किल, स्पीड और
स्केल (बड़ा आकार) चाहिए। चीन ने जिस तरह से अपनी विकास की कहानी लिखी है, क्या
वैसा हम कर पाएंगे? संयोग
से यह संधिकाल का है। चीनी गति धीमी पड़ रही है, पर हमारी तेज नहीं हो पा रही है। चीन
15 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है और हमारी मनोकामना अगले पाँच साल में पाँच
ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की है। फासला अभी काफी है।
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