संयुक्त राष्ट्र में इमरान खान के भावुक प्रदर्शन के
बाद पाकिस्तान में सवाल उठ रहा है कि अब क्या? इस हफ्ते जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने नियंत्रण रेखा पर मार्च किया। शहरों, स्कूलों
और सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में कश्मीर को लेकर कार्यक्रम हुए। पर सवाल है कि
इससे क्या होगा? पाकिस्तानी
शासकों का कहना है कि हम इस मामले के अंतरराष्ट्रीयकरण में कामयाब हुए हैं। दूसरी
तरफ एक और सवाल उठ रहा है कि क्या देश में एक और सत्ता परिवर्तन होगा? सवाल उठाने वालों के पास कई तरह के कयास हैं। जमीयत उलेमा—इस्लाम
(फज़ल) के प्रमुख फज़लुर रहमान ने 31 अक्तूबर को ‘आज़ादी मार्च’ निकालने का ऐलान
कर दिया है। इस मार्च का केवल एक उद्देश्य है सरकार को गिराना। क्या विरोधी दल एक
साथ आएंगे? उधर तालिबान प्रतिनिधियों से इस्लामाबाद में अमेरिकी दूत
जलमय खलीलज़ाद की हुई मुलाकात के बाद लगता है कि डिप्लोमेसी के कुछ पेच और सामने
आने वाले हैं।
पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति में बदलाव समर्थकों का अनुमान
है कि इमरान के कुछ मंत्रियों पर गाज गिरेगी। संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की
स्थायी प्रतिनिधि मलीहा लोधी की छुट्टी कर दी गई है। उन्हें हटाए
जाने को लेकर भी चिमगोइयाँ हैं। सरकार ने स्पष्ट किया है कि यह सामान्य बदलाव है, पर इस
फैसले के समय और तरीके को लेकर कई तरह के अनुमान हैं। कयास तो यह भी है कि इमरान
साहब की छुट्टी भी हो सकती है। कौन करेगा छुट्टी? इसके दो तरीके
हैं। देश का विपक्ष एकजुट होने की कोशिश भी कर रहा है। दूसरा रास्ता है कि देश की
सेना उनकी छुट्टी कर दे।
भला सेना छुट्टी क्यों करेगी? इमरान तो सेना के ही सिपाही साबित हुए हैं। सेना
ने ही उन्हें स्थापित किया है। बाकायदा चुनाव जिताने में मदद की है। सबसे बड़ा सच
यह है कि देश के सामने खड़ा आर्थिक संकट बहुत भयावह शक्ल लेने वाला है। अब लगता है
कि सेना ने अर्थव्यवस्था को ठीक करने का जिम्मा भी खुद पर ओढ़ लिया है।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने जानकारी दी है कि हाल में सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा ने
देश के प्रमुख कारोबारियों के साथ निजी तौर पर कई बैठकें की हैं। गत 2-3 अक्तूबर की
रात हुई बैठक के बारे में तो सेना ने आधिकारिक रूप से विज्ञप्ति भी जारी की है।
व्यापारियों के साथ बैठकें
बिजनेस मीडिया हाउस ब्लूमबर्ग के अनुसार देश की व्यापारिक
राजधानी कराची और सेना के मुख्यालय रावलपिंडी में कम से कम तीन बैठकें हो चुकी
हैं। इन बैठकों की खबरें आने के पहले जुलाई में जब इमरान खान अमेरिका की यात्रा पर
गए थे, तब उनके साथ सेनाध्यक्ष बाजवा और आईएसआई के चीफ फैज़ हमीद भी गए थे। उस
वक्त माना गया कि शायद वे इसलिए गए होंगे, क्योंकि अफगानिस्तान में शांति समझौते
के लिए तालिबान के साथ बातचीत चल रही थी। पाकिस्तानी सेना की तालिबान के साथ
नजदीकियों से सब वाकिफ हैं।
इसमें दो राय नहीं कि पाकिस्तानी शासन में सेना की सीधी
भूमिका है। जुलाई के महीने में ही देश की राष्ट्रीय विकास परिषद में जनरल बाजवा को
सदस्य बनाया गया था। जुलाई में ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को छह
अरब डॉलर का ऋण स्वीकृत किया था। रक्षा और विदेश नीतियाँ तो सेना के हाथ में ही
हैं। पर क्या सेना अब आर्थिक नीतियों का संचालन भी करेगी? हाल में पाकिस्तानी सेना की प्रचार शाखा आईएसपीआर के प्रमुख मेजर जनरल ग़फ़ूर
ने ट्वीट किया कि अर्थव्यवस्था भी राष्ट्रीय सुरक्षा का महत्वपूर्ण अंग है। इस
तथ्य पर बहुत कम लोग ध्यान देते हैं कि पाकिस्तान में सेना महत्वपूर्ण कारोबारी
संस्था है। देश के तमाम उद्योग और व्यापार उसके अधीन हैं। वस्तुतः वह देश का सबसे
बड़ा कारोबारी घराना है।
इमरान का घटता रसूख
मीडिया में कयास है कि यह बैठक इमरान खान के घटते रसूख को
बताती है और इससे यह भी जाहिर होता है कि वहाँ की सेना प्रशासनिक मामलों में
हस्तक्षेप कर रही है। अलबत्ता पाकिस्तान के ही निष्पक्ष प्रेक्षकों का अनुमान है
कि इसका उद्देश्य देश के व्यापारियों के मन में नेशनल एकाउंटेबलिटी ब्यूरो यानी ‘नैब’ के तौर-तरीकों
की वजह से पैदा हुए डर को कम करना था। इसमें सेना की मदद ली गई।
बताते हैं कि इमरान खान ने खुद व्यापारियों से कहा था कि आप
जनरल बाजवा से भी मिल लें। यह तो मानी हुई बात है कि पाकिस्तान में सेना की
प्रशासनिक भूमिका है। उसे भारतीय प्रशासनिक परिस्थितियों की नज़र से देखा नहीं जा
सकता। इस बैठक में आर्थिक मसलों से सम्बद्ध बड़े सरकारी पदाधिकारी शामिल थे। इनमें
सरकार के वित्तीय सलाहकार अब्दुल हफीज़ शेख, राजस्व परिषद के अध्यक्ष शब्बर ज़ैदी
और आर्थिक मामलों के मंत्री हम्माद अज़हर शामिल थे।
फिलहाल लगता यही है कि सेना और सरकार दोनों की दिलचस्पी आर्थिक संकट को दूर करने में है। निशात ग्रुप के मियां
मुहम्मद मंशा ने व्यापारियों की तरफ से बातें रखीं। उन्होंने खासतौर से
लालफीताशाही वगैरह का जिक्र किया। व्यापारियों का कहना था कि नैब ने किसी को नहीं
छोड़ा है। गुल अहमद ग्रुप के बशीर अली मुहम्मद, लकी सीमेंट ग्रुप के मुहम्मद अली
तब्बा ने भी अपनी बातें रखीं। बैठक में तीस के आसपास व्यापारिक प्रतिनिधि शामिल
हुए थे। रात के आठ बजे शुरू हुई बैठक डेढ़ बजे तक चली थी। प्रत्यक्षदर्शियों का
कहना है कि बैठक खत्म होने के बाद व्यापारियों के चेहरे खिले हुए थे।
सेना की भूमिका
व्यापारिक घरानों के साथ बैठकों की खबरें आने के बावजूद
आधिकारिक रूप से इनके बारे में कोई सूचना नहीं दी गई, पर गुरुवार 3 अक्तूबर को
पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता ने बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी करके जानकारी दी है
कि जनरल बाजवा ने एक दिन पहले बुधवार को एक बैठक बुलाई, जिसमें आर्थिक विषयों से
जुड़े सरकारी अधिकारी और व्यापार घरानों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। यह सूचना
चौंकाने वाली थी। सेनाध्यक्ष ने भला ऐसी कौन सी बात पर बैठक बुलाई, जिसमें
प्रधानमंत्री की भूमिका नहीं थी?
इन बैठकों के बारे में पहले से कहा जा रहा है कि इनमें केवल
विचार-विमर्श ही नहीं होता है, बल्कि इनके बाद जरूरी निर्देश सरकारी अफसरों के नाम
जारी होते हैं। कहा जा रहा है कि जनरल बाजवा देश के उद्योग-व्यापार समुदाय का
विश्वास जगाने का प्रयास कर रहे हैं। कारोबारी भी चाहते हैं कि आर्थिक निर्णयों
में सेना ज्यादा बड़ी भूमिका अदा करे, क्योंकि इमरान खान अनुभवहीन हैं। कहा यह भी
जाता है कि देश में जब-जब सेना ने सत्ता संभाली है आर्थिक विकास की गति तेज हुई
है।
‘नैब’ की सख्ती से
परेशानी
आईएसपीआर की विज्ञप्ति के अनुसार बुधवार की बैठक में जनरल बाजवा ने व्यापारियों से कहा कि देश की आंतरिक सुरक्षा में सुधार होने के बाद अब हमें कारोबारी गतिविधियों को तेज करना चाहिए, ताकि आर्थिक स्थिति सुधरे। उन्होंने कहा कि देश की सुरक्षा और आर्थिक संवृद्धि के संतुलन से ही समृद्धि आएगी। बुधवार की बैठक के अगले रोज गुरुवार 3 अक्तूबर को प्रधानमंत्री इमरान खान ने देश के उद्योग-व्यापार प्रतिनिधियों के साथ फिर दो बैठकें कीं।
आईएसपीआर की विज्ञप्ति के अनुसार बुधवार की बैठक में जनरल बाजवा ने व्यापारियों से कहा कि देश की आंतरिक सुरक्षा में सुधार होने के बाद अब हमें कारोबारी गतिविधियों को तेज करना चाहिए, ताकि आर्थिक स्थिति सुधरे। उन्होंने कहा कि देश की सुरक्षा और आर्थिक संवृद्धि के संतुलन से ही समृद्धि आएगी। बुधवार की बैठक के अगले रोज गुरुवार 3 अक्तूबर को प्रधानमंत्री इमरान खान ने देश के उद्योग-व्यापार प्रतिनिधियों के साथ फिर दो बैठकें कीं।
व्यापारियों को हाल में ‘नैब’ की सख्ती से
परेशानी है। इमरान खान ने कहा है कि हम बड़े कारोबारियों की कमेटी बनाएंगे, जो तय
करेगी कि किस व्यापारी के खिलाफ सख्ती हो और किसके खिलाफ नहीं हो। यानी अब एनएबी
मामले को कारोबारियों की कमेटी के पास भेजेगा उसके बाद तय होगा कि कार्रवाई हो या
नहीं हो। इस आश्इवासन के दो हफ्ते बाद ही सरकार अपने वायदे से मुकर गई। इसके पहले जब नवाज शरीफ प्रधानमंत्री थे, तब भी कारोबारियों की यही
शिकायत थी। इस साल अगस्त में देश की कैबिनेट ने एनएबी की गतिविधियों को लेकर कुछ
बदलाव भी किए हैं, ताकि व्यापारियों की शिकायतें दूर हों।
‘नैब’ से केवल व्यापारियों को ही नहीं नौकरशाहों को भी शिकायतें हैं। उनका कहना है
कि यह संस्था धमकाकर काम कर रही है। इन सब शिकायतों को सामने रखते हुए सरकार ने ‘नैब’ की शक्तियाँ
कम करने का एक विधेयक भी सीनेट में पेश किया है। बताते हैं कि हाल में एनएबी की
हरकतों की वजह से एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कराची से पेशावर की नई रेल लाइन से
जुड़ी फाइल पर, जिसे एमएल-1 (मेन लाइन-1) के नाम से जाना जाता है, दस्तखत करने से
इनकार कर दिया था।
पाकिस्तानी सेना की कारोबारी भूमिका को लेकर भारत में लोगों
को विस्मय होगा, पर पाकिस्तान के लिए यह कोई अनोखी बात नहीं है। पाकिस्तान में
सेना का फौजी फाउंडेशन देश की सबसे बड़ी वित्तीय संस्था है। इस संस्था के ऊर्जा,
उर्वरक, सीमेंट, खाद्य सामग्री, बिजली उत्पादन, गैस की खोज, रसोई गैस की
मार्केटिंग, वित्तीय, रोजगार और सिक्योरिटी सेवाओं से जुड़े कारोबार हैं। इसका
संचालन पूर्व फौजी करते हैं। सन 1954 में एक दातव्य ट्रस्ट के रूप में गठित यह
संस्था आज देश का सबसे बड़ा कारोबारी संस्थान है। इसकी तीन कंपनियाँ फौजी सीमेंट,
फौजी फर्टिलाइजर बिन कासिम और फौजी फर्टिलाइजर कंपनी लिमिटेड पाकिस्तान शेयर बाजार
में सूचीबद्ध भी हैं। जुलाई 2016 में पाकिस्तानी सीनेट को सरकार ने सूचना दी कि देश की सेना 50 से ज्यादा कारोबारी संस्थाओं को चलाती है, जिनकी सकल संपदा
29 अरब डॉलर से ज्यादा है।
‘आज़ादी
मार्च’
पिछले दो साल में विरोधी दलों के नेताओं की पकड़-धकड़ के
बाद देश में इमरान खान और सेना के खिलाफ भी माहौल बन रहा है। जमीयत उलेमा—इस्लाम
(फज़ल) के प्रमुख फज़लुर रहमान ने 31 अक्तूबर को ‘आज़ादी मार्च’ निकालने का ऐलान कर दिया है। इस
मार्च का केवल एक उद्देश्य है सरकार को गिराना। यह मार्च देशभर से निकलेगी और
राजधानी इस्लामाबाद में खत्म होगी।
इस मार्च को लेकर दूसरे राजनीतिक
दलों में भी हलचल है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नून) ने
अभी इस मार्च के बाबत अपनी रणनीति स्पष्ट नहीं की है, पर इतना तय है कि इमरान खान
ने देश के राजनीतिक दलों से जो पंगा मोल लिया है, वह भारी पड़ने वाला है। पीएमएल
ने तो मौलाना फज़लुर रहमान से
कहा है कि वे इस मार्च की तारीख आगे बढ़ा दें, तो बेहतर होगा। पीपीपी के बिलावल
भुट्टो ज़रदारी ने कहा है कि मैं अपनी पार्टी के लोगों से इस विषय पर बात करूँगा।
देश में पश्तूनों की नाराजगी पहले से चल रही है। ऐसे में यदि सड़कों पर जनांदोलन
शुरू होगा, तो हालात बिगड़ेंगे। सन 2014 में इमरान खान की पार्टी ने नवाज शरीफ की
सरकार के खिलाफ इसी तरह का बड़ा आंदोलन आयोजित किया था।
तालिबान का इस्लामाबाद दौरा
पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों में पिछले एक साल में हुए
सुधार के पीछे एक बड़ी भूमिका अफगानिस्तान शांति-वार्ता की है। इस वार्ता के सभी
दौर पूरे हो चुके थे और कैम्प डेविड में तालिबान प्रतिनिधियों के साथ अंतिम बातचीत
होने वाली थी कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक ट्वीट से सारी आशाओं पर तुषारापात
हो गया। अब खबरें हैं कि दोनों पक्षों के बीच फिर से विचार-विमर्श शुरू हो गया है।
इसमें भी पाकिस्तान की भूमिका है। गुरुवार 3 अक्तूबर को तालिबान के 12 सदस्यों के
एक प्रतिनिधि मंडल ने इस्लामाबाद में इमरान खान से मुलाकात की।
तालिबान टीम का नेतृत्व उसके दूसरे नम्बर के नेता मुल्ला
अब्दुल ग़नी बरादर ने किया। इस बैठक में पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा भी
शामिल हुए थे। इससे एक दिन पहले तालिबान प्रतिनिधि विदेशमंत्री शाह महमूद क़ुरैशी
से भी मिले थे। उस बैठक में आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद ने भी
भाग लिया। विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर बताया कि तालिबान प्रतिनिधिमंडल ने
अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया समेत आपसी हित के मुद्दों पर चर्चा की। दूसरी ओर, अफ़ग़ानिस्तान के चीफ़ एक्जीक्यूटिव अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने
उम्मीद जताई है कि पाकिस्तान तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान के साथ शांति वार्ता के लिए
राज़ी कर लेगा। बुधवार को ही काबुल में पाकिस्तान के राजदूत ज़ाहिद नसरुल्ला ख़ान
के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि अगर पाकिस्तान तालिबान पर अपने प्रभाव का
इस्तेमाल करके उसे अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत के लिए राज़ी कर सकता है, तो इससे देश में शांति स्थापित करने के प्रयासों को बल
मिलेगा।
इस औपचारिक
मुलाकात से ज्यादा महत्वपूर्ण यह खबर है कि इस्लामाबाद में ही अमेरिका के विशेष दूत जलमय खलीलज़ाद से भी तालिबान प्रतिनिधियों की खुफिया मुलाकात हुई। इस
बात की पुष्टि न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी की है। खलीलज़ाद
मंगलवार को ही पाकिस्तान आ गए थे। हालांकि गतिरोध अभी जारी है, पर दोहा के बजाय
इस्लामाबाद में मुलाकात होने का मतलब है कि पाकिस्तान ने इस मामले में फिर से
सक्रिय भूमिका निभा रहा है। बातचीत का यह दौर जारी रहने की संभावना है। अनुमान है
कि इन पंक्तियों के प्रकाशन तक गतिरोध टूटने की खबरें आएं। इस बातचीत के फिर से
शुरू होने का श्रेय पाकिस्तान को ही मिलेगा। और यह बात भी समझ में आती है कि
डोनाल्ड ट्रंप बार-बार कश्मीर मामले में मध्यस्थता की बात क्यों कर रहे हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-10-2019) को "सूखे कलम-दवात" (चर्चा अंक- 3489) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'