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किसने सोख ली हमारी खेल प्रतिभा?
दो-दो एटम बमों से तबाह जापान ने विश्व युद्द के बाद बीस साल में जो चमत्कार किया उसे दिखाने के लिए उसने 1964 के तोक्यो ओलंपिक खेलों का इस्तेमाल किया। उस मौके का प्रतीक थी बुलेट ट्रेन जो ओलंपिक के मौके पर शुरू की गई थी। दूसरा विश्वयुद्ध न रोकता तो 1940 के ओलंपिक तोक्यो में होते। बहरहाल खेल और समाज का रिश्ता है। इस रिश्ते को जापान के बाद 1988 में दक्षिण कोरिया ने और 2008 में चीन ने शोकेस किया। ऐसी ही कोशिश 2010 के कॉमनवैल्थ गेम्स के मार्फत भारत ने की थी। सब कुछ ठीक रहता तो 2020 के ओलंपिक खेल भारत में कराने की पहल होती। पर अब ऐसा सम्भव नहीं है। 2016 के खेल ब्राज़ील में होंगे जिसे इस वक्त नई अर्थव्यवस्थाओं में भारत के साथ खड़ा किया जाता है। 2020 के खेल कहाँ होंगे इसका फैसला अगले साल सितम्बर में होगा। दावेदारों में इस्तांबूल और मैड्रिड के साथ तोक्यो भी है, भारत नहीं।
आयोजन आर्थिक प्रगति को शोकेस करता है, पर खेलों में भागीदारी सामाजिक दशा को बताती है। हम मानकर चल रहे हैं कि लंदन ओलंपिक भारत के लिए अब तक के सफलतम खेल होंगे। सफलता माने क्या? दो या तीन मेडल सफलता हैं? इतने भी मिलें तब। पिछले छब्बीस ओलंपिक खेलों में भारत ने कुल 22 मेडल जीते हैं। इनमें दो सिल्वर मेडल नॉर्मन प्रिचर्ड के भी हैं, जो उन्होंने सन 1900 के पेरिस खेलों में जीते थे। आमतौर पर हम मानते हैं कि भारत ने 1920 के एंटवर्प खेलों से ओलंपिक खेलों में हिस्सेदारी शुरू की। बहरहाल इसे ही मानें तो 21 खेलों में 20 मेडल हमने जीते हैं। औसतन .91 मेडल प्रति ओलंपिक। इन बीस में ग्यारह मेडल हॉकी के थे। छह ओलंपिक खेलों में हमने एक भी मेडल नहीं जीता। सन 2000 में करणम मल्लेश्वरी के जीते कांस्य के अलावा स्त्रियों के वर्ग में हमारे पास कहने को कुछ नहीं है। इस विफलता का रिश्ता क्या हमारी गरीबी से है? या समाज-व्यवस्था से? या इस इलाके की जलवायु से जो हमारी शारीरिक सीमाएं तय कर देती है? या हमारे जीन्स में कोई बात है?
एमआईटी-अर्थशास्त्रियों अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबी की विवेचना की है। उन्होंने जानने की कोशिश की है कि भारत के बल्कि दक्षिण एशिया के लोगों की काठी छोटी क्यों हैं? क्या यह दक्षिण एशिया की जेनेटिक विशेषता है? इंग्लैंड और अमेरिका में दक्षिण एशियाई प्रवासियों के बच्चे कॉकेशियन और ब्लैक बच्चों की तुलना में छोटे होते हैं। पश्चिमी देशों में दो पीढ़ियों के निवास के बाद और अन्य समुदायों के साथ वैवाहिक सम्पर्कों के बगैर भी दक्षिण एशियाई लोगों के नाती-पोते उसी कद के हो जाते हैं जैसे दूसरे समुदायों के बच्चे। यानी मामला जेनेटिक्स का नहीं कुपोषण का है। इस पैमाने पर भारत के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के आँकड़े भयावह हैं। पाँच साल से कम उम्र के तकरीबन आधे बच्चे विकास-रुद्ध (स्टंटेड) हैं। यानी वे आम बच्चों के मानक से कहीं नीचे हैं। इनमें से चौथाई सीवियरली स्टंटेड हैं। मतलब पौष्टिक आहार की बेहद कमी। इन बच्चों का वजन अपने कद की तुलना में काफी कम है। पाँच में एक बच्चा बर्बाद (वेस्टेड) है यानी सीवियर मैलन्यूट्रिशन के अंतरराष्ट्रीय मानकों से कहीं नीचे। ये तथ्य तब और भयावह होते हैं जब पता लगता है कि दुनिया के सबसे गरीब इलाके सब-सहारा अफ्रीका में यह स्टंटिंग और वेस्टिंग भारत के मुकाबले आधी है।
एक अरब से ज्यादा लोगों के देश भारत ने इक्कीस ओलंपिक खेलों में औसतन प्रति खेल 0.91 मेडल जीते हैं। ट्रिनिडाड और टुबैगो के 0.93 मेडल के ठीक नीचे। इन संख्याओं को और बेहतर ढंग से समझने के लिए देखें कि चीन ने आठ खेलों में 386 मेडल जीते हैं। प्रति खेल का उसका औसत 48.3 मेडल का है। भारत से बेहतर प्रदर्शन करने वाले 79 देश हैं। जबकि भारत की जनसंख्या इन 79 में से 73 देशों की कुल आबादी की दस गुना है। भारत गरीब देश है, पर उतना गरीब नहीं, जितना पहले था। और उतना गरीब नहीं जितने केमरून, इथोपिया, घाना, हेती, केन्या, मोज़ाम्बीक, नाइजीरिया और उगाण्डा हैं। इनमें से हरेक देश ने भारत के मुकाबले बेहतर ओखेल प्रदर्शन किया है। भारत से आकार में दशमांश तक का ऐसा कोई देश नहीं है, जिसने भारत से कम मेडल जीते हैं। सिर्फ दो देशों को छोड़कर। वे हैं पाकिस्तान और बांग्लादेश। बांग्लादेश दस करोड़ से ऊपर आबादी वाला अकेला ऐसा देश है, जिसने कोई ओलिम्पिक मेडल नहीं जीता। इसके बाद बचे मेडल विहीन बड़े देशों में सबसे बड़ा है नेपाल। इसकी तोहमत इलाके के पसंदीदा खेल क्रिकेट के माथे पर मढ़ी जा सकती है, पर दुनिया की चौथाई आबादी की सारी खेल प्रतिभा को सोखने वाले क्रिकेट में भी कोई बड़ा कमाल तो हमने किया नहीं है।
खेलों की खासियत है कि वे व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं। इसमें अनुशासन और नियमबद्धता भरते हैं। विवेकशील, रचनाशील और धैर्यवान बनाते हैं। वास्तव में इसमें मेरिट चलती है। इसीलिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाड़ी सफल होते हैं। भारत जैसे बहुरंगी देश को यह फैवीकॉल की तरह जोड़ता है। पर हम खेलों के समाजशास्त्र की तरफ नहीं उसके मनोरंजन और कारोबार की ओर ध्यान देते हैं। हमारे ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया के पिछड़ेपन के सामाजिक कारण ज़रूर कहीं हैं। इन सामाजिक रोगों का इलाज खेलों के पास है। हमारे आर्थिक और सामाजिक विकास में मिसमैच है। उसे खोजिए। 3 अगस्त 2012 के अमर उजाला में प्रकाशित
खेलों में भारतीय खिलाड़ियों की मानसिकता पर स्वर्गीय श्री प्रभाष जोशी ने एक बार लिखा था कि 'किलर्स इंस्टिंक्ट' की कमी का होना इसका बहुत बड़ा कारक है| कुपोषण, शारीरिक संरचना महत्त्व जरूर रखती हैं लेकिन सब कुछ तो नहीं हैं|
ReplyDeleteपूरे दक्षिण एशिया में यानी भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल वगैरह में ही इस किलर इंस्टिंक्ट का अभाव क्यों है?
ReplyDeleteखेल में राजनीति और राजनीति में खेल, अब तो यही हो रहा है..
ReplyDeleteपर यहाँ तो सारा काम भाई भतीजावाद ,पक्षपात पर टिका है,कहीं प्रशिक्षण के लिए बजेट नहीं हैं,तो कहीं उसका दुरूपयोग हो रहा है,सारी बात अव्यवस्था पर टिकी है,तो फिर पदक की उम्मीद करना फालतू है.आपकी चिंता स्वाभाविक है पर किसे जिम्मेदार ठहराए ऐसे खेल खिलाडी,पदाधिकारियों के लिए घुमने सैर सपाटे का माध्यम हैं.हरने के बाद कुछ दिन शोर होगा ,श्यापा होगा, फिर अगली बार खूब तैयारी की कसमें खाई जाएँगी,बयानबाजी होगी,तीन साल के लिए सो जायेंगे,चोथे साल फिर अधिकारी सबसे पहले अपने बोरिया बिस्तर बांध कर तैयार हो जायेंगे.
ReplyDeleteइस देश में यह चलने वाली कुछ सनातन क्रियाओं में से एक है.जय हो ,मेरा भारत महान