पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के करीब कामरा में वायुसेना के मिनहास बेस पर हमला काफी गम्भीर होती स्थितियों की ओर इशारा कर रहा है। पाकिस्तान का यह सबसे बड़ा एयरबेस होने के साथ-साथ यहाँ एटमी हथियार भी रखे गए हैं। जो शुरूआती जानकारी हासिल हुई है उसके अनुसार तकरीबन बारह हमलावर हवाई अड्डे में दाखिल हुए। इनमें से ज्यादातर ने आत्मघाती विस्फोट बेल्ट पहन रखे थे और एक ने खुद को उड़ा भी दिया था। सवाल केवल हवाई अड्डे की सुरक्षा का नहीं है, बल्कि ताकत का है जो इस तरह के हमलों की योजना बना रही है। अभी तक किसी ने इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ली है, पर इसके पीछे तहरीके तालिबान पाकिस्तान का हाथ लगता है। इस्लामी चरपंथियों ने इससे पहले भी पाकिस्तान के फौजी ठिकानों को निशाना बनाया है। इनमें सबसे बड़ा हमला मई 2011 में कराची के पास मेहरान हवाई ठिकाने पर हुआ था। उसमें दस फौजी मारे गए थे, पर सबसे बड़ा नुकसान पी-3 ओरियन विमान को हुआ था, जो अत्याधुनिक टोही विमान है, जिसे अमेरिका ने गिफ्ट में दिया था।
पिछले साल मेहरान और अब कामरा बेस पर हमलों के बाद यह बात भी समझ में आती है कि हमलावरों को न सिर्फ गहरा फौजी प्रशिक्षण दिया गया है बल्कि फौज के भीतर भी हमलावरों की कहीं पहुँच है। मेहरान में आतंकवादियों पर काबू पाने में स्पेशल सर्विसेज़ ग्रुप-नेवी को 17 घंटे लगे थे और कामरा में भी तकरीबन इतना ही वक्त लगा था। मुम्बई में हुए हमले पर काबू पाने में ज्यादा वक्त लगा था क्योंकि तमाम नागरिक उसमें फँसे थे। सवाल यह है कि क्या मुम्बई, मेहरान और कामरा के हमलावर एक-दूसरे से जुड़े हैं? क्या पाकिस्तान सरकार और सेना उन्हें पहचानती है? क्या पाकिस्तानी व्यवस्था का कोई धड़ा इन बातों को संचालित कर रहा है? क्या वह धड़ा नागरिक सरकार से नाराज़ है? उसकी रणनीति क्या है, और लक्ष्य क्या है?
मेहरान हमले के बाद एक पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारी ने अपना नाम नहीं देने की शर्त पर बीबीसी से कहा था, “वे साधारण चरमपंथी नहीं थे। तालिबान तो बिल्कुल ही नहीं। तालिबान के हमलावर अधिकतम लोगों को मारने और ज़्यादा से ज़्यादा विनाश करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मेहरान सैनिक ठिकाने पर हमला करने वालों का लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट था। हमले की शुरुआत से ही साफ़ हो गया था कि हमलावरों को भीतर की विस्तृत जानकारी है। एक सवाल यह भी पैदा होता है कि इनका लक्ष्य क्या है। पिछले साल के हमले के कुछ दिन पहले ओसामा बिन लादेन की मौत हुई थी। इस बार नेटो की सेना के लिए अफगानिस्तान तक रसद पहुँचाने का रास्ता खोलने का फैसला सरकार ने किया है, जिसके खिलाफ दिफा-ए-पाकिस्तान कौंसिल का देशव्यापी लांग मार्च इन दिनों चल रहा है। इस मार्च को फौज के एक धड़े का समर्थन भी प्राप्त है। तब क्या पाकिस्तानी सेना के भीतर भी कोई बगावती तत्व मौज़ूद है?
पाकिस्तान में सेना के भीतर के भीतर कई प्रकार की धड़ेबंदी है। सबसे पहले तो नेवी और एयरफोर्स के अधिकारियों के मन में हमेशा असंतोष रहता है, क्योंकि सत्ता पर काबिज़ सेना का मतलब थल सेना है। पाकिस्तान की आर्मी दूसरी सेनाओं से ऊपर है। थल सेना में भी पंजाबी अफसर सबसे ऊपर हैं। पाकिस्तानी आतंक का गढ़ लश्करे तैयबा का मुख्यालय है जो लाहौर के पास मुरीद्के में है। जब तक न्यूयॉर्क में 9/11 का हादसा नहीं हुआ था, सेना और आतंकियों के बीच टकराव नहीं था। जनरल परवेज़ मुशर्ऱफ को जब यह बात समझ में आ गई कि अब अमेरिका से दुश्मनी मोल लेना सम्भव नहीं है उन्होंने कट्टरपंथियों की ओर से मुँह फेर लिया। लाल मस्जिद प्रकरण के बाद पाकिस्तान के कट्टरपंथियों ने मुशर्रफ से नाता तोड़ लिया। परवेज़ मुशर्रफ तुर्की के अतातुर्क कमाल पाशा के रास्ते पर आधुनिक पाकिस्तान बनाना चाहते थे। पर पाकिस्तान की बुनियाद पर पिछले तीस साल से ज्यादा समय से कट्टरपंथी विचार हावी है। पर अब धीरे-धीरे यह धारणा भी जन्म ले रही है कि बहुत हो गया। इस खूंरेज़ी से मिलने वाला कुछ नहीं है। इन दिनों पाकिस्तान अपने अंतर्विरोधों से जूझ रहा है। नागरिक सरकार पर भले ही भ्रष्टाचार के आरोप हों, वह कट्टरपंथियों से पिंड झुड़ाना चाहती है। अगले साल मार्च में होने वाले चुनाव में तय होगा कि क्या वहाँ की जनता भी यही चाहती है।
पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान और अमेरिकी प्रशासन के बीच लगातार बातचीत हो रही है। अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पैनेटा और विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने सेना को लगभग आखिरी चेतावनी दे दी थी कि उत्तरी वज़ीरिस्तान में कार्रवाई होनी चाहिए। हाल में आईएसआई के प्रमुख ज़हीरुल इस्लाम हाल में अमेरिका यात्रा पर होकर आए हैं। पिछले सोमवार को अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पैनेटा ने इस बात का संकेत दिया था कि जनरल कयानी के रुख में बदलाव आया है। इसका संकेत सेनाध्यक्ष परवेज़ कयानी की 14 अगस्त की आज़ादी परेड की स्पीच से लगता है। जनरल कयानी ने पहली बार खुलकर कहा है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई हमारी अपनी लड़ाई है। हम किसी दूसरे के लिए नहीं लड़ रहे हैं। यदि हम इस लड़ाई को नहीं लड़ेंगे तो देश में सिविल वॉर हो जाएगी। उन्होंने कहा, हालांकि अपनों के खिलाफ लड़ना बेहद मुश्किल काम है, पर ज़रूरत होने पर इस काम को भी करना पड़ता है।
कामरा हवाई अड्डे पर हमले की जिम्मेदारी तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने ली है। उसके प्रवक्ता इहसानुल्ला खां ने कहा है कि बैतुल्ला मेहसूद और ओसामा बिन लादेन की हत्या का बदला लेने के लिए लिए यह हमला किया गया है। पर क्या पाकिस्तान की जनता इस कार्रवाई को पसंद करेगी? दिफा-ए-पाकिस्तान का लांग मार्च टाँय-टाँय फिस्स हो गया है। वहाँ की सिविल सोसायटी का क्रमिक विकास भी हो रहा है। पाकिस्तान की तमाम दिक्कतें जम्हूरियत से जुड़े उसके खराब अनुभवों के कारण है। पिछले डेढ़ साल से खासकर ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से सेना और नागरिक सरकार के बीच रिश्ते खराब नज़र आने लगे हैं। टकराव का इमकान तभी हो गया था जब प्रधानमंत्री गिलानी ने एक चीनी अखबार से कहा कि कहा कि सेनाध्यक्ष ने अदालत में खड़े होने के लिए हमसे अनुमति नहीं ली। इस साल के शुरू में जब रक्षा सचिव नईम खालिद लोधी ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर कहा कि सेनाध्यक्ष हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आते तो प्रधानमंत्री ने इस काम को न सिर्फ ‘ग्रॉस मिसकंडक्ट’ कहा बल्कि उन्हें पद से हटा दिया। इसके बाद आईएसआई चीफ शुजा पाशा भी हटाए गए। यानी नागरिक सरकार अपने अधिकार क्षेत्र को लेकर दृढ़ता पूर्वक खड़ी होने लगी है। और यह बात फौजी जनरलों के गले नहीं उतरी। इसीलिए इन दिनों पाकिस्तान में यह चर्चा है कि तख्ता पलट हो सकता है। न्यायपालिका के साथ नागरिक टकराव के पीछे भी फौज का हाथ नज़र आता है।
यूसुफ रज़ा गिलानी के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद परवेज़ अशरफ के पहले पीपीपी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मख्दूम शहाबुद्दीन थे। जिस दिन उनके नाम की घोषणा हुई उसी दिन उनके खिलाफ एक अदालत से वॉरंट ज़ारी हो गया। यह मुकदमा एंटी नारकोटिक्स फोर्स की ओर से दायर किया गया था जिसका प्रमुख सक्रिय फौजी अधिकारी होता है। इसलिए अंदेशा पैदा हुआ कि इसमें फौज का हाथ है। लगता है कि अमेरिका के हस्तक्षेप से नागरिक सरकार और फौज के बीच समझदारी फिर से कायम हुई है। और इसी बात की प्रतिक्रिया में कामरा पर हमला हुआ है। पाकिस्तान के पास मौज़ूद एटमी हथियारों की सुरक्षा को लेकर अमेरिका और भारत दोनों चिंतित हैं। पाकिस्तान की नागरिक सरकार के साथ हमारा सम्पर्क लगातार बना रहना चाहिए। उम्मीद है वहाँ का माहौल सुधरेगा। यह सिर्फ संयोग नहीं कि स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण में एक बार भी पाकिस्तान का नाम नहीं था। जनवाणी
मेहरान हमले के बाद एक पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारी ने अपना नाम नहीं देने की शर्त पर बीबीसी से कहा था, “वे साधारण चरमपंथी नहीं थे। तालिबान तो बिल्कुल ही नहीं। तालिबान के हमलावर अधिकतम लोगों को मारने और ज़्यादा से ज़्यादा विनाश करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मेहरान सैनिक ठिकाने पर हमला करने वालों का लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट था। हमले की शुरुआत से ही साफ़ हो गया था कि हमलावरों को भीतर की विस्तृत जानकारी है। एक सवाल यह भी पैदा होता है कि इनका लक्ष्य क्या है। पिछले साल के हमले के कुछ दिन पहले ओसामा बिन लादेन की मौत हुई थी। इस बार नेटो की सेना के लिए अफगानिस्तान तक रसद पहुँचाने का रास्ता खोलने का फैसला सरकार ने किया है, जिसके खिलाफ दिफा-ए-पाकिस्तान कौंसिल का देशव्यापी लांग मार्च इन दिनों चल रहा है। इस मार्च को फौज के एक धड़े का समर्थन भी प्राप्त है। तब क्या पाकिस्तानी सेना के भीतर भी कोई बगावती तत्व मौज़ूद है?
पाकिस्तान में सेना के भीतर के भीतर कई प्रकार की धड़ेबंदी है। सबसे पहले तो नेवी और एयरफोर्स के अधिकारियों के मन में हमेशा असंतोष रहता है, क्योंकि सत्ता पर काबिज़ सेना का मतलब थल सेना है। पाकिस्तान की आर्मी दूसरी सेनाओं से ऊपर है। थल सेना में भी पंजाबी अफसर सबसे ऊपर हैं। पाकिस्तानी आतंक का गढ़ लश्करे तैयबा का मुख्यालय है जो लाहौर के पास मुरीद्के में है। जब तक न्यूयॉर्क में 9/11 का हादसा नहीं हुआ था, सेना और आतंकियों के बीच टकराव नहीं था। जनरल परवेज़ मुशर्ऱफ को जब यह बात समझ में आ गई कि अब अमेरिका से दुश्मनी मोल लेना सम्भव नहीं है उन्होंने कट्टरपंथियों की ओर से मुँह फेर लिया। लाल मस्जिद प्रकरण के बाद पाकिस्तान के कट्टरपंथियों ने मुशर्रफ से नाता तोड़ लिया। परवेज़ मुशर्रफ तुर्की के अतातुर्क कमाल पाशा के रास्ते पर आधुनिक पाकिस्तान बनाना चाहते थे। पर पाकिस्तान की बुनियाद पर पिछले तीस साल से ज्यादा समय से कट्टरपंथी विचार हावी है। पर अब धीरे-धीरे यह धारणा भी जन्म ले रही है कि बहुत हो गया। इस खूंरेज़ी से मिलने वाला कुछ नहीं है। इन दिनों पाकिस्तान अपने अंतर्विरोधों से जूझ रहा है। नागरिक सरकार पर भले ही भ्रष्टाचार के आरोप हों, वह कट्टरपंथियों से पिंड झुड़ाना चाहती है। अगले साल मार्च में होने वाले चुनाव में तय होगा कि क्या वहाँ की जनता भी यही चाहती है।
पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान और अमेरिकी प्रशासन के बीच लगातार बातचीत हो रही है। अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पैनेटा और विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने सेना को लगभग आखिरी चेतावनी दे दी थी कि उत्तरी वज़ीरिस्तान में कार्रवाई होनी चाहिए। हाल में आईएसआई के प्रमुख ज़हीरुल इस्लाम हाल में अमेरिका यात्रा पर होकर आए हैं। पिछले सोमवार को अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पैनेटा ने इस बात का संकेत दिया था कि जनरल कयानी के रुख में बदलाव आया है। इसका संकेत सेनाध्यक्ष परवेज़ कयानी की 14 अगस्त की आज़ादी परेड की स्पीच से लगता है। जनरल कयानी ने पहली बार खुलकर कहा है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई हमारी अपनी लड़ाई है। हम किसी दूसरे के लिए नहीं लड़ रहे हैं। यदि हम इस लड़ाई को नहीं लड़ेंगे तो देश में सिविल वॉर हो जाएगी। उन्होंने कहा, हालांकि अपनों के खिलाफ लड़ना बेहद मुश्किल काम है, पर ज़रूरत होने पर इस काम को भी करना पड़ता है।
कामरा हवाई अड्डे पर हमले की जिम्मेदारी तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने ली है। उसके प्रवक्ता इहसानुल्ला खां ने कहा है कि बैतुल्ला मेहसूद और ओसामा बिन लादेन की हत्या का बदला लेने के लिए लिए यह हमला किया गया है। पर क्या पाकिस्तान की जनता इस कार्रवाई को पसंद करेगी? दिफा-ए-पाकिस्तान का लांग मार्च टाँय-टाँय फिस्स हो गया है। वहाँ की सिविल सोसायटी का क्रमिक विकास भी हो रहा है। पाकिस्तान की तमाम दिक्कतें जम्हूरियत से जुड़े उसके खराब अनुभवों के कारण है। पिछले डेढ़ साल से खासकर ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से सेना और नागरिक सरकार के बीच रिश्ते खराब नज़र आने लगे हैं। टकराव का इमकान तभी हो गया था जब प्रधानमंत्री गिलानी ने एक चीनी अखबार से कहा कि कहा कि सेनाध्यक्ष ने अदालत में खड़े होने के लिए हमसे अनुमति नहीं ली। इस साल के शुरू में जब रक्षा सचिव नईम खालिद लोधी ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर कहा कि सेनाध्यक्ष हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आते तो प्रधानमंत्री ने इस काम को न सिर्फ ‘ग्रॉस मिसकंडक्ट’ कहा बल्कि उन्हें पद से हटा दिया। इसके बाद आईएसआई चीफ शुजा पाशा भी हटाए गए। यानी नागरिक सरकार अपने अधिकार क्षेत्र को लेकर दृढ़ता पूर्वक खड़ी होने लगी है। और यह बात फौजी जनरलों के गले नहीं उतरी। इसीलिए इन दिनों पाकिस्तान में यह चर्चा है कि तख्ता पलट हो सकता है। न्यायपालिका के साथ नागरिक टकराव के पीछे भी फौज का हाथ नज़र आता है।
यूसुफ रज़ा गिलानी के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद परवेज़ अशरफ के पहले पीपीपी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मख्दूम शहाबुद्दीन थे। जिस दिन उनके नाम की घोषणा हुई उसी दिन उनके खिलाफ एक अदालत से वॉरंट ज़ारी हो गया। यह मुकदमा एंटी नारकोटिक्स फोर्स की ओर से दायर किया गया था जिसका प्रमुख सक्रिय फौजी अधिकारी होता है। इसलिए अंदेशा पैदा हुआ कि इसमें फौज का हाथ है। लगता है कि अमेरिका के हस्तक्षेप से नागरिक सरकार और फौज के बीच समझदारी फिर से कायम हुई है। और इसी बात की प्रतिक्रिया में कामरा पर हमला हुआ है। पाकिस्तान के पास मौज़ूद एटमी हथियारों की सुरक्षा को लेकर अमेरिका और भारत दोनों चिंतित हैं। पाकिस्तान की नागरिक सरकार के साथ हमारा सम्पर्क लगातार बना रहना चाहिए। उम्मीद है वहाँ का माहौल सुधरेगा। यह सिर्फ संयोग नहीं कि स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण में एक बार भी पाकिस्तान का नाम नहीं था। जनवाणी
जैसा बोयेगा, वैसा काटेगा।
ReplyDelete