कुछ लोग कहते हैं, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।
उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को
महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक
थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर हम उनकी धारणाओं पर विचार
करते भी नहीं हैं, पर आज जब समाजवाद के बाद पूँजीवाद के अंतर्विरोध सामने आ रहे
हैं, हमें गांधी याद आते हैं। गांधी अगर प्रासंगिक हैं, तो दुनिया के लिए हैं, केवल भारत के लिए नहीं।
गांधी उतने अव्यावहारिक नहीं थे, जितना समझा
जाता है। हमने उनकी ज्यादातर
भूमिका स्वतंत्रता संग्राम में ही देखी। और उन्हें प्रतिरोध के आगे देख नहीं पाते
हैं। स्वतंत्र होने के बाद देश के सामने जब प्रशासनिक-राजनीतिक समस्याएं आईं तबतक
वे चले गए। फिर भी गांधी की
प्रशासनिक समझ का जायजा उनके लेखन और व्यावहारिक गतिविधियों से लिया जा सकता है। देखने की जरूरत है कि कौन से ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें हमने
गांधी की सरासर उपेक्षा की है। कम से कम तीन विषय ऐसे हैं, जिनमें गांधी की सरासर
उपेक्षा हुई है। 1.स्त्रियाँ, 2.भाषा और 3.शिक्षा।
गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आने
से पहले तक आजादी की लड़ाई पूरी तरह पुरुष केंद्रित थी। गांधी ने स्त्रियों को स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ा। नतीजा
यह हुआ कि महिलाओं ने शराबबंदी के साथ विदेशी कपड़ों की होली जलाने में बढ़-चढ़कर
हिस्सा लिया। राष्ट्रीय आंदोलन
को देश-व्यापी बनाने में स्त्रियों की बहुत बड़ी भूमिका थी। उसी गांधी के देश में
संसद और विधायिकाओं में स्त्रियों को न्यूनतम भागीदारी देने वाली व्यवस्था ठंडे
बस्ते में पड़ी है।
अंगरेजी शिक्षा के गैर-भारतीय और मशीनी
स्वरूप को लेकर गांधी के मन में गहरी पीड़ा थी। खासतौर से भाषा के संदर्भ में। ‘हिन्द
स्वराज’ में उन्होंने यूरोप की मशीनी सभ्यता की आलोचना की, वहीं
अंगरेजों की थोपी शिक्षा पद्धति का विरोध भी किया। उन्होंने कहा, ‘करोड़ों
लोगों को अंगरेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। ऐसा नहीं कि वे अंगरेजी
के शैक्षिक महत्व को जानते समझते नहीं थे, पर इस विषय पर रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ
उनकी असहमति सर्वज्ञात है।
‘इंडियन ओपीनियन’ के 19-8-1910 के अंक
में उन्होंने लिखा, ‘हम लोगों में बच्चों को अंगरेज़ बनाने की
प्रवृत्ति पाई जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और
साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है।’ मातृभाषा के
महत्व को लेकर गांधी जी ने उपरोक्त विचार दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए व्यक्त किए
थे और 1915 में भारत आने के बाद भी वे इस बात को दोहराते रहे।
फरवरी 1916 में काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में उन्होंने कहा, ‘‘इस महान विद्यापीठ के
प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंगरेजी
में बोलना पड़े, यह अत्यन्त अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है।…हमारी भाषा हमारा ही
प्रतिविम्ब है। आप मुझ से यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए
ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है।…यदि पिछले पचास वर्षों
में हमें देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गई होती, तो …हमारे
पास एक आजाद भारत होता।’
आजादी के बाद
शुरुआती दशकों में चीन और भारत की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे
छोड़ता चला गया। बावजूद इसके कि आर्थिक विकास की हमारी गति बेहतर थी। आज भारत
सॉफ्टवेयर, फार्मास्युटिकल्स या
चिकित्सा के क्षेत्र में आगे है तो इसके पीछे हमारी नीतियाँ हैं, पर असली भारत
पीछे हैं, तो उसके पीछे भी हमारी नीतियाँ हैं। सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ
एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए
अमर्त्य सेन ने कहा था, भारत समय से
प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत आज अदा कर रहा है। हमने तकनीकी शिक्षा
के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी
शिक्षा के प्रति हमारा दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा।
गांधी ने शिक्षा में अक्षर ज्ञान से ज्यादा शारीरिक श्रम
की प्रतिष्ठा को महत्व दिया। 1-9-1921 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, ‘अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम
भारत में तो-जहाँ अस्सी फीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों
में काम करने वाली है, शिक्षा को केवल साहित्यिक बना देने तथा लड़कों
और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है।...क्यों
एक किसान का बेटा किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में निकम्मा बन
जाय।...हमारी पाठशालाओं के लड़के शारीरिक श्रम को तिरस्कार की दृष्टि से चाहे न
देखते हों, पर नापसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं।’ बुनियादी तालीम का उनका विचार इस मनोदशा को तोड़ने वाला था।
22–23 अक्टूबर, 1937
को वर्धा में 'अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन'
हुआ, जिसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की। सम्मेलन में 'नई
तालीम' पर हुई चर्चा
में विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन,
सहित अनेक विद्वानों ने भाग लिया।
सम्मेलन के प्रस्तावों में कहा गया, बच्चों को सात साल तक राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क
एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। मतलब यह नहीं कि गांधी ने उच्च शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। वे इस बुनियाद
पर ही उच्च शिक्षा का भवन खड़ा करना चाहते थे।
गांधी को आधुनिकता का विरोधी माना
जाता है। मसलन वे यंत्रों के विरोधी थे। सवाल है कि विरोधी क्यों थे? इसलिए नहीं कि तकनीकी विकास
से उनका बैर था। बल्कि इसलिए कि वे तकनीक को सामाजिक जरूरत के रूप में देखते थे,
जो वास्तव में तकनीक का उद्देश्य है। तकनीक के बारे में उनकी समझ का पता महादेव देसाई के एक लेख से
मिलता है।
उन्होंने गांधी और एक व्यक्ति के
बीच हुए संवाद का उदाहरण दिया है:-‘क्या
आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?’ रामचंद्रन ने सरल भाव से पूछा। गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि
यह शरीर भी एक नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दाँत
कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके
लिए है...समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परन्तु
वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी
चाहिए।
गांधी ने आगे यह भी कहा कि मैं
बड़े कारखानों का विरोध भी नहीं करूँगा, पर उनका मालिक
राष्ट्र हो। उनके ट्रस्टीशिप
के विचार को लोग हवाई परिकल्पना
मानते हैं। क्या वास्तव में
कॉरपोरेट मैनेजर अपने मालिकों का ट्रस्टी नहीं होता? दुनिया की कम्पनियाँ अब जनता के अंशदान (शेयर
पूँजी) के सहारे खड़ी होती हैं। वैश्विक पूँजीवाद जिस कॉरपोरेट लोकतंत्र और
शेयरहोल्डर के अधिकारों की बात करता है, उससे गांधी के
विचारों का टकराव नहीं है। वामपंथियों ने आज गांधी को मंजूर कर लिया है, पर कुछ दशक पहले तक
तो उनकी नजर में वे क्रांति-विरोधी थे।
31 दिसम्बर 1999 का ‘टाइम’ पत्रिका का अंक सदी के महान व्यक्तियों पर
केन्द्रित था। उसमें नेल्सन मंडेला ने लिखा, गाँधी
ने अहिंसा को हथियार तब बनाया जब हिरोशिमा और नगासाकी की हिंसा हम पर फटी नहीं थी।
मैं भरसक गांधी की अहिंसक रणनीति पर चला। पर मेरे जीवन में एक ऐसा क्षण भी आया, जब मैंने महसूस किया कि उत्पीड़क की हिंसा अब सहन नहीं होती। तब हमने
अपने संघर्ष को एक सैनिक आयाम दिया और उमकोंतो वे सिज्वे (राष्ट्र की बरछी) नाम से
संगठन बनाया। गांधी ने कभी
हिंसा को पूरी तरह खारिज नहीं किया। उनके अनुसार जब हिंसा और कायरता के बीच फैसला
करना होगा तो मैं हिंसा की सलाह दूँगा....मैं चुपचाप बेइज्जती को स्वीकार करने के
बजाय सम्मान की रक्षा के लिए हथियार उठाने को कहूँगा...।
मंडेला के अनुसार दुनिया पर आज हावी विकसित औद्योगिक समाज की अवधारणा के अकेले आलोचक
गाँधी-विचार हैं। दूसरों ने इस अवधारणा के निरंकुश स्वरूप की आलोचना तो की है, पर इसके उत्पादक औजारों की निन्दा नहीं की। वे चाहते थे कि औजार उसके प्रयोक्ता के
नियंत्रण में रहे वैसे ही जैसे क्रिकेट का बैट या कृष्ण की बाँसुरी। और उत्पादन
प्रक्रिया में नैतिकता हो। ऐसे दौर में जब मार्क्स ने पूंजीपति और मजदूर के बीच टकराव देखा, गाँधी दोनों के झगड़े निपटा रहे थे।
उन्होंने इस दावे का भंडाफोड़
किया कि प्रत्येक व्यक्ति कठोर श्रम करे तो वह अमीर और सफल हो सकता है। उन्होंने
लाखों-करोड़ों लोगों का उदाहरण दिया जो हाड़-तोड़ काम करते हैं और भूखे रह जाते
हैं। गांधी अपने आरामगाह को यह कहते हुए छोड़कर आम जनता के साथ आए कि मैं आर्थिक
बराबरी नहीं ला सकता, पर मैं खुद को तो कम करके गरीबों के बराबर ला
सकता हूँ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-10-2019) को "झूठ रहा है हार?" (चर्चा अंक- 3482) पर भी होगी। --
ReplyDeleteचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री रामनवमी और विजयादशमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया विचारणीय आलेख।
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