न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने पहले पेज पर दिल्ली में जलती चिताओं की एक विशाल तस्वीर छापी। लंदन के गार्डियन ने लिखा, द सिस्टम हैज़ कोलैप्स्ड। लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर मोदी-सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे ऑस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा और उस खबर को ट्विटर पर बेहद कड़वी भाषा के साथ शेयर किया गया। पश्चिमी मीडिया में असहाय भारत की तस्वीर पेश की जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेड्रॉस गैब्रेसस ने कहा, भारत की दशा को व्यक्त करने के लिए ‘हृदय-विदारक’ शब्द भी हल्का है।
ज्यादातर रिपोर्टों में समस्या की गम्भीरता और उससे बाहर निकलने के रास्तों
पर विमर्श कम, भयावहता की
तस्वीर और नरेंद्र मोदी पर निशाना ज्यादा है। प्रधानमंत्री ने भी पिछले रविवार को
अपने ‘मन की बात’ में माना कि 'दूसरी लहर के
तूफान ने देश को हिलाकर रख दिया है।' राजनीतिक हालात को देखते हुए उनकी यह स्वीकारोक्ति मायने रखती है।
व्यवस्था का दम घुटा
इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि सरकार इस संकट का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी। उत्तराखंड की बाढ़ की तरह यह आपदा अचानक आई। पर, सरकार को इसका पूर्वानुमान होना चाहिए था। अमेरिका में भी ऐसी ही स्थिति थी, पर वहाँ की जनसंख्या कम है और स्वास्थ्य सुविधाएं हमसे बेहतर हैं, वे झेल गए। भारत में सरकार केवल केंद्र की ही नहीं होती। राज्य सरकार, नगरपालिकाएं और ग्राम सभाएं भी होती हैं। जिसकी तैयारी बेहतर होती है, वह झेल जाता है। केरल में ऑक्सीजन संकट नहीं है, क्योंकि वहाँ की सरकार का इंतजाम बेहतर है।
जब हम व्यवस्था कहते
हैं तब उसमें सरकार, अदालतें, प्रशासनिक मशीनरी, नौकरशाही, राजनीति, मीडिया, नागरिक
समाज, सामाजिक-सांस्कृतिक और सांविधानिक संस्थाएं भी शामिल होती हैं। इस चक्रव्यूह
पर नजर डालेंगे, तब इस पेचीदा कहानी की परतें खुलेंगी। केंद्र ने राज्यों से कहा, राज्यों
ने अपने बाबुओं को निर्देश दिए। बाबुओं ने मुंशियों को और मुंशियों ने चपरासियों
को।
जिम्मेदारियों का
सिलसिला कहीं जाकर नहीं रुकता। पर इस संकट से बाहर निकालने की जिम्मेदारी भी इसी व्यवस्था
की है। यकीनन हालात सुधरेंगे। मान लिया कि इतनी तेज लहर का अनुमान हमें नहीं था।
यह भी मान लिया कि आम लोगों की लापरवाही के कारण इस लहर को बढ़ने का मौका मिला,
पर बीमारों को अस्पतालों में जगह न
मिलने और ऑक्सीजन के लिए तड़पते लोगों की बेबसी की अनदेखी कैसे की जा सकती है?
दूसरी लहर को रोका
क्यों नहीं जा सका? सेरोसर्वे से लेकर जीन सीक्वेंसिंग के
काम में सुस्ती क्यों आई? जीन
सीक्वेंसिंग से ही पता लगता कि वायरस का विस्तार क्यों हो रहा है। त्रासदी की
जिम्मेदारी भी किसी को लेनी होगी। जवाब ईमानदारी से मिलने चाहिए। हैरत है कि देश
में ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्रों की तादाद बढ़ाने के आदेश को निविदा तक का सफर तय
करने में आठ महीने लगे। 162 प्रेशर स्विंग एड्जॉर्प्शन (पीएसए) संयंत्रों की योजना
थी, लेकिन केवल 33 संयंत्र स्थापित किए गए। इस सुस्ती की पड़ताल भी तो होगी।
राजनीतिक
निहितार्थ
मतलब यह भी नहीं कि
त्रासदी की आँच पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जाएं। जब हालात सुधरेंगे, तब विवेचन का
समय होगा। इस समय भय का माहौल बनाने से हालात बिगड़ेंगे। सरकार जिम्मेदार है, तो
इसका मतलब यह नहीं कि विरोधी जिम्मेदार नहीं। वैक्सीन को लेकर गलतफहमियाँ किसने
फैलाईं? किसने कहा था कि यह
बीजेपी की वैक्सीन है?
हमारे यहाँ जब 16
जनवरी को टीकाकरण की शुरुआत हुई, तो
भ्रम फैलाया गया। बड़ी संख्या में स्वास्थ्य-कर्मियों और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं
ने वैक्सीन लेने से इनकार कर दिया। ऐसी खबरें अखबारों के पहले सफे पर छपीं। किसी
को बुखार भी आया, तो
उसकी खबर। मीडिया भी इसी ‘सिस्टम’ का हिस्सा है। अब जब 15 करोड़ से ऊपर
लोग टीका ले चुके हैं, तब
कहा जा रहा है कि वैक्सीनेशन में हमारी गति सुस्त है। कारण है टीकों की आपूर्ति
में सुस्ती। आज से 18+ का टीकाकरण शुरू हो
रहा है, पर आपूर्ति को लेकर संदेह हैं।
सोनिया गांधी ने हाल
में दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार से एक इंटरव्यू में एक तरफ यह कहा कि कोविड-9 के
खिलाफ लड़ाई में हमें एक-दूसरे की टाँग नहीं खींचनी चाहिए। यह हम सब लोगों की
कोविड-19 के खिलाफ साझा लड़ाई है। वहीं उसी इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा कि
कोरोना की दूसरी लहर में मोदी सरकार पूरी तरह नाकारा साबित हुई है।
दुनिया के निशाने पर
दो परिघटनाएं हैं। एक कुम्भ और दूसरे चुनाव रैलियाँ। ये रैलियाँ सभी राजनीतिक दलों
की थीं, किसी एक की नहीं। बहरहाल अब दूसरी लहर का ‘पीक’
और बंगाल के परिणाम एकसाथ आने वाले हैं।
ज्यादातर पेशबंदियाँ चुनाव-परिणाम को लेकर हैं। विडंबना है कि सरकार की ‘सफलताओं और विफलताओं’ के तटस्थ और वस्तुनिष्ठ विवेचन में
बहुत कम लोगों की दिलचस्पी है। मैदान में या तो मोदी के समर्थक हैं या धुर विरोधी।
आप कितना भी बचें कोविड-19 से जुड़े विवेचन को राजनीतिक स्पीड-ब्रेकरों पर से होकर
गुजरना ही पड़ेगा।
अतिशय
आत्मविश्वास
28 जनवरी को वर्ल्ड
इकोनॉमिक फोरम के वर्चुअल सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा, भारत ने न केवल कोरोना
को हराया है, बल्कि उसकी रोकथाम के लिए एक मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण भी कर लिया है। 21 फरवरी को
पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की बैठक में कोरोना पर विजय की घोषणा करता हुआ एक प्रस्ताव पास किया गया। यह
आत्मविश्वास केवल केंद्र सरकार का ही नहीं था। राज्य सरकारें दो कदम आगे बढ़ गईं।
पिछले एक साल में कोविड-19 से लड़ने के लिए जो व्यवस्थाएं बनाई गई थीं, वे गिरा दी गईं। उनमें काम करने वालों की छुट्टी
कर दी गई।
सरकार की आलोचना जिन
मुद्दों पर की जा रही है, उनमें एक यह भी है कि अपने देश को वैक्सीन देने में वरीयता
देने के बजाय हमने दूसरे देशों को वैक्सीन देने में जल्दबाजी की। दूसरी लहर नहीं
आई होती, तो वह सफल ‘वैक्सीन-डिप्लोमेसी’ होती। अब उसे कोसा जाएगा। करीब 6.6
करोड़ वैक्सीन हमने विदेश भेजीं। कुछ दान में और कुछ दाम लेकर। इस ‘वैक्सीन-मैत्री’ का लाभ भी
हमें मिलेगा, पर फिलहाल वह गले की हड्डी है।
व्यवस्थागत सच
इस अनदेखी के पीछे आत्मविश्वास था कि हमने कोरोना को हरा दिया है। पर
वैक्सीन उत्पादन को लेकर कुछ नीतिगत खामियों की ओर विशेषज्ञ इशारा कर रहे हैं।
निर्माताओं पर कीमतों और बाजार की पाबंदियाँ उसी सरकारी नियंत्रण की कहानी कह रही
हैं, जिसके कारण हमारी अर्थव्यवस्था धीमेपन की शिकार है।
स्वास्थ्य सेवाओं के
चरमराने का बड़ा कारण है संक्रमितों की बढ़ती संख्या। पैनिक की वजह से समर्थ लोग
ज्यादा से ज्यादा ऑक्सीजन और चिकित्सा सुविधाओं पर कब्जा कर रहे हैं। जरूरी दवाएं कई
गुना कीमत पर चोर-बाजार में बिक रही हैं। हाल में वाराणसी की एक तस्वीर वायरल हुई,
जिसमें ई-रिक्शे पर बैठी एक बदहवास माँ है और उनके क़दमों में उनके बेटे की लाश। यह
तस्वीर दिल दहला देने वाली है। जब बेबस माँ अपने बेटे के शव को ले जाने के लिए मदद
की गुहार लगा रही थी, तब भीड़-भाड़ में किसी ने उनका थैला चुरा लिया। यह हमारी
सामाजिक-व्यवस्था का सच है।
माँग बढ़ने के बावजूद
देश में जरूरत भर की ऑक्सीजन है। कमी है उसे अस्पतालों तक पहुँचाने वाली व्यवस्था
की। मेडिकल-ऑक्सीजन को ले जाने के लिए विशेष क्रायोजेनिक टैंकरों की जरूरत होती
है। क्रायोजेनिक टैंकर में तरल ऑक्सीजन को माइनस 183 डिग्री सेल्सियस पर रखा जाता है।
एक टैंकर को भरने में करीब दो घंटे का समय लगता है। फिर इनके परिवहन में समय लगता
है। इन्हें बहुत तेज गति से नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि यह गैस ज्वलनशील है।
समय आने पर बहुत सी बातों को स्वीकार करना होगा। बहुत सी जानकारियाँ भी
हमारे पास होंगी। बेहतर हो कि पहले इस लहर से लड़ें, फिर आपस में भिड़ें।
राष्ट्रीय
सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
बात सटीक कही है। कई मुद्दे हैं लेकिन फिलहाल ध्यान भिड़ने पर नहीं बल्कि इस बिमारी से लड़ने पर होना चाहिए।
ReplyDeleteप्रभावशाली आलेख।।।। बहुत-बहुत ही सुंदर।
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