चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की दो दिन की भारत
यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच पैदा हुई कड़वाहट एक सीमा तक कम हुई है। फिर भी
इस बातचीत से यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि हमारे रिश्ते बहुत ऊँचे धरातल
पर पहुँच गए हैं। ऐसा नाटकीय बदलाव कभी संभव नहीं। दिसम्बर 1956 में भी चीन के
तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई इसी मामल्लापुरम में आए थे। उन दिनों ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का था। उसके छह साल बाद ही 1962 की लड़ाई हो गई। दोनों
के हित जहाँ टकराते हैं, वहाँ ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है। विदेश नीति का उद्देश्य दीर्घकालीन राष्ट्रीय
हितों की रक्षा करना होता है।
भारतीय विदेश नीति के सामने इस समय तीन तरह की
चुनौतियाँ हैं। एक, राष्ट्रीय सुरक्षा, दूसरे आर्थिक विकास की गति और तीसरे
अमेरिका, चीन, रूस तथा यूरोपीय संघ के साथ रिश्तों में संतुलन बनाने की।
मामल्लापुरम की शिखर वार्ता भले ही अनौपचारिक थी, पर उसका औपचारिक महत्व है। पिछले
साल अप्रेल में चीन के वुहान शहर में हुए अनौपचारिक शिखर सम्मेलन से इस वार्ता की
शुरुआत हुई है, जिसका उद्देश्य टकराव के बीच सहयोग की तलाश।
दोनों देशों के बीच सीमा इतनी बड़ी समस्या नहीं है,
जितनी बड़ी चिंता चीनी नीति में पाकिस्तान की केन्द्रीयता से है। खुली बात है कि चीन न केवल पैसे से बल्कि सैनिक तकनीक और हथियारों तथा उपकरणों से भी
पाकिस्तान को लैस कर रहा है। भारत आने के पहले शी चिनफिंग ने इमरान खान को बुलाकर
उनसे बात की थी। सही या गलत यह एक प्रकार का प्रतीकात्मक संकेत था। सुरक्षा परिषद में
भारत की स्थायी सदस्यता और एनएसजी में चीनी अड़ंगा है। मसूद अज़हर को लेकर चीन ने कितनी
आनाकानी की।
कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के
बाद चीन ने मामले को सुरक्षा परिषद में उठाने की जब घोषणा की थी, तब विदेशमंत्री
एस जयशंकर ने चीन जाकर भारत के रुख को स्पष्ट किया था। भले ही चीन को बात समझ में
नहीं आए, पर समझाना हमारा फर्ज है। दोनों देशों के बीच ज्यादा बड़े सवाल आर्थिक
हैं। दोनों का व्यापार 95 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। चीन के साथ भारत का व्यापार
घाटा (निर्यात के मुकाबले आयात) पिछले साल बढ़कर 57.86 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। 2017
में यह 51.72 अरब डॉलर था।
पिछले साल अप्रेल में वुहान शिखर वार्ता के बाद चीन
ने भारतीय औषधियों के लिए अपना बाजार खोलने की घोषणा की थी। देखना होगा कि इस
वार्ता के बाद क्या होता है। चीन के घरेलू बाजार में हमारी दवाओं और आईटी उत्पादों
और सेवाओं के प्रवेश जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। चीन पर अमेरिकी प्रतिबंधों का
दबाव भी है। खासतौर से टेलीकम्युनिकेशंस कम्पनी ह्वावे को लेकर भारत पर अमेरिकी
दबाव है। दोनों के बीच संतुलन बैठाने में भारत की परीक्षा है।
दोनों देशों के कारोबारी रिश्तों में जितनी गहराई है,
उतनी ही बड़ी खाई सामरिक रिश्तों में है। सन 1962 के बाद से भारत ने चीन पर भरोसा
करना छोड़ दिया है, पर यह भी सच है कि 57 साल बाद भी दोनों देशों ने सीमा विवाद को
लेकर संयम बरता है। सन 2017 के डोकलाम विवाद के बावजूद पिछले साल वुहान शिखर
सम्मेलन हुआ और अब कश्मीर को लेकर तनातनी के बावजूद मामल्लापुरम सम्मेलन सम्पन्न
हुआ। यह दोनों देशों की समझदारी के कारण सम्भव हुआ है।
भारतीय विदेश नीति की एक बड़ी परीक्षा हाल में
संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान हुई थी, जब भारत ने एक तरफ ब्रिक्स देशों के
सम्मेलन में और दूसरी तरफ चतुष्कोणीय सुरक्षा वार्ता में भी भाग लिया। चतुष्कोणीय
सुरक्षा यानी ‘क्वॉड’ वार्ता हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, अमेरिका, जापान और
ऑस्ट्रेलिया के बीच एक सामूहिक सुरक्षा समझौते की दिशा में बढ़ रही है। हालांकि
भारत मानता है कि यह चीन के खिलाफ बनने वाला मोर्चा नहीं है, पर व्यावहारिक सच है
कि यह चीन-विरोधी सामरिक मोर्चा ही है। सच यह भी है कि इसमें शामिल होने के बावजूद
भारत का चीन के प्रति नरम रवैया है।
भारत ने दक्षिण चीन सागर
क्षेत्र में गतिविधियाँ बढ़ाई हैं। चीन की सीमा से लगे देशों के साथ रिश्ते सुधारे
हैं। वियतनाम और फिलीपींस के साथ सामरिक समझौते भी किए हैं। मंगोलिया के साथ दोस्ती
कायम की है। नरेन्द्र मोदी सितम्बर में ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम के सालाना अधिवेशन में
शामिल होने के लिए रूस के व्लादीवोस्तक गए थे। यह फोरम रूस के सुदूर पूर्व इलाके
में विदेशी निवेश और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने
के लिए गठित किया गया है। व्लादीवोस्तक रूस
के सुदूर पूर्व में चीन के साथ लगा हुआ बंदरगाह है। चीन, दक्षिण कोरिया और जापान के
एकदम करीब पड़ने वाला यह क्षेत्र एशिया-प्रशांत के बढ़ते महत्व के कारण दुनिया का
ध्यान खींच रहा है। भारत ने इस क्षेत्र के विकास के लिए एक अरब डॉलर की क्रेडिट
लाइन की घोषणा की है।
जिस तरह चीन ने हिन्द
महासागर में भारत की घेराबंदी की कोशिश की है, तकरीबन उसी तरह भारत ने भी
हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में पेशबंदी की है। व्यावहारिक राजनय के लिहाज से इसमें
हैरत की कोई बात नहीं है। दोनों देशों के बीच सहयोग और प्रतिस्पर्धा दोनों चलेंगे।
चीन
के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत को स्किल (कौशल), स्पीड
(गति) और स्केल (बड़ा आकार) चाहिए।
चीन ने पिछले कई दशकों में जिस तरह से अपनी विकास की कहानी
लिखी है, वैसा ही कुछ भारत को भी करना होगा। भारत ने
फार्मास्युटिकल्स, चिकित्सा, आईटी और अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में काफी
प्रगति की है, पर उसे आर्थिक संवृद्धि को तेज करना होगा। संयोग से यह एक नए
संधिकाल का है। चीन की गति धीमी पड़ रही है और भारत की तेज हो रही है। चीन को भी
भय है कि कहीं भारत पूरी तरह अमेरिकी खेमे में न चला जाए। और अमेरिका को भी अंदेशा
है कि भारत कहीं चीन के करीब न हो जाए।
यह बात हमारे हित में है। पर हमें व्यावहारिक दृष्टि
से देखना होगा। चीन 15 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है और हम अगले पाँच साल में
पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं। उसने पिछले चार दशक में
जबर्दस्त आर्थिक प्रगति की है। हम उसके बराबर आ सकते हैं, पर इसके लिए हमें भी तेज
प्रगति करनी होगी।
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