पिछले रविवार को घोषित पाँच राज्यों के चुनाव-परिणामों ने राज-व्यवस्था, राजनीति, समाज और न्याय-व्यवस्था को कई तरह से प्रभावित किया है। ये परिणाम ऐसे दौर में आए हैं, जब देश एक त्रासदी का सामना कर रहा है। स्वतंत्रता के बाद पहली बार देश के नागरिक मौत को सामने खड़ा देख रहे हैं और राजनीति को दाँव-पेचों से फुर्सत नहीं है। जब परिणाम घोषित हो रहे थे, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा समेत अनेक राज्यों में ऑक्सीजन और दवाओं की कमी से रोगियों की मौत हो रही थी।
चुनाव-संचालन
यह संकट पिछले साल
बिहार के चुनाव के समय भी था, पर
इसबार परिस्थितियाँ बहुत ज्यादा खराब हैं। चूंकि लोकतांत्रिक-प्रक्रियाओं का
परिपालन भी होना है, इसलिए
इन मजबूरियों को स्वीकार करना होगा, पर चुनाव आयोग तथा अन्य सांविधानिक-संस्थाओं के लिए कई बड़े
सबक यह दौर देकर गया है। इस दौरान मद्रास हाईकोर्ट को चुनाव-आयोग पर काफी सख्त
टिप्पणी करनी पड़ी।
चुनाव संचालन के लिए आयोग के पास तमाम अधिकार होते
हैं, फिर भी बहुत सी बातें
उसके हाथ से बाहर होती हैं। राजनीतिक दलों ने भी प्रचार के दौरान दिशा-निर्देशों
का उल्लंघन करने में कोई कमी नहीं की। जरूरत इस बात की थी कि वे प्रचार के
तौर-तरीकों को लेकर आमराय बनाते। चुनाव-आयोग और ईवीएम को विवादास्पद बनाने की
राजनीतिक-प्रवृत्ति भी बढ़ी है। खासतौर से इसबार बंगाल में चुनाव-आयोग लगातार
राजनीतिक-विवेचना का विषय बना रहा।
बीजेपी
की पराजय
चार राज्यों और एक केंद्र-शासित प्रदेश के परिणामों में देश की भावी राजनीति के लिए तमाम संदेश छिपे हैं। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, वामपंथी दलों और तमिलनाडु के दोनों क्षेत्रीय दलों पर इन परिणामों का असर आने वाले समय में देखने को मिलेगा। हालांकि हरेक राज्य का राजनीतिक महत्व अपनी जगह है, पर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत और भारतीय जनता पार्टी की पराजय सबसे बड़ी परिघटना है। बीजेपी ने जिस तरह से अपनी पूरी ताकत इस चुनाव में झोंकी और जैसे पूर्वानुमान थे, उसे देखते हुए यह झटका है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की निजी हार।
दूसरी तरह से देखें,
तो यह उसकी जीत भी है, क्योंकि बीजेपी तो बंगाल की पार्टी ही
नहीं है। पिछले चुनाव में केवल तीन सीटें पाने वाली पार्टी 77 सीटें पाकर बंगाल में
मुख्य विरोधी दल बनकर उभरी है। उसके पास तो राज्य में ठीक सा संगठन भी नहीं है। बड़ी
संख्या में उसके प्रत्याशी दूसरी पार्टियों, खासतौर से टीएमसी से आए नेता थे। चुनाव
में टीएमसी को 48 फीसदी और बीजेपी को 38 फीसदी वोट मिले हैं।
इससे दो बातें साफ हैं।
एक, ममता बनर्जी पहले की
तुलना में ज्यादा बड़ी ताकत बनकर उभरी हैं और दूसरे, बीजेपी को अपना संगठन मजबूत करने और
स्थानीय स्तर पर नेता और कार्यकर्ता तैयार करने के लिए पाँच साल मिले हैं। ममता
बनर्जी की चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं। उन्हें विशाल बहुमत मिला जरूर है, पर अब विरोधी-पक्ष बदला हुआ है। देखा
जाए, तो राज्य में सबसे बड़ा झटका कांग्रेस और सीपीएम को लगा है, जिनका सूपड़ा साफ है।
राष्ट्रीय
नेता ममता
अब सवाल है कि क्या
ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की नेता बनेंगी? वे पिछले कई साल से राष्ट्रीय राजनीति
में प्रवेश करने की कोशिश में हैं। राकांपा, शिवसेना, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यू, जेडीएस और आम आदमी पार्टी के साथ उनका
अच्छा सम्पर्क है। बंगाल में बीजेपी के अश्व को रोककर उन्होंने अपना कद ऊँचा कर
लिया है। क्या वे 2024 लोकसभा चुनाव में मोदी के सफर पर ब्रेक लगा सकती हैं? नवम्बर 2016 में जब नरेन्द्र मोदी ने
नोटबंदी की घोषणा की, तब
सबसे पहले ममता बनर्जी ने विरोध में आंदोलन खड़ा किया था। नोटबंदी की घोषणा होने
के फौरन बाद उन्होंने पहल अपने हाथ में ली और राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया।
जंतर-मंतर पर रैली की जिसमें कुछ और दल साथ में आए।
सन 2019 के लोकसभा
चुनाव के पहले भी उन्होंने विरोधी-एकता की पहल की थी। वे कई गैर-भाजपा नेताओं के
सम्पर्क में थीं, लेकिन
उस वक्त विपक्ष एकजुट नहीं हो सका था। यह एकजुटता नहीं हो पाने के दो कारण हैं। एक
तो ममता की प्राथमिकता बंगाल है। वे खुद भी पश्चिम बंगाल चुनावों में उलझ गईं थीं।
दूसरे विरोधी दलों के बीच कई प्रकार के अंतर्विरोध हैं। जैसे कि सपा-बसपा, द्रमुक-अद्रमुक और खुद तृणमूल और
वामदलों का टकराव है। अब जब बंगाल से वामदलों का सफाया हो चुका है, तब स्थिति क्या बनेगी, यह अब देखना होगा।
चूंकि वे जुझारू
रणनीति अपनाती हैं, इसलिए
बाद में वे उसमें उलझ गईं। लड़ाकू स्वभाव उनकी ताकत है, तो उनकी कमजोरी भी यही है। उनके नेतृत्व
से जुड़े कुछ सवाल भी हैं। पहला सवाल है कि ममता के नेतृत्व में विरोधी दलों की
एकता का मतलब क्या है? क्या
इसमें कांग्रेस भी शामिल होगी? ममता
यूपीए में शामिल होंगी या यूपीए ममता को अपना नेता बनाएगा?
ममता पर बंगाल की
नेता का ठप्पा लगा है। बीजेपी के खिलाफ उन्होंने ‘आमार बांग्ला’ और बीजेपी के
‘बाहरी लोग’ का सवाल उठाया था। इसका लाभ उन्हें मिला, पर उत्तर भारत के हिन्दी इलाकों और
गुजरात के वोटर के मन में भारतीय राष्ट्र-राज्य की जो छवि है, उसमें क्षेत्रीयता की एक सीमित भूमिका
है। कमजोर हिन्दी और सीमित राष्ट्रीय अपील का उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा। लेकिन
मोदी के मुकाबले खड़े होने का लाभ भी उन्हें मिलेगा।
उनके विरोधी उन्हें
जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी
मानते हैं। वे कोरी हवा बाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में सादगी, ईमानदारी और साहस है। पर अब वे
मुख्यमंत्री हैं, सिर्फ
आंदोलनकारी राजनेता नहीं। यदि वे राष्ट्रीय नेता बनना चाहेंगी, तो उन्हें अपनी छवि में और भी बदलाव
करना होगा। इधर चुनाव-परिणाम आने के बाद बंगाल में हुई हिंसा से उन्हें बदनामी
मिलेगी।
कांग्रेस
का संकट
इन चुनाव-परिणामों ने
कांग्रेस की दुविधा बढ़ाई है। उसके सपनों का संसार उजाड़ा है। बंगाल में सूपड़ा
साफ, असम और केरल में
विफलता और पुदुच्चेरी में पटरा। पाँचों राज्यों की कुल सीटों के लिहाज से कांग्रेस
की सीटें पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में कम हुई हैं। पिछले चुनावों में इन
राज्यों में उसे कुल 114 सीटें मिली थी, जो इसबार 70 रह गई हैं। पार्टी को केरल में काफी उम्मीदें नजर
आ रही थीं, क्योंकि 2019 के
लोकसभा चुनाव में उसने कुल 20 में से 19 सीटें जीतीं थी। सारी उम्मीदों पर भारी
तुषारापात हुआ है।
जो अकेली बात उसके
पक्ष में गई है, वह
है तमिलनाडु की सीटों में दस की वृद्धि। इन परिणामों का असर क्या पार्टी के संगठन,
नेतृत्व और कार्यक्रमों पर भी पड़ेगा?
जिस प्रकार ग्रुप-23 ने पिछले साल कुछ
सवाल उठाए थे, क्या
वैसे ही सवाल अब उठाए जाएंगे? क्या
जून में राहुल गांधी पार्टी की कमान फिर से अपने हाथ में लेंगे? यूपीए के भविष्य से जुड़े सवाल भी हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी दलों की गोलबंदी क्या अब कांग्रेस के बजाय किसी दूसरे दल
के हाथों में होगी?
ममता बनर्जी का कद
बढ़ने का मतलब है, सोनिया-राहुल
के कद के बराबर आना। क्या ममता बनर्जी को सोनिया गांधी के स्थान पर यूपीए का
अध्यक्ष बनाया जा सकता है? इस
कदम को कांग्रेस के ग्रुप-23 का समर्थन भी मिलेगा। पर क्या सोनिया गांधी और राहुल
गांधी इस बात को स्वीकार करेंगे? सम्भव
है कि ममता और कांग्रेस के बीच किसी प्रकार की सहमति बने। क्या इस गठजोड़ में सपा
के अखिलेश यादव और ओडिशा के नवीन पटनायक भी शामिल होंगे? आंध्र के जगनमोहन रेड्डी, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव और
कर्नाटक के देवेगौड़ा भी इसमें शामिल होंगे? फिलहाल ये अटकलें हैं। इन बातों को जमीन
पर उतरने दें।
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