Tuesday, May 11, 2021

आँकड़ों की बाजीगरी और पश्चिमी देशों के मीडिया की भारत के प्रति द्वेष-दृष्टि


भारत पर आई आपदा को लेकर अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों ने मदद भेजी है। करीब 16 साल बाद हमने विदेशी सहायता को स्वीकार किया है। आत्मनिर्भरता से जुड़ी भारतीय मनोकामना के पीछे वह आत्मविश्वास है, जो इक्कीसवीं सदी के भारत की पहचान बन रहा है। इस आत्मविश्वास को लेकर पश्चिमी देशों में एक प्रकार का ईर्ष्या-भाव भी दिखाई पड़ रहा है। खासतौर से कोविड-19 को लेकर पश्चिमी देशों की मीडिया-कवरेज में वह चिढ़ दिखाई पड़ रही है।

पिछले साल जब देश में पहली बार लॉकडाउन हुआ था और उसके बाद यह बात सामने आई कि सीमित साधनों के बावजूद भारत ने कोरोना का सामना मुस्तैदी से किया है, तो दो तरह की बातें कही गईं। एक तो यह कि भारत संक्रमितों की जो संख्या बता रहा है, वह गलत है। दूसरे लॉकडाउन की मदद से संक्रमण कुछ देर के लिए रोक भी लिया, तो लॉकडाउन खुलते ही संक्रमणों की संख्या फिर बढ़ जाएगी।

भारत की चुनौतियाँ

बहुत सी रिपोर्ट शुद्ध अटकलबाजियों पर आधारित थीं, पर अमेरिका की जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी और सेंटर फॉर डिजीज डायनैमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी की ओर से पिछले साल मार्च में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के लिए आने वाला समय चुनौतियों से भरा होगा। रिपोर्ट के अनुसार देश की स्वास्थ्य सुविधाओं में बहुत कमी है। देश में लगभग 10 लाख वेंटीलेटरों की जरूरत पड़ेगी, जबकि उपलब्धता 30 से 50 हजार ही है। अमेरिका में 1.60 लाख वेंटीलेटर भी कम पड़ रहे हैं, जबकि वहां की आबादी भारत से कम है।

यह बात काफी हद तक सही भी थी, पर भारत ने बहुत से पश्चिमी अनुमानों को गलत साबित किया। मसलन पिछले साल जुलाई में मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के शोधकर्ताओं ने दावा किया कि कोरोना वैक्सीन नहीं आई, तो फरवरी 2021 तक भारत में रोजाना तीन लाख तक कोरोना केस आ सकते हैं। यह भी कहा गया कि संक्रमितों की संख्या के मामले में अमेरिका से भी भारत आगे निकल जाएगा।

गलत साबित हुई अटकलें

एमआईटी का यह अनुमान न केवल गलत हुआ, बल्कि फरवरी के महीने में भारत में रोजाना आने वाले केसों की संख्या गिरते-गिरते दस हजार के आसपास आ गई। तीन लाख तो दूर की बात है 16 सितम्बर 2020 को 97,894 के उच्चतम स्तर को छूने के बाद उसमें लगातार गिरावट आई। उस रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने 84 देशों में 4.75 अरब लोगों के विश्वसनीय जांच आंकड़ों के आधार पर एक डायनैमिक एपिडेमियोलॉजिकल मॉडल तैयार किया था।

उनका कहना था कि यह अनुमान जांच की मौजूदा गति, सरकारी नीतियों और आम लोगों का कोविड-19 के प्रति रवैये को ध्यान में रखकर लगाया गया था। इस अध्ययन के अनुसार, 2021 में सर्दियों के अंत तक जिन देशों में दैनिक संक्रमण दर का अनुमान लगाया गया था, उनमें शीर्ष 10 देशों में भारत, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ईरान, इंडोनेशिया, यूके, नाइजीरिया, तुर्की, फ्रांस और जर्मनी शामिल हैं। अध्ययन के मुताबिक, सर्दियों के अंत तक भारत सबसे अधिक प्रभावित देश होगा। ये अनुमान कम से कम भारत के मामले में गलत साबित होने जा रहे थे कि दूसरी लहर ने प्रवेश किया और सफलता की कहानी को विफलता में बदल दिया।

फिर अटकलें

भारत इस मोर्चे पर विफल क्यों हुआ और वर्तमान संकट की भयावहता का स्तर क्या है, इसे लेकर अटकलबाजियाँ फिर शुरू हो गई हैं। इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि सरकार इस संकट का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी। उत्तराखंड की बाढ़ की तरह यह आपदा अचानक आई पर, सरकार को इसका पूर्वानुमान होना चाहिए था। अमेरिका में भी ऐसी ही स्थिति थी, पर वहाँ की जनसंख्या कम है और स्वास्थ्य सुविधाएं हमसे बेहतर हैं, वे झेल गए।

पिछले साल दिसम्बर में देश के सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य को नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश सरकार को दिए थे। अदालत ने कहा, राज्य का कर्तव्य है कि वह सस्ती चिकित्सा की व्यवस्था करे। पीठ ने 26 नवंबर को गुजरात के राजकोट में हुई आग की घटना का स्वतः संज्ञान लेते हुए ये निर्देश दिए थे। उस कोविड अस्पताल के आईसीयू वॉर्ड में हुए अग्निकांड से पाँच मरीजों की मृत्यु हो गई ‌थी।

तुलना अमेरिका से!

हमारे संसाधनों की एक सीमा है। भारत की जनसंख्या 138 करोड़ है, जबकि पूरे यूरोप और अमेरिका की जनसंख्या इसकी आधी यानी करीब 77 करोड़ है। अमेरिका और ईयू की जीडीपी का जोड़ करीब 43 ट्रिलियन डॉलर है और हमारी जीडीपी करीब तीन ट्रिलियन डॉलर की है। कम संसाधन और इतनी बड़ी आबादी। फिर भी कोरोना से होने वाली मृत्युदर भारत में कम है।

तेज आर्थिक विकास के बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च दुनिया के तमाम विकासशील देशों के मुकाबले कम है। इस खर्च में सरकार की हिस्सेदारी और भी कम है। चीन में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय भारत के मुकाबले 5.6 गुना है तो अमेरिका में 125 गुना। औसत भारतीय अपने स्वास्थ्य पर जो खर्च करता है, उसका 62 फीसदी उसे अपनी जेब से देना पड़ता है। एक औसत अमेरिकी को 13.4 फीसदी, ब्रिटिश नागरिक को 10 फीसदी और चीनी नागरिक को 54 फीसदी अपनी जेब से देना होता है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य कवरेज पर योजना आयोग द्वारा गठित उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समूह की सिफारिशों के अनुसार स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को बारहवीं योजना के अंत तक जीडीपी के 2.5 प्रतिशत और 2022 तक कम से कम 3 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहिए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 के अनुसार सन 2025 तक भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का 2.5 फीसदी हो जाएगा। पर सन 2019-20 के केंद्र और राज्यों के बजटों पर नजर डालें, तो यह व्यय जीडीपी के 1.6 फीसदी के आसपास था।

पश्चिमी मीडिया का अभियान

भारत की कोरोना दर और मृत्युदर को लेकर पश्चिमी देशों में एक अभियान इन दिनों चल रहा है, जिसमें कहा जा रहा है कि भारत सरकार संक्रमणों की जो संख्या बता रही है, वह वास्तविक संख्या से कम है। वास्तव में ऐसा सम्भव भी है। इसके दो कारण हैं। एक तो हमारे यहाँ जन्म-मृत्यु के पंजीकरण की व्यवस्था भी बहुत परिपक्व नहीं है। दूसरे पिछले एक महीने से संक्रमणों की ऐसी बाढ़ आई है कि तमाम ऐसे लोग काल के गाल में समा गए, जिनका कोरोना टेस्ट हो ही नहीं पाया। ऐसे में सम्भव है कि यह संख्या एकदम सही नहीं हो, पर अंतर भी है, तो कितना? यहाँ आकर विशेषज्ञों ने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए हैं।

इंस्टीट्यूट फॉर हल्थ मट्रिक्स एंड इवैल्युएशन (आईएचएमई) के नए और ताजा शोध से पता चलता है कि 1 अगस्त, 2021 तक कोविड-19 से भारत में मरने वालों की संख्या 9,59,561 होगी जबकि वैश्विक स्तर पर अनुमानित मौत का आंकड़ा 50,50,464 रहेगा। यानी कि कोविड-19 की वजह से होने वाली कुल मौतों में भारत की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत होगी। आईएचएमई वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एक वैश्विक स्वास्थ्य अनुसंधान केंद्र है। कोविड-19 पर इसके अनुमानों को व्यापक रूप से मजबूत मॉडल के आधार पर स्वीकार किया गया है।

अमेरिकी आँकड़ों में भी खामी

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों के अनुसार 26 अप्रैल तक दुनिया भर में 31,04,743 लोगों की मृत्यु कोविड-19 से हुई है, इनमें 1,95,123 भारतीय थे। सरकारी आँकड़ों के अनुसार गत 5 मई तक भारत में कोविड से मरने वालों की संख्या 2,21,181 थी, पर आईएचएमई के अनुसार यह संख्या इसकी तिगुनी यानी करीब साढ़े छह लाख हो सकती है। पर इस संस्था ने केवल भारतीय आँकड़ों को लेकर ही अपनी बात नहीं कही है। उसके अनुसार अमेरिकी आँकड़ों में भी त्रुटि है। यानी अमेरिका में मरने वालों की आधिकारिक संख्या 5,74,043 से ज्यादा 9,05,289 हो सकती है।

इन निष्कर्षों तक पहुँचने का भी कोई आधार होना चाहिए। मसलन श्मशानों में होने वाले अंतिम संस्कारों का रिकॉर्ड तो दर्ज होता ही है। भले ही उसमें मृत्यु का कारण कोविड दर्ज नहीं हो, पर संख्या में अस्वाभाविक वृद्धि से अनुमान लगाया जा सकता है कि इनमें ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जिनका कोविड टेस्ट नहीं हुआ हो।

बात इतनी ही नहीं है। कुछ ऐसे विशेषज्ञ भी सामने आए हैं, जो इससे कई गुना ज्यादा बड़ी संख्या का दावा कर रहे हैं। संयोग से ऐसे ज्यादातर विशेषज्ञ भारतीय मूल के हैं। इससे संदेह होता है कि संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का कोई सायास प्रयास भी है। दूसरी तरफ श्मशानों में जलती चिताओं की तस्वीरों के प्रकाशन से दुर्भावना भी नजर आने लगी है।  

चिताओं की तस्वीरें

न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने पहले पेज पर दिल्ली में जलती चिताओं की एक विशाल तस्वीर छापी। लंदन के गार्डियन ने लिखा, द सिस्टम हैज़ कोलैप्स्ड। लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर मोदी-सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे ऑस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा और उस खबर को ट्विटर पर बेहद कड़वी भाषा के साथ शेयर किया गया। ज्यादातर रिपोर्टों में समस्या की गम्भीरता और उससे बाहर निकलने के रास्तों पर विमर्श कम, भयावहता की तस्वीर और नरेंद्र मोदी पर निशाना ज्यादा है।

पाञ्चजन्य में प्रकाशित

 

 

 


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