Thursday, May 6, 2021

राष्ट्रीय स्तर पर ममता बनर्जी क्या विरोधी दलों की नेता बनेंगी?


बंगाल के चुनाव-परिणाम आने के बाद यह बात उठने लगी है कि क्या ममता बनर्जी को राष्ट्रीय स्तर पर आगे रखने का समय आ गया है। क्या कांग्रेस के बजाय तृणमूल कांग्रेस विपक्ष के अग्रिम दस्ते की भूमिका निभा सकती है? एनसीपी के प्रमुख शरद पवार एक अरसे से कांग्रेस से टूटे हुए दलों की एकता स्थापित करने के प्रयास कर रहे हैं। इसबार के चुनाव के ठीक पहले उन्होंने ममता बनर्जी का समर्थन किया था, जबकि कांग्रेस भी बंगाल के चुनाव मैदान में थी। वे मार्च में ममता की रैली में भी शामिल होने वाले थे, पर आए नहीं।

ममता बनर्जी पिछले कई साल से शिवसेना के सम्पर्क में भी हैं। चूंकि शिवसेना का गठबंधन बीजेपी के साथ चल रहा था, इसलिए ममता बनर्जी ने खुलेआम शिवसेना के नेताओं के साथ उपस्थिति दर्ज नहीं कराई। राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यू, जेडीएस और आम आदमी पार्टी के नेताओं के साथ भी उनका अच्छा सम्पर्क है। बावजूद इन बातों के ममता के नेतृत्व से जुड़े कुछ सवाल हैं।

पहला सवाल है कि ममता के नेतृत्व में विरोधी दलों की एकता का मतलब क्या है? क्या इसमें कांग्रेस भी शामिल होगी? इसका मतलब क्या? ममता यूपीए में शामिल होंगी या यूपीए ममता को अपना नेता बनाएगा? दूसरे ममता पर बंगाल की नेता का ठप्पा लगा है। बीजेपी के खिलाफ उन्होंने ‘आमार बांग्ला’ और बीजेपी के ‘बाहरी लोग’ का सवाल उठाया था। इसका लाभ उन्हें मिला, पर उत्तर भारत के हिन्दी इलाकों और गुजरात के वोटर के मन में भारतीय राष्ट्र-राज्य की जो छवि है, उसमें क्षेत्रीयता की एक सीमित भूमिका है। कमजोर हिन्दी और सीमित राष्ट्रीय अपील का उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है, लेकिन मोदी के मुकाबले खड़े होने का लाभ भी उन्हें मिलेगा।

राष्ट्रीय नेता की छवि

ये बातें क्षेत्रीय नेताओं को राष्ट्रीय नेता बनने से रोकती हैं। एमके स्टालिन तमिलनाडु के बड़े नेता बन सकते हैं, पर राष्ट्रीय नेता बनने के लिए उनकी छवि को बदलना होगा। करुणानिधि और एमजी रामचंद्रन की तुलना में जयललिता की छवि काफी हद तक राष्ट्रीय बनी थी, जिसके पीछे एक कारण यह भी था कि वे राज्यसभा की सदस्य होने के नाते दिल्ली में रहीं और वे हिन्दी बोल सकती थीं। ममता बनर्जी भी हिन्दी बोल सकती हैं और रेलमंत्री के रूप में वे अपना बजट भाषण हिन्दी और अंग्रेजी की मिली-जुली भाषा में पेश करती थीं। पर क्या ‘बाहरी लोग’ वाली बात उनके विरुद्ध नहीं जाएगी?

तृणमूल कांग्रेस सूत्रों ने मार्च में कहा था कि पार्टी भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने के अपने प्रयास के तहत कोलकाता में विपक्षी नेताओं की एक बड़ी रैली आयोजित करने पर विचार कर रही है। इस बारे में जानकारी रखने वाले एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘शरद पवार और ममता बनर्जी जब कांग्रेस में थे तभी से उनके बीच बहुत सौहार्दपूर्ण संबंध हैं। टेलीफोन पर एक बातचीत के दौरान, शरद जी ने उन्हें अपना समर्थन जताया। उन्होंने बंगाल आने और तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में प्रचार करने की इच्छा भी व्यक्त की थी।’ वह बात फिर ज्यादा चर्चा में आई नहीं।

2024 की सम्भावनाएं

अब बंगाल में जीत के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी ने ममता को 'झांसी की रानी' कहा है। सोशल मीडिया पर ममता को बधाई देने वाले नेताओं की बाढ़ है। ममता की इस जीत ने विपक्ष के लिए उम्मीदें जगा दी है। उन्हें लगता है कि वे 2024 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के सफर पर ब्रेक लगा सकती हैं। एक खबरिया वैबसाइट ने शिवसेना के एक नेता को उधृत किया है, 'अगर ममता हार जाती, तो हमारी सरकार भी गिर सकती थी या फिर एक हफ्ते के अंदर मुश्किल में आ जाती। लेकिन अब उनकी जीत से बीजेपी कुछ वक्त के लिए ठंडा पड़ जाएगी।'

2019 के लोकसभा चुनाव में ममता ने एनडीए को कड़ी टक्कर देने के संकेत दिए थे। वे कई गैर-भाजपा नेताओं के सम्पर्क में थीं, लेकिन उस वक्त विपक्ष एकजुट नहीं हो सका था। यह एकजुटता नहीं हो पाने के दो कारण हैं। एक तो ममता की प्राथमिकता बंगाल है। वे खुद भी पश्चिम बंगाल चुनावों में उलझ गईं थीं। दूसरे विरोधी दलों के बीच कई प्रकार के अंतर्विरोध हैं। जैसे कि सपा-बसपा, द्रमुक-अद्रमुक और खुद तृणमूल और वामदलों का टकराव है। अब जब बंगाल से वामदलों का सफाया हो चुका है, तब स्थिति क्या बनेगी, यह अब देखना होगा।

नवम्बर 2016 में जब नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तब सबसे पहले ममता बनर्जी ने उसके विरोध में आंदोलन खड़ा किया था। नोटबंदी की घोषणा होने के फौरन बाद उन्होंने अपने साथ दो-तीन दलों के नेताओं को लिया और राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया। उसके बाद जंतर-मंतर पर रैली की जिसमें कुछ और दल साथ में आए। चूंकि वे लड़का रणनीति अपनाती हैं, इसलिए बाद में वे उसमें उलझ गईं। उन्होंने कोलकाता में अपने विमान के उतरने में देरी और बंगाल में सेना की एक एक्सरसाइज़ को लेकर जो हंगामा खड़ा कर दिया, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिए असामान्य बात है। इसबार भी उन्होंने चुनाव के दौरान केंद्रीय सुरक्षा बलों पर हमले किए हैं। इनसे भी छवि बनती या बिगड़ती है। इन बातों के दीर्घकालीन नुकसान भी हैं।

तैश की रणनीति

ममता की राजनीति पर नजर रखने वालों का कहना है कि कई मसलों को जोड़कर विरोध की लहर पैदा करना उनकी रणनीति रही है। सन 2006 से 2008 के बीच सिंगुर-नंदीग्राम आंदोलन के साथ उन्होंने कई तरह के मसलों को जोड़ा और वाममोर्चा के खिलाफ माहौल बनाया था। इसमें उन्होंने रिजवानुर रहमान मौत और सच्चर आयोग की रपट का सहारा लेकर मुसलमानों के बीच जगह बनाई।

उनके आरोप कितने ही बेदम हों, उन्हें वे पूरी ताकत से दोहराती हैं। साथ ही उसके पक्ष में समर्थन हासिल करने की कोशिश करती हैं। संसद में उन्हें सेना की एक्सरसाइज़ को लेकर बसपा और कांग्रेस का समर्थन मिला था। हालांकि बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल ने एक-दूसरे का विरोध किया है, पर राष्ट्रीय स्तर पर एकता बनाने के लिए कांग्रेस को भी कुछ त्याग करने होंगे।

ममता के विरोधी उन्हें जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी मानते हैं। सच है कि वे कोरी हवा बाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में सादगी, ईमानदारी और साहस है। पर अब वे मुख्यमंत्री हैं, सिर्फ आंदोलनकारी राजनेता नहीं। यदि वे राष्ट्रीय नेता बनना चाहेंगी, तो उन्हें अपनी छवि में और भी बदलाव करना होगा। ममता बनर्जी यदि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी नेता के रूप में उभरना चाहती हैं तो उन्हें अपनी साख का ख्याल भी रखना चाहिए। देश की जनता को केवल तैश और तमाशा ही पसंद नहीं है।

कांग्रेस की दुविधा

कांग्रेस के सामने भी चुनौती है। बंगाल में विजय के बाद ममता बनर्जी का कद बढ़ा है। सवाल है कि क्या ममता बनर्जी को सोनिया गांधी के स्थान पर यूपीए का अध्यक्ष बनाया जा सकता है? इस कदम को कांग्रेस के ग्रुप-23 का समर्थन भी मिलेगा। पर क्या सोनिया गांधी और राहुल गांधी खुद आगे बढ़कर ममता को यूपीए की जिम्मेदारी लेने का निमंत्रण देंगे? क्या कांग्रेस ने वास्तविकता को स्वीकार कर लिया है? सम्भव है कि ममता और कांग्रेस के बीच किसी प्रकार की सहमति बने। फिलहाल ये बातें अटकलों के रूप में ही हैं।

ममता बनर्जी के साथ शिवसेना और आम आदमी पार्टी के रिश्ते भी अच्छे हैं। क्या इस गठजोड़ में सपा के अखिलेश यादव और ओडिशा के नवीन पटनायक भी शामिल होंगे? आंध्र के जगनमोहन रेड्डी, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव और कर्नाटक के देवेगौड़ा भी इसमें शामिल होंगे? हालांकि बाहरी तौर पर राजनीति में चुप्पी है, पर भीतर-भीतर गतिविधियाँ तेज हैं। टेलीफोन लाइनें बहुत व्यस्त हैं। हिसाब लगाने वाले 2024 में ग्रहों की स्थिति का पता लगा रहे हैं। राजनीति की गोटें बैठाई जा रही हैं और रिश्ते बनाए जा रहे हैं। इन परिणामों के गर्भ में काफी बातें हैं, जिन्हें सामने आने में कुछ समय लगेगा।


 

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