पिछले बुधवार को भारत सरकार ने पाकिस्तान के निवेशकों पर भारत में लगी रोक हटा ली। अब पाकिस्तानी निवेशक रक्षा, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष कार्यक्रमों के अलावा अन्य कारोबारों में निवेश कर सकेंगे। हालांकि यह घोषणा अचानक हुई लगती है पर ऐसा नहीं है। पाकिस्तानी निवेश को स्वीकार करने का फैसला दोनों देशों के वाणिज्य मंत्रियों की अप्रेल में दिल्ली में हुई बैठक में कर लिया गया था। परोक्ष रूप में यह आर्थिक निर्णय लगता है और इसके तमाम महत्वपूर्ण आर्थिक पहलू हैं भी। फिर भी यह फैसला राजनीतिक है। उसी तरह जैसे पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को भारत बुलाने का फैसला। दोनों देशों के रिश्ते बहुत मीठे न भी नज़र आते हों, पर ऐसा लगता है कि दोनों नागरिक सरकारों के बीच संवाद काफी अच्छे स्तर पर है। पाकिस्तान में एक बड़ा तबका भारत से रिश्ते बनाने के काम में लगातार अड़ंगे लगाता है। पर लगता है कि खेल, संगीत और कारोबारी रिश्ते दोनों देशों के बीच भरोसा कायम करने में मददगार होंगे। भारत में पूँजी निवेश को लेकर पाकिस्तान में ज्यादा हलचल है। कुछ लोग मानते हैं कि इससे पाकिस्तान के उद्यमियों को अपना कारोबार भारत में रिलोकेट करने में आसानी होगी। पाकिस्तान में अराजक स्थितियों के कारण पूँजी का पलायन हो रहा है। अमेरिका, यूरोप और दुबई जाने के अलावा भारत आना बेहतर होगा। अनेक पाकिस्तानी उद्यमी परिवारों की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता से पहले की है। जब तक हमारे आर्थिक हित नहीं मिलेंगे हम एक-दूसरे की स्थिरता के प्रति ज़िम्मेदार नहीं बनेंगे। पाकिस्तान में कश्मीर को लेकर इस कदर भावनाएं भड़की हुई हैं कि रिश्तों को सामान्य बनाना मुश्किल हो जाता है। धीरे-धीरे यह बात समझ में आ रही है कि जिस तरह भारत और चीन ने तमाम सीमा विवादों के बावजूद कारोबारी रिश्ते बनाएं हैं वैसा भारत-पाकिस्तान भी कर सकते हैं।
पिछले चार दशक में पाकिस्तान में आर्थिक प्रगति के बजाय भावनाओं की खेती होती रही। इसे पाकिस्तान का नया मध्य वर्ग भी समझता है, पर अभी वह दबाव में है। सामान्य लोगों की भावनाओं को जेहादी ताकतें भड़का कर रखती हैं। पर आर्थिक स्थितियों का लोगों के जीवन और रोज़गार पर असर होता है। शायद कारोबारी रिश्ते ट्रम्प कार्ड साबित हों। वीज़ा-व्यवस्था में भी सुधार की ज़रूरत होगी। इस दिशा में दोनों देश कुछ कदम उठाने वाले हैं। मुम्बई और हैदराबाद में पाकिस्तानी वाणिज्य दूत और कराची-लाहौर में भारतीय वाणिज्य कार्यालयों की ज़रूरत होगी। दोनों देशों के बीच अभी बैंकिंग सम्पर्क नहीं है। सम्भावना है कि दो भारतीय और दो पाकिस्तानी बैंकों की शाखाएं एक-दूसरे के देश में खुलेंगी। इनके बगैर कारोबार सम्भव नहीं है। दोनों देशों के बीच ज़मीनी रास्ते से वाघा के रास्ते कारोबार होता है। सन 2006 के कम्पोज़िट डायलॉग के बाद राजस्थान में भारत के मुनाबाओ और पाकिस्तान के सिंध के स्टेशन खोकरापार की रेलवे लाइन ठीक की गई और थार एक्सप्रेस के नाम से ट्रेन शुरू की गई। पार्टीशन से पहले इस लाइन पर कराची से अहमदाबाद के बीच सिंध मेल चलती थी। जिस तरह पंजाब में कारोबारी व्यवस्थाएं बनी हैं उसी तरह की व्यवस्थाएं राजस्थान और गुजरात में भी बन सकती हैं। दूसरा कारोबारी गेट खोलने पर भी दोनों देशों के बीच अप्रेल में सहमति हुई थी। इस वक्त दोनों देशों के बीच 150 ट्रकों का आवागमन होता है। उनकी संख्या बढ़ाकर 600 करने पर भी सहमति है।
दोनों के एक जैसे उपभोक्ता हैं और एक जैसे व्यापारी। दोनों को सस्ते में माल मिलेगा, परिवहन आसान होगा और गतिविधियाँ बढ़ेंगी तो दोनों ओर रोज़गार बढ़ेगा। पर सब कुछ संशय के घेरों में है। संशय किस हद तक हैं इसका पता पिछले साल नवम्बर में भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने की घोषणा के बाद लगा। पाकिस्तान की सूचना प्रसारण मंत्री ने बाकायदा इसकी घोषणा की, पर बाद में पता लगा कि फैसला हो ज़रूर गया है पर घोषणा में पेच था। पसंदीदा मुल्क या एमएफएन शब्द भ्रामक है। पर पाकिस्तान के उर्दू मीडिया ने और राजनीति ने सिर्फ पसंदीदा शब्द के कारण हाथ खींच लिया। भारत और पाकिस्तान के वाणिज्य सचिवों की बैठक में पेचीदगियों पर होने के बाद पाकिस्तान की ओर से घोषणा हुई कि 2012 के अंत तक इसे पूरी तरह लागू किया जाएगा।
हमने अभी व्यावहारिक आर्थिक सहयोग की कल्पना नहीं की है। भारत के विदेश-व्यापार का तकरीबन सौवां हिस्सा पाकिस्तान से जुड़ा है। अनौपचारिक व्यापार के औपचारिक व्यापार में तब्दील होने से हमें नहीं पाकिस्तान के व्यापारियों और उपभोक्ताओं को फायदा होगा। उन्हें तकरीबन तीस करोड़ लोगों के मध्यवर्ग का बाज़ार मिलेगा। भारत से तकरीबन चार अरब डॉलर का माल तस्करों के मार्फत पाकिस्तान जाता है। नुकसान तस्करों को होगा। हमारे माल को चीन तथा दूसरे देशों के माल के साथ प्रतियोगिता करनी होगी। चूंकि भारत धीरे-धीरे वैश्विक अर्थव्यवस्था की शक्ल ले रहा है इसलिए हमारे उद्योग-व्यापार को प्रतियोगी बनने का मौका मिलेगा। पाकिस्तान के उद्योग-व्यापार के साथ मिलकर हम वैश्विक बाजार में जाने का रास्ता खोज सकते हैं। हम परम्परा से एक अर्थ-व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं। तमाम आर्थिक क्रिया-कलाप मिलकर करने के आदी रहे हैं, इसलिए सहज भाव से यह काम कर सकते हैं। सब ठीक रहा तो आने वाले वर्षों में भारत और पाकिस्तान की संयुक्त कम्पनियाँ बनेंगी।
दोनों देशों के बीच तना-तनी और युद्ध की आशंकाओं को दूर करने के लिए आर्थिक पराश्रयता विकसित करना लाभकारी होगा। दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत होनी चाहिए। यह सहज-मैत्री चीन और पाकिस्तान की नहीं हो सकती। पाकिस्तान और चीन के बीच इस वक्त सात अरब डॉलर का कारोबार होता है। भारत-पाकिस्तान का औपचारिक कारोबार 2010 में 1.7 अरब डॉलर का था। अगर अनौपचारिक कारोबार चार अरब डॉलर का भी मान लें तो हम पाकिस्तान के ऑल वैदर फ्रेंड से ज्यादा पीछे नहीं हैं। दोनों देशों का सहयोग हो तो इसमें काफी तेजी आ सकती है।
पाकिस्तान-भारत के संदर्भ में ही क्यों, दक्षिण एशिया के संदर्भ में क्यों न सोचें। पिछले दिनों श्रीलंका में हुए सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं। अनुमान है कि इस इलाके के देशों के बीच 65 अरब डॉलर का व्यापार हो सकता है। ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। भारत, पाकिस्तान, भूटान, मालदीव, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका ने दिसम्बर 1985 में सार्क बनाया। उन दिनों भारत और पाकिस्तान के रिश्ते फिर से पटरी पर लाने की शुरुआत हुई थी। म्यामार यानी बर्मा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आसियान में चला गया है। अन्यथा यह पूरा क्षेत्र एक आर्थिक ज़ोन के रूप में बड़ी आसानी से काम कर सकता है। और इसकी सकल अर्थ-व्यवस्था को जोड़ा जाय तो यह दुनिया की तीसरे-चौथे नम्बर की अर्थ-व्यवस्था साबित होगी। अफसोस यह कि इसकी परम्परागत कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई है। पाकिस्तान के बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका से जोड़ने में भारत की भूमिका हो सकती है। और भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने में पाकिस्तान की।
इस इलाके में फ्रिफरेंशियल ट्रेड का समझौता हुआ है, फ्री ट्रेड का भी। सभी देश सन 2016 तक कस्टम ड्यूटी को शून्य के स्तर पर लाने को सहमत हो गए हैं। पर व्यावहारिक बात यह है कि जब तक भारत-पाकिस्तान सहयोग नहीं होगा तब तक दूसरे सहयोग समझौते प्रभावशाली नहीं होंगे। भारत और पाकिस्तान की जनता को यह बात धीरे-धीरे समझ में आ रही है। इस भागीदारी में ही उसकी समझदारी है। भारत ने आसियान के साथ रिश्ते जोड़े हैं और अब वह पूरी तरह डायलॉग पार्टनर है। हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड समझौते की प्रक्रिया में हैं। थाईलैंड के साथ हमारा फ्री ट्रेड समझौता है। सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया और वियतनाम तक के साथ हमारे व्यापार समझौते हैं। दक्षिण एशिया में श्रीलंका के साथ हमारा फ्री ट्रेड एग्रीमेंट है। दक्षिण एशिया के सभी देश आपसी सहयोग करें तो चीन से भी बड़ी अर्थव्यवस्था तैयार हो जाएगी। ज़रूरत इस बात की है कि हम जल्द से जल्द निगेटिव लिस्टों को कम करें और कारोबारी कदम बढ़ाएं। विकास की अपार सम्भावनाएं मौज़ूद हैं जो इस इलाके की दरिद्रता को दूर करने के लिए ज़रूरी है।
पिछले चार दशक में पाकिस्तान में आर्थिक प्रगति के बजाय भावनाओं की खेती होती रही। इसे पाकिस्तान का नया मध्य वर्ग भी समझता है, पर अभी वह दबाव में है। सामान्य लोगों की भावनाओं को जेहादी ताकतें भड़का कर रखती हैं। पर आर्थिक स्थितियों का लोगों के जीवन और रोज़गार पर असर होता है। शायद कारोबारी रिश्ते ट्रम्प कार्ड साबित हों। वीज़ा-व्यवस्था में भी सुधार की ज़रूरत होगी। इस दिशा में दोनों देश कुछ कदम उठाने वाले हैं। मुम्बई और हैदराबाद में पाकिस्तानी वाणिज्य दूत और कराची-लाहौर में भारतीय वाणिज्य कार्यालयों की ज़रूरत होगी। दोनों देशों के बीच अभी बैंकिंग सम्पर्क नहीं है। सम्भावना है कि दो भारतीय और दो पाकिस्तानी बैंकों की शाखाएं एक-दूसरे के देश में खुलेंगी। इनके बगैर कारोबार सम्भव नहीं है। दोनों देशों के बीच ज़मीनी रास्ते से वाघा के रास्ते कारोबार होता है। सन 2006 के कम्पोज़िट डायलॉग के बाद राजस्थान में भारत के मुनाबाओ और पाकिस्तान के सिंध के स्टेशन खोकरापार की रेलवे लाइन ठीक की गई और थार एक्सप्रेस के नाम से ट्रेन शुरू की गई। पार्टीशन से पहले इस लाइन पर कराची से अहमदाबाद के बीच सिंध मेल चलती थी। जिस तरह पंजाब में कारोबारी व्यवस्थाएं बनी हैं उसी तरह की व्यवस्थाएं राजस्थान और गुजरात में भी बन सकती हैं। दूसरा कारोबारी गेट खोलने पर भी दोनों देशों के बीच अप्रेल में सहमति हुई थी। इस वक्त दोनों देशों के बीच 150 ट्रकों का आवागमन होता है। उनकी संख्या बढ़ाकर 600 करने पर भी सहमति है।
दोनों के एक जैसे उपभोक्ता हैं और एक जैसे व्यापारी। दोनों को सस्ते में माल मिलेगा, परिवहन आसान होगा और गतिविधियाँ बढ़ेंगी तो दोनों ओर रोज़गार बढ़ेगा। पर सब कुछ संशय के घेरों में है। संशय किस हद तक हैं इसका पता पिछले साल नवम्बर में भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने की घोषणा के बाद लगा। पाकिस्तान की सूचना प्रसारण मंत्री ने बाकायदा इसकी घोषणा की, पर बाद में पता लगा कि फैसला हो ज़रूर गया है पर घोषणा में पेच था। पसंदीदा मुल्क या एमएफएन शब्द भ्रामक है। पर पाकिस्तान के उर्दू मीडिया ने और राजनीति ने सिर्फ पसंदीदा शब्द के कारण हाथ खींच लिया। भारत और पाकिस्तान के वाणिज्य सचिवों की बैठक में पेचीदगियों पर होने के बाद पाकिस्तान की ओर से घोषणा हुई कि 2012 के अंत तक इसे पूरी तरह लागू किया जाएगा।
हमने अभी व्यावहारिक आर्थिक सहयोग की कल्पना नहीं की है। भारत के विदेश-व्यापार का तकरीबन सौवां हिस्सा पाकिस्तान से जुड़ा है। अनौपचारिक व्यापार के औपचारिक व्यापार में तब्दील होने से हमें नहीं पाकिस्तान के व्यापारियों और उपभोक्ताओं को फायदा होगा। उन्हें तकरीबन तीस करोड़ लोगों के मध्यवर्ग का बाज़ार मिलेगा। भारत से तकरीबन चार अरब डॉलर का माल तस्करों के मार्फत पाकिस्तान जाता है। नुकसान तस्करों को होगा। हमारे माल को चीन तथा दूसरे देशों के माल के साथ प्रतियोगिता करनी होगी। चूंकि भारत धीरे-धीरे वैश्विक अर्थव्यवस्था की शक्ल ले रहा है इसलिए हमारे उद्योग-व्यापार को प्रतियोगी बनने का मौका मिलेगा। पाकिस्तान के उद्योग-व्यापार के साथ मिलकर हम वैश्विक बाजार में जाने का रास्ता खोज सकते हैं। हम परम्परा से एक अर्थ-व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं। तमाम आर्थिक क्रिया-कलाप मिलकर करने के आदी रहे हैं, इसलिए सहज भाव से यह काम कर सकते हैं। सब ठीक रहा तो आने वाले वर्षों में भारत और पाकिस्तान की संयुक्त कम्पनियाँ बनेंगी।
दोनों देशों के बीच तना-तनी और युद्ध की आशंकाओं को दूर करने के लिए आर्थिक पराश्रयता विकसित करना लाभकारी होगा। दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत होनी चाहिए। यह सहज-मैत्री चीन और पाकिस्तान की नहीं हो सकती। पाकिस्तान और चीन के बीच इस वक्त सात अरब डॉलर का कारोबार होता है। भारत-पाकिस्तान का औपचारिक कारोबार 2010 में 1.7 अरब डॉलर का था। अगर अनौपचारिक कारोबार चार अरब डॉलर का भी मान लें तो हम पाकिस्तान के ऑल वैदर फ्रेंड से ज्यादा पीछे नहीं हैं। दोनों देशों का सहयोग हो तो इसमें काफी तेजी आ सकती है।
पाकिस्तान-भारत के संदर्भ में ही क्यों, दक्षिण एशिया के संदर्भ में क्यों न सोचें। पिछले दिनों श्रीलंका में हुए सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं। अनुमान है कि इस इलाके के देशों के बीच 65 अरब डॉलर का व्यापार हो सकता है। ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। भारत, पाकिस्तान, भूटान, मालदीव, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका ने दिसम्बर 1985 में सार्क बनाया। उन दिनों भारत और पाकिस्तान के रिश्ते फिर से पटरी पर लाने की शुरुआत हुई थी। म्यामार यानी बर्मा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आसियान में चला गया है। अन्यथा यह पूरा क्षेत्र एक आर्थिक ज़ोन के रूप में बड़ी आसानी से काम कर सकता है। और इसकी सकल अर्थ-व्यवस्था को जोड़ा जाय तो यह दुनिया की तीसरे-चौथे नम्बर की अर्थ-व्यवस्था साबित होगी। अफसोस यह कि इसकी परम्परागत कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई है। पाकिस्तान के बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका से जोड़ने में भारत की भूमिका हो सकती है। और भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने में पाकिस्तान की।
इस इलाके में फ्रिफरेंशियल ट्रेड का समझौता हुआ है, फ्री ट्रेड का भी। सभी देश सन 2016 तक कस्टम ड्यूटी को शून्य के स्तर पर लाने को सहमत हो गए हैं। पर व्यावहारिक बात यह है कि जब तक भारत-पाकिस्तान सहयोग नहीं होगा तब तक दूसरे सहयोग समझौते प्रभावशाली नहीं होंगे। भारत और पाकिस्तान की जनता को यह बात धीरे-धीरे समझ में आ रही है। इस भागीदारी में ही उसकी समझदारी है। भारत ने आसियान के साथ रिश्ते जोड़े हैं और अब वह पूरी तरह डायलॉग पार्टनर है। हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड समझौते की प्रक्रिया में हैं। थाईलैंड के साथ हमारा फ्री ट्रेड समझौता है। सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया और वियतनाम तक के साथ हमारे व्यापार समझौते हैं। दक्षिण एशिया में श्रीलंका के साथ हमारा फ्री ट्रेड एग्रीमेंट है। दक्षिण एशिया के सभी देश आपसी सहयोग करें तो चीन से भी बड़ी अर्थव्यवस्था तैयार हो जाएगी। ज़रूरत इस बात की है कि हम जल्द से जल्द निगेटिव लिस्टों को कम करें और कारोबारी कदम बढ़ाएं। विकास की अपार सम्भावनाएं मौज़ूद हैं जो इस इलाके की दरिद्रता को दूर करने के लिए ज़रूरी है।
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