Monday, May 3, 2021

बंगाल के परिणामों का राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर होगा

रविवार को जब बंगाल के चुनाव परिणाम आ ही रहे थे, तभी खबर आई कि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने आरामबाग स्थित भाजपा कार्यालय में आग लगा दी। बंगाल की राजनीतिक संस्कृति में यह बात सामान्य लगती है, पर क्या तृणमूल इसे आगे भी चला पाएगी? क्या बंगाल के तृणमूल-मॉडल को जनता का समर्थन मिल गया है? या यह ममता बनर्जी के चुनाव-प्रबंधन की विजय है?

बंगाल के इस परिणाम का देश के राजनीतिक भविष्य पर गहरा असर होने वाला है। इसका बीजेपी और उसके संगठन, कांग्रेस और उसके संगठन तथा विरोधी दलों के गठबंधन पर असर होगा। ममता बनर्जी अब राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के मुकाबले में उतरेंगी। वे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को जितनी बड़ी चुनौती पेश करेंगी, उतनी ही बड़ी चुनौती कांग्रेस और उसके नेता-परिवार के लिए खड़ी करेंगी।

विरोधी-राजनीति

दूसरी तरफ विरोधी दल यदि ममता बनर्जी के नेतृत्व में गोलबंद होंगे, तो इससे कांग्रेस की राजनीति भी प्रभावित होगी। सम्भव है राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ममता के नेतृत्व को स्वीकार कर ले, पर उसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा, यह भी देखना होगा। राहुल का मुकाबला अब ममता से भी है। इसकी शुरूआत इस चुनाव के ठीक पहले शरद पवार ने कर दी थी। वे एक अरसे से इस दिशा में प्रयत्नशील थे।

बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की भारी विजय को किसकी पराजय मानें? बीजेपी की, कांग्रेस या वाममोर्चे की? बुनियादी तौर पर यह बीजेपी की पराजय है, क्योंकि कांग्रेस और वाममोर्चा मुकाबले में ही नहीं थे। पर बीजेपी तो बंगाल की पार्टी ही नहीं है। सन 2016 के चुनाव में उसे सिर्फ तीन सीटें मिली थीं। उसे तो बंगाल की राजनीति में प्रवेश का मौका मिला है। अगले पाँच साल में वह अपने स्थानीय नेतृत्व को भी विकसित कर सकती है और संगठनात्मक जड़ें भी जमा सकती है।

बीजेपी की विफलता

बीजेपी के सफल होने की सम्भावनाएं 2019 के लोकसभा चुनाव के आधार पर बनी थीं। वह अगर इसबार तृणमूल को हराकर सत्ता में आती, तो अपने किस्म का नया इतिहास बनता। ऐसा नहीं हो पाया और वह तृणमूल के गढ़ को ध्वस्त करने में नाकामयाब रही, तो उसके कारणों को समझने की जरूरत है। नकारात्मक तरीके से केवल ममता-विरोध और पनीले हिंदुत्व के सहारे सत्ता में आना संभव नहीं था।

ममता के लिए भी अब परीक्षा की घड़ी है। पनीली धर्मनिरपेक्षता और हुल्लड़बाजी से गाड़ी ज्यादा दूर तक चलेगी नहीं। राज्य में आर्थिक गतिविधियां बढ़ानी होंगी। अभी का राजनीतिक मॉडल उन बेरोजगार नौजवानों के सहारे है, जो स्थानीय स्तर पर क्लब बनाकर संगठित हैं और उसके आधार पर उगाही, वसूली और कमीशन के सहारे कमाई करते हैं। यह मॉडल सीपीएम से विरासत में पार्टी को मिला है। पर इससे राज्य की जनता को कुछ मिलने वाला नहीं है।

वाम-कांग्रेस का सूपड़ा साफ

इसबार के चुनाव में तृणमूल को 213 (वोट प्रतिशत 48) और बीजेपी को 77 (38%) सीटें मिली हैं। कांग्रेस को 2.9 फीसदी और वाममोर्चा को करीब सवा 5 फीसदी वोट मिले हैं, पर सीट कोई नहीं मिली। दोनों पार्टियों की स्थिति केरल में बीजेपी की स्थिति से भी खराब है। राज्य में वाममोर्चा और कांग्रेस का वोट कहाँ गया? यह वोट या तो तृणमूल के पास गया या बीजेपी के पास। अब राज्य में दो-दलीय स्थिति पैदा हो गई है। बीजेपी को ज्यादातर कार्यकर्ता सीपीएम से और नेता तृणमूल से मिले हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 42 में से बीजेपी को 18 और तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। बीजेपी का वोट-शेयर 40 फीसदी हो गया, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 43 फीसदी वोट मिले। कांग्रेस को दो सीटें मिलीं थीं और 38 स्थानों पर उसके प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई थी। वाममोर्चा एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुआ था। उसके प्रत्याशियों की 39 सीटों पर जमानत जब्त हुई थी। कांग्रेस के लिए चिंता की बात यह थी कि बंगाल में उसका वोट-शेयर 12 से घटकर 6.29 प्रतिशत रह गया, जबकि वाममोर्चा का 2014 में 29 फीसदी वोट-शेयर 2016 में 24 फीसदी हुआ और 2019 में 7 फीसदी रह गया।

सन 2016 के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा और कांग्रेस ने मिलकर लड़ा था। कांग्रेस और वाममोर्चे को कुल 294 में से 76 पर विजय मिली। इनमें कांग्रेस की 44 और वाममोर्चे की 32 सीटें थीं। दोनों दलों को कुल मिलाकर 38 फीसदी वोट मिले थे, जिनमें से 26 फीसदी वाममोर्चे के थे और 12 फीसदी कांग्रेस के। इसबार भी दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा और परिणाम सामने है। असली पराजय तो इन दो दलों की है। इन दोनों का स्थान अब बीजेपी ने लिया है। इसबार की पराजय के बाद बीजेपी को अपनी हार के कारणों पर मनन करना होगा और तृणमूल को अपने आधार को बनाए रखने के बारे में सोचना होगा।

 

 

 

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