हिन्दू में वासिनी वर्धन का कार्टून |
गज़ा पट्टी में चल रहे टकराव को रोकने के लिए संरा सुरक्षा परिषद की खुली बैठक में की जा रही कोशिशें अभी तक सफल नहीं हो पाई हैं, क्योंकि ऐसा कोई प्रस्ताव अभी तक सामने नहीं आया है, जिसपर आम-सहमति हो। नवीनतम समाचार यह है कि फ्रांस ने संघर्ष-विराम का एक प्रस्ताव आगे बढ़ाया है, जिसकी शब्दावली पर अमेरिका की राय अलग है। हालांकि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने औपचारिक रूप से जो बयान जारी किया है, उसमें दोनों पक्षों से संघर्ष-विराम की अपील की है, पर अमेरिका का सुझाव है कि इसपर सुरक्षा परिषद की खुली बैठक के बजाय बैकरूम बात की जाए। एक तरह से उसने सुप को बयान जारी करने से रोका है।
अब फ्रांस ने कहा है
कि हम अब बयान नहीं एक प्रस्ताव लाएंगे, जो कानूनन लागू होगा। इसपर सदस्य मतदान भी
करेंगे। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यह बात मिस्र और जॉर्डन के
राष्ट्राध्यक्षों से बात करने के बाद कही है। अनुमान है कि इस प्रस्ताव में केवल
संघर्ष-विराम की पेशकश ही नहीं है, बल्कि गज़ा में हालात का अध्ययन करने और
मानवीय-सहायता पहुँचाने की पेशकश भी है। सम्भवतः अमेरिका को इसपर आपत्ति है। देखना
होगा कि ऐसी स्थिति आई, तो अमेरिका उसे वीटो करेगा या नहीं।
भारत
किसके साथ?
उधर इस संघर्ष के दौरान भारत में बहस है कि हम संयुक्त राष्ट्र में किसका साथ दे रहे हैं, इसराइल का या फलस्तीनियों का? भारतीय प्रतिनिधि टीएस त्रिमूर्ति ने रविवार को सुरक्षा परिषद में जो बयान दिया था, उसे ठीक से पढ़ें, तो वह फलस्तीनियों के पक्ष में है, जिससे इसराइल को दिक्कत होगी। साथ ही भारत ने हमस के रॉकेट हमले की भी भर्त्सना की है।
भारत में काफी लोग
बिन्यामिन नेतन्याहू 16 मई के एक ट्वीट का हवाला दे रहे हैं, जिसमें उन 25 देशों को
धन्यवाद दिया गया है, जिन्होंने इसराइली रुख का समर्थन किया है। नेतन्याहू ने अपने
ट्वीट में सबसे पहले अमेरिका, फिर
अल्बानिया, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, ब्राज़ील, कनाडा, कोलंबिया, साइप्रस, जॉर्जिया, जर्मनी, हंगरी, इटली, स्लोवेनिया और यूक्रेन समेत कुल 25
देशों का ज़िक्र किया है। इन देशों में भारत का नाम नहीं है। वस्तुतः भारत ने
इसराइली कार्रवाई का समर्थन किया भी नहीं है। भारत ने दोनों पक्षों से हिंसा रोकने
की अपील की है। साथ ही भारत ने यह भी कहा है कि हम ‘टू-स्टेट समाधान’ के पक्ष में हैं।
रॉकेट प्रहार की भर्त्सना
भारतीय प्रतिनिधि त्रिमूर्ति ने सुरक्षा परिषद में कहा, गज़ा से नागरिक
क्षेत्रों पर हो रहे निरंतर रॉकेट प्रहारों की हम भर्त्सना करते हैं, पर इसराइल के
जवाबी आक्रमण की भी निन्दा करते हैं, जिसके कारण स्त्रियों और बच्चों की जान गई
हैं। भारत ने दोनों ही पक्षों के अपने ऊपर नियंत्रण रखने का आग्रह किया है। भारतीय
प्रतिनिधि ने हिंसा के पीछे यरूशलम के घटनाचक्र का जिक्र भी किया है। इसका मतलब है
कि भारत मानता है कि हालात केवल 10 मई को हमस के रॉकेट-प्रहार से ही नहीं बिगड़े
हैं।
संयुक्त राष्ट्र में
भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने 11 मई को सुरक्षा परिषद की बैठक में
पूर्वी यरूशलम की घटनाओं पर चर्चा के दौरान कहा था, "दोनों पक्षों को ज़मीन
पर यथास्थिति बदलने से बचना चाहिए।" 12 मई को सुरक्षा परिषद में उन्होंने कहा,
"भारत हिंसा की निंदा करता है, विशेषकर गज़ा से रॉकेट हमले की। उन्होंने कहा कि तत्काल हिंसा
ख़त्म करने और तनाव घटाने की ज़रूरत है।"
भारत हमेशा से फलस्तीन का खुला समर्थन करता रहा है, जिसकी राजधानी पूर्वी
यरूशलम होनी चाहिए। पर 2017 के बाद से इसराइल के साथ उसके रिश्तों में काफी सुधार
आया है। सन 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फलस्तीन प्राधिकरण के
राष्ट्रपति महमूद अब्बास के साथ खड़े होकर कहा था कि हम स्वतंत्र और समृद्ध
फलस्तीन की स्थापना के पक्ष में है, जिसका अस्तित्व इसराइल के साथ शांतिपूर्ण तरीके
से बना रहे।
यहाँ पर ध्यान देने की जरूरत है कि यह बयान महमूद अब्बास के साथ बातचीत के
बाद दिया गया था, पर इन दिनों इसराइल का टकराव हमस से है, जो राजनीतिक दृष्टि से
महमूद अब्बास के ग्रुप अल-फतह का विरोधी है।
आइंस्टाइन का पत्र
इसराइल को लेकर भारतीय दृष्टि अंतर्विरोधों की शिकार रही है। इस बात को
लेकर बहस है कि महात्मा गांधी ने इसराइल का समर्थन किया था या नहीं। सन 1938 के
उनके इस
लेख से इतना जरूर पता लगता है कि वे चाहते थे कि यहूदी लोग बंदूक के जोर पर इसराइल
बनाने के बजाय अरबों की सहमति से अपने वतन वापस आएं। व्यावहारिक सच यह भी है कि इस
लेख के लिखे जाने के कुछ साल बाद वे धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान को रोक नहीं
पाए। जिस आधार पर वे इसराइल बनने का विरोध कर रहे थे, उसी आधार पर 1947 में
पाकिस्तान बना था। गांधी समग्र के खंड 68 में यह
लेख हिंदी में पढ़ा जा सकता है।
14 मई 1948 को इसराइल
ने अपनी स्थापना की घोषणा की थी। जब संयुक्त राष्ट्र संघ में इसराइल और फलस्तीन दो
देश बनाने का प्रस्ताव पेश हुआ था, तो भारत ने इसके खिलाफ वोट दिया था। तब जवाहरलाल
नेहरू फ़लस्तीन के बंटवारे के ख़िलाफ़ थे। नेहरू को प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट
आइंस्टाइन ने चार पेज का पत्र लिखकर नेहरू से समर्थन माँगा था और समर्थन में
वोट देने की अपील की थी।
आइंस्टाइन की बात को नेहरू ने स्वीकार नहीं किया
था। आइंस्टीन को भी लगता था कि अगर यहूदियों के लिए कोई देश बनता है तो यहूदियों
से जुड़ी संस्कृति, यातना
सह रहे यहूदी शरणार्थी और दुनियाभर में बिखरे यहूदियों के बीच भरोसा जागेगा। आइंस्टाइन
चाहते थे कि इसराइल में अरबी और यहूदी दोनों एक साथ रहें। इसराइल के पहले
प्रधानमंत्री बेन गुरियों ने आइंस्टाइन को इसराइल का राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव
भी दिया था, जिसे उन्होंने
स्वीकार नहीं किया।
इस बारे में "ऑब्ज़र्वर
रिसर्च फाउंडेशन" की वेबसाइट में पिनाक रंजन चक्रवर्ती का लेख "ह्वेन आइंस्टाइन ट्राइड टू कनविंस
नेहरू टू सपोर्ट इसराइल...बट फेल्ड" प्रकाशित हुआ है, जिसमें इस पूरे
वाकये पर रोशनी डाली गई है। संयुक्त राष्ट्र में इस योजना के पक्ष में 33 वोट पड़े
और विरोध में 13 जबकि 10 देश वोटिंग से गैरहाजिर रहे। भारत ने 17 सितंबर, 1950 को इसराइल को संप्रभु राष्ट्र के
रूप में मान्यता दी। ऐसा करने के बाद भी भारत और इसराइल के बीच राजनयिक संबंध लम्बे
समय तक नहीं रहे। भारत ने 1992 में राजनयिक स्थापित के। यह तब हुआ जब भारत में
पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने।
बढ़िया जानकारी दी अपने। बाकी ज्यादा शांतिप्रिय बनना घातक सिद्ध होता है।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा बुधवार (19-05-2021 ) को 'करोना का क़हर क्या कम था जो तूफ़ान भी आ गया। ( चर्चा अंक 4070 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बढ़िया जानकारी दी है। भारत का रुख फिलीस्तीन की तरफ क्यों है इस पर भी एक लेख हो तो अच्छा रहेगा।
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