Tuesday, August 28, 2012

देश चाहता है हर कालिख पर खुली बहस हो


लोकतंत्र के माने अराजकता, असमंजस, अनिश्चय और अस्थिरता है तो वह हमारे यहाँ सफल है। संसद के मौजूदा सत्र में प्रस्तावित 20 बैठकों में से आधी के आसपास गुज़र चुकीं हैं और काम-काज के नाम अ आ इ ई भी नहीं है। पहले असम और म्यामार से जुड़ी अफवाहों का बाज़ार गर्म था, फिर दक्षिण भारत के शहरों से भगदड़ की खबरें आईं। अब कोयले के काले धंधे की वजह से संसद ठप है। पिछले दो साल में तीसरी या चौथी बार संसद इस तरीके से ठप हुई है। सम्भव है आज की सर्वदलीय बैठक में कोई रास्ता निकल आए, पर हालात अच्छे नहीं हैं। देश पर सूखे की मार है। विकास-दर लगातार नीचे जा रही है। ऐसा चलता रहा तो रोजगार की स्थितियाँ बिगड़ जाएंगी। मुफलिसो-मज़लूम के सामने खड़ी मुश्किलों के पहाड़ बढ़ते ही जाएंगे।

कांग्रेस के सामने इस वक्त तीन चुनौतियाँ हैं। इस साल बारिश ने धोखा दे दिया है, जिसका असर खेती और महंगाई पर पड़ेगा। सूखे की शक्ल में राजनीतिक बाढ़ आने वाली है। लोकपाल, भोजन का अधिकार, भूमि अधिग्रहण और इंश्योरेंस सहित तमाम तरह के विदेशी निवेश से जुड़े मसले सामने हैं। माना जा रहा है कि कांग्रेस इस सत्र को सफलता के साथ पार कर ले गई तो वैतरणी पार है। उसके बाद चुनाव 2014 में ही होंगे। दूसरी चुनौती है उस राजनीतिक गठबंधन की तैयारी जो अगले विधान सभा और लोकसभा चुनाव में काम करेगा। अगले साल कुछ छोटे राज्यों के अलावा गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और हिमाचल में और 2014 में झारखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, हरियाणा और उड़ीसा विधान सभाओं के चुनाव होंगे। राष्ट्रपति चुनाव में सफलता का अर्थ यह नहीं कि यूपीए-2 के बाद यूपीए-3 का श्रीगणेश हो गया है। बल्कि जिस तीसरे मोर्चे को अभी तक बन पाने में विफलता मिली है उसका रास्ता खुलता नज़र आता है। तीसरी चुनौती वही है जो एनडीए की चुनौती है। यानी नेतृत्व का सवाल। पहले सोनिया गांधी ने कहा कि फैसला राहुल को करना है कि वे कब सक्रिय होते हैं। उसके फौरन बाद राहुल ने घोषणा की कि मैं अब ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी निभाने जा रहा हूँ। क्या है वह बड़ी ज़िम्मेदारी? उसके लिए आज से बेहतर वक्त कौन सा होगा?

पर कांग्रेस को उसके पहले कोल-गेट पार करना है। ऐसा नहीं कि यह आपदा अचानक आन पड़ी है। पिछले मार्च में जब सीएजी की रपट लीक हुई थी तब समझ में आ जाना चाहिए था कि अगला संकट कोयला खानों का है। टू-जी और कोल-गेट में एक फर्क यह है कि इसमें विपक्षी सरकारों की भूमिका भी है। दिल्ली में एक तबका ऐसा भी है जो मानता है कि बीजेपी के भीतर भी इस मसले को लेकर असहमति है और बीजेपी के कुछ नेताओं का कड़ा रुख सीधे-सीधे पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ है। कोल ब्लॉक्स पाने वालों में बीजेपी से जुड़े लोग भी हैं। सीएजी की रपट सिर्फ कोयले पर ही नहीं है। दिल्ली हवाई अड्डे के विकास और सासन अल्ट्रा मेगा पावर परियोजना से जुड़ी रपटें भी हैं, पर उनके बारे में पहले भी ज्यादा चर्चा नहीं हुई और अब भी नहीं हो रही है।

कोल-गेट पर मनमोहन सिंह से इस्तीफा माँगने की बीजेपी की माँग क्या वाजिब है? सीएजी रपट से ऐसा नहीं लगता कि मनमोहन सिंह ने किसी किस्म का फायदा लिया। उनपर आँखें मूँद लेने का आरोप लगाया जा सकता है। ऐसा आरोप टू-जी मामले में भी लगा है। प्रधानमंत्री होते हुए भी उन्होंने राजा को क्यों नहीं रोका? कोयले के मामले में सरकार ने नीलामी के बजाय स्व विवेक से कोल ब्लॉक आबंटित करने का फैसला क्यों किया? प्रधानमंत्री ऐसी नीति तैयार करने में विफल क्यों रहे, जिसमें प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा के साथ पारदर्शिता भी होती? सीएजी की ताजा रपटें इस तरफ इशारा करती हैं कि क्रोनी कैपीटलिज्म काफी गहरे तक हमारी व्यवस्था में प्रवेश कर गया है। पर इन बातों को जरा खुलकर और साफ-साफ कहने से किसने रोका है? बीजेपी या दूसरे दलों के नेता चैनलों में जाकर जिन बातों को कह रहे हैं उन्ही बातों को संसद में क्यों न कहें? इन बातों को कहने के लिए संसद से बेहतर कोई जगह नहीं है, क्योंकि वहाँ कई तरह के कानूनी विशेषाधिकार भी सदस्यों के पास होते हैं।

सामान्य नागरिक को लगता है कि देश में ऊपर के स्तर पर बड़ी चोरी हो रही है। ज़रूर कोई घोटाला है। टू-जी के मामले में जब सीएजी की रपट आई थी तब सरकार ने आरोपों को स्वीकार नहीं किया था। चूंकि मामला अदालत में गया, इसलिए धीरे-धीरे उस मामले ने राजनीति की शक्ल ली। इस ग़लाजत में सीएजी जैसी संवैधानिक संस्था को भी लपेटे में ले लिया गया है। सरकारी पक्ष इस बात को साफ कह रहा है कि सीएजी के पीछे राजनीतिक ताकत है। पिछले एक साल में सवाल उठाने वाले व्यक्ति और संस्थाएं खुद विवादास्पद बन गए। अन्ना हज़ारे और उनके साथियों के साथ ऐसा हुआ। बाबा रामदेव पहले से ही विवाद के घेरे में हैं। सेनाध्यक्ष विवाद के घेरे में आए और न्यायपालिका पर भी छींटे पड़े। फौज के भीतर की गोपनीयता को तोड़ने की कोशिश क्यों नहीं की जाती? तमाम बातें गुप-चुप सामने आती हैं। इन बातों को कहने, सुनने और बहस करने के लिए संसद से बेहतर कौन सा मंच है? बाहर बातें करने पर मानहानि कानूनों का डर है, सदन में बातें देशहित में कही जाती हैं। खुलकर बोलने से किसने रोका है?

इस बात को केवल यूपीए की सरकार पर लागू न किया जाए तो तथ्य यह है कि देश की प्राकृतिक सम्पदा के दोहन के काम में पारदर्शिता नहीं रही है। नब्बे के दशक में जब नई टेलीकम्युनिकेशंस नीति लागू हो रही थी, तब यह लूट दिखाई पड़ी। अचानक हवा में कम्पनियाँ खड़ी हुईं और उन्हें लाइसंसेस मिल गए। उसी दौरान हवाला मामला सामने आया। हालांकि रकम मामूली थी, पर तकरीबन हर पार्टी की भागीदारी उसमें थी। पैसा लेकर सवाल करने, एमपी-लैड धनराशि के दुरुपयोग जैसी बातें हमने देखीं। पैसा लेकर सरकार का समर्थन करने के खुल्लम-खुल्ला उदाहरण हमारे सामने हैं। स्पेक्ट्रम हो या सेज़ की ज़मीन, लोहे की खानें हों या कोयले की, जनता को आश्वस्त करने वाली पारदर्शी व्यवस्था कहीं नहीं है। देश का राजनीतिक वर्ग इस बात को ज़रूरी समझता ही नहीं कि वह जनता को आश्वस्त करे। इस अर्थ में लोकतंत्र कर्मकांड है किसी व्यवस्था का नाम नहीं।

ऐसा लगता है कि समूची व्यवस्था 2014 के चुनाव पर निगाहें लगाए बैठी है। यूपीए, एनडीए और नए मोर्चों के खिलाड़ी अपनी सीट पक्की करने के प्रयास में जुटे हैं। सबने सबको कलंकित करने का ठेका ले लिया है। पर यह बात किसी को भी नज़र में आती है कि कल तक साइकिल पर घूमने वाला व्यक्ति पार्षद बनते ही करोड़ों में खेलने लगता है। और उसके इस खेल से तमाम दूसरे लोगों के मन में वैसी ही सफलता का सपना जागता है। कोल-गेट के सवाल पर प्रधानमंत्री का इस्तीफा माँगने वालों के पास ज़रूर वाजिब कारण होंगे, पर देश की संसद में इस मामले पर खुली बहस ज़रूर होनी चाहिए। उन कम्पनियों के नाम सामने आने चाहिए, जिन्हें कोल ब्लॉक मिले। उनके स्वामियों के राजनेताओं से किस प्रकार के रिश्ते हैं यह भी सबको मालूम होना चाहिए। और यह चर्चा सिर्फ कोयले पर ही नहीं रुकनी चाहिए। इसके साथ जन सेवकों को उन विधेयकों को पास करने के लिए भी वक्त चाहिए, जो कई साल से लटके पड़े हैं। हमारे सिस्टम की साख लगातार गिर रही है और वक्त निकलता जा रहा है।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

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