अयोध्या मामले पर सत्तर साल से ज्यादा
समय से चल रहा कानूनी विवाद तार्किक परिणति तक पहुँचने वाला है। न्याय-व्यवस्था के
लिए तो यह मामला मील का पत्थर साबित होगा ही, देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए भी
युगांतरकारी होगा। मामले की सुनवाई के आखिरी दिन तक और अब फैसला आने के पहले इस
बात को लेकर कयास हैं कि क्या इस मामले का निपटारा आपसी समझौते से संभव है? ऐसा संभव होता तो अबतक हो चुका होता। न्यायिक
व्यवस्था को ही अब इसका फैसला करना है। अब मनाना चाहिए कि इस निपटारे से किसी किस्म की सामाजिक बदमज़गी पैदा न हो।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को
चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में 40 दिन की लगातार सुनवाई के दौरान
यह बदमज़गी भी किसी न किसी रूप में व्यक्त हुई थी। अदालत में सुनवाई के आखिरी दिन
भी कुछ ऐसे प्रसंग आए, जिनसे लगा कि कड़वाहट कहीं न कहीं गहराई तक बैठी है। अदालत
के सामने अलग-अलग पक्षों ने अपनी बात रखी है। उसके पास मध्यस्थता समिति की एक
रिपोर्ट भी है। इस समिति का गठन भी अदालत ने ही किया था।
अदालत के सामने सभी पक्षों के कड़वे-मीठे
दृष्टिकोण रखे जाते रहे हैं। साथ ही मामले को आपसी सहमति से निपटाने की कोशिशें भी
होती रहीं हैं। सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में जन्मभूमि का
स्वामित्व तीन दावेदारों के बीच विभाजित किया था। इनमें रामलला विराजमान, निर्मोही
अखाड़ा और मुस्लिम पक्ष का प्रतिनिधि सुन्नी वक्फ बोर्ड है। एक पक्ष के भीतर भी कई
प्रकार के विचार हैं। विचार के भीतर विचार हैं। इनमें सदाशयता भी है और सामाजिक
ताने-बाने को तोड़ने वाली कोशिशें भी हैं।
एक बात स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट के
फैसले में बुनियादी तौर पर हाईकोर्ट के फैसले का संदर्भ होगा। हाईकोर्ट ने इसके
लिए भूमि के स्वामित्व को आधार बनाया है। उसके फैसले को स्वीकार किया जा सकता है
या उसमें संशोधन हो सकता है या उसे नामंजूर किया जा सकता है। तीनों परिस्थितियों
के अलग-अलग निहितार्थ हैं। उन्हें लेकर अभी से कयास लगाए जा रहे हैं। यह बात
निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि देश की जनता इस मामले का शांतिपूर्ण समाधान
चाहती है। कोई नहीं चाहता कि इसे लेकर गैर-जरूरी कड़वाहट पैदा हो।
अदालत की सुनवाई के आखिरी दौर में एक
खबर आई कि एक महत्वपूर्ण मुस्लिम पक्षकार ने कहा है कि व्यापक सामाजिक हित में हम
इस जमीन पर दावा छोड़ने को तैयार हैं। यह खबर जितनी तेजी से आई उतनी ही तेजी से
इसके खंडन की खबरें भी आने लगीं। सुनवाई पूरी होने के बाद शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट
के पाँच वकीलों ने एक संयुक्त बयान जारी करके कहा कि मुस्लिम पक्ष की ओर से ऐसा
कोई प्रस्ताव नहीं है। बहरहाल फैसले को लेकर कई तरह के कयास हैं। क्या अदालत इसे
केवल स्वामित्व के रूप में देखेगी? क्या वह आस्था के सवाल पर फैसला करेगी? क्या
उसपर जनमत का दबाव होगा? ऐसे बीसियों सवाल हैं। इनका जवाब फैसला आने पर
ही मिलेगा।
चूंकि चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई 17 नवंबर
को सेवानिवृत्त हो रहे हैं, इसलिए माना जा रहा है कि फ़ैसला नवंबर तक आ जाएगा। जस्टिस
गोगोई को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने सुनवाई की जो समय सीमा रखी
थी, वे उस पर दृढ़ रहे। पिछले बुधवार को जब इस मुक़दमे की सुनवाई पूरी हुई, तो यह जानकारी भी सामने आई कि सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ये दूसरी
सबसे लंबे समय तक चली सुनवाई थी। इससे पहले, केशवानंद
भारती केस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट ने 68 दिनों तक की थी।
जाहिर है कि यह आसान फैसला नहीं होगा। और
आधुनिक भारत की बुनियाद डालेगा। पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से इस मामले के
समांतर राष्ट्रीय राजनीति चल रही है।
इसलिए इसकी संवेदनशीलता को हमें समझना
चाहिए। सन 1989 में एक समय लगा था कि इस विषय में आम सहमति से समझौता हो जाएगा। तब
वीपी सिंह की सरकार थी। ऐसा संभव होता तो बाबरी विध्वंस की घटना नहीं हो पाती।
फिर 1993 में केन्द्र सरकार ने इस जमीन
का अधिग्रहण किया, तब लगा कि शायद कोई समाधान सामने आने वाला है। पीवी नरसिंहराव सरकार
ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से भी इस मसले पर सलाह मांगी थी लेकिन
सुप्रीम कोर्ट ने राय देने से मना कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट को ही इसका फैसला
करना है। अब यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के आधार पर होगा।
मार्च 2017 में सुप्रीम कोर्ट के
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जगदीश सिंह खेहर ने कहा था कि इस मामले को आपसी
बातचीत से सुलझाना चाहिए। ज़रूरत पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट के जज भी मध्यस्थता करने
के लिए तैयार हैं। सच यह है कि इस मामले में मध्यस्थता और समझौते के तमाम प्रयास
विफल हो चुके हैं। 1853 में पहली बार इस जमीन को लेकर दोनों संप्रदायों में विवाद
हुआ। 1859 में विवाद की वजह से अंग्रेजों ने पूजा और नमाज अदा करने के लिए बीच का
रास्ता अपनाया था। अंग्रेजों ने हिन्दू हिस्से और मुस्लिम हिस्से का विभाजन कर
दिया था।
पिछले डेढ़ सौ साल से ज्यादा समय में
कम से कम नौ बड़ी कोशिशें समस्या के समाधान की हो चुकी हैं। सभी में विफलता मिली
है, पर एक अनुभव यह भी मिला है कि इस समझौते को कोई वैधानिक रूप दिए बगैर
समाधान सम्भव नहीं है। हमारी सर्वोच्च अदालत सीधे हस्तक्षेप
से बचती रही है, पर लगता है कि इसका समाधान अदालत से ही होगा। और वह घड़ी अब आ
पहुँची है।
हम राष्ट्र को सर्वोच्च आराध्य-स्थल के
रूप में विकसित करना चाहें, तब हमारा दृष्टिकोण काफी व्यापक और उदार हो
जाता है। ऐसा संभव होता, तो यह विवाद पैदा ही क्यों होता? इकबाल
की एक नज्म की कुछ पंक्तियाँ हैं, ‘इस देस में हुए हैं हज़ारों मलक-ए-सरश्त/ मशहूर
जिनके दम से है दुनिया में नाम-ए-हिन्द/ है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़/
अहले-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिन्द।’ इक़बाल कहते हैं कि भारत में हज़ारों लोग
ऐसे भी रहे हैं, जिनके सहारे भारत का दुनिया भर में नाम है। राम के अस्तित्व पर
सम्पूर्ण भारत गर्व महसूस करता है और विद्वान उनको 'इमाम-ए-हिन्द' कहते
हैं।
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