
चूंकि इन्हें खेल चैनल दिखाते हैं, इसलिए ये खेल हैं। इन रेसों को अंतरराष्ट्रीय ऑटोमोबाइल फेडरेशन से मान्यता प्राप्त है। यह संस्था सन 1904 में बन गई थी और यह अव्यावसायिक है। जैसे कि सामान्य खेल होते हैं। पर एफ-1 रेस खेल से ज्यादा कारोबार है। इन्हें संचालित करने वाली संस्था बर्नी एकलस्टोन के पारिवारिक ट्रस्ट की सम्पत्ति है। अरबों डॉलर के मुनाफे का यह कारोबार है। 28 जून 2000 को जेनेवा में हुई एक बैठक में अंतरराष्ट्रीय ऑटोमोबाइल फेडरेशन की विशेष बैठक में सत्तर देशों के प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करके 31 दिसम्बर 2110 तक (यानी एक सौ साल से ज्यादा समय) तक के लिए इसके समस्त व्यावसायिक अधिकार फॉर्मूला वर्ल्ड चैम्पियनशिप लिमिटेड को सौंप दिए। परोक्ष रूप में ये अधिकार बर्नार्ड (बर्नी) चार्ल्स एकलस्टोन के पास हैं। उसके बाद दुनिया भर में कम्पनियों की श्रृंखला है। इनके साथ जुड़े तमाम विवाद हैं।
यह रोमांचक खेल है, इसे लोग पसंद करते हैं तो इसके भारत में आने पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर भारत के लोग इसे पसंद करते हैं, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है। यह खेल भारतीय जनता की माँग पर नहीं आ रहा है बल्कि कारोबार की बेहतर सम्भावनाओं को देखते हुए आ रहा है। हाँ आधुनिक होने की भेड़चाल में लोग इसके भी दीवाने बन जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। अलबत्ता इस खेल के साथ जुड़ा पैसा इसे लोकप्रिय बनाने की कोशिश ज़रूर करेगा। हाल की मीडिया कवरेज को देखें तो बात समझ में आ जाती है। अंग्रेजी अखबारों से आगे निकल कर हिन्दी अखबार इसकी कवरेज में जुटे हैं। इससे क्या बात समझ में नहीं आती कि मीडिया का अपने पाठक या दर्शक से कोई लेना-देना नहीं है? आपने इस खेल की ऐसी कवरेज अमेरिकी अखबारों में नहीं देखी होगी। जबकि वहाँ साल भर में ऐसी अनेक रेस होती हैं। खेल की व्यावसायिकता को देखें तो हमारे देश में क्रिकेट सबसे बड़ा उदाहरण है। पर एफ-1 के सामने क्रिकेट भी गरीब खेल है। बहरहाल पिछले कुछ दिन से दिल्ली-एनसीआर में पार्टियों की धूम है, जिनमें दुनिया भर के स्टार आ रहे हैं।
कुछ लोग इसे तरक्की के साथ जोड़ते हैं। और कुछ लोग इस मौके पर अपनी गरीबी याद दिला रहे हैं। फोर्स इंडिया के मालिकों में से एक विजय माल्या का कहना है कि दुनिया भर में अमीर और गरीब हैं। हमारे यहाँ भी हैं। गरीबी दूर करने की कोशिशें होनी चाहिए, पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम दूसरे ममलों में पिछड़ जाएं। भारत एक ग्लोबल देश है और हमारे पास ग्लोबल सुविधाएं होनी चाहिए। भारत प्रगतिशील देश है। उसे और आगे बढ़ना चाहिए तथा इस तरह के ग्लोबल कार्यक्रम अपने यहाँ आयोजित करने चाहिए। हमसे पहले चीन में 2004 से ये रेस चल रही हैं। अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों के अलावा मलेशिया, द कोरिया, सिंगापुर, ब्राजील जैसे देशों में भी एफ-1 रेस होती हैं। पर यह शुद्ध कारोबार है, जिसका महत्व आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने में निहित है। अभी कई तरह के मनोरंजन कार्यक्रम हमारे यहाँ शुरू होंगे। देखना यह है कि खेल, मनोरंजन और सामाजिक जीवन में किस तरह का संतुलन हमारे यहाँ है। और इस तरह की गतिविधियाँ क्या हमारी प्राथमिकताओं के अनुरूप हैं।
यह खेल गतिविधि जरूर है, पर इसके उद्घाटन समारोह में देश के खेल मंत्री को बुलाया नहीं गया। यह खेल सरकार की मदद से नहीं चलता। इसलिए खेलमंत्री की वहाँ ज़रूरत नहीं थी। पर संकेत इस बात के हैं कि आयोजकों को सरकार से टैक्स छूट की उम्मीद थी जो नहीं मिली। खेलमंत्री अजय माकन ने ऐसा तो नहीं कहा, पर उनकी खिन्नता भी छिपी नहीं रही। कालीकट में पीटी उषा अकादमी के सिंथैटिक ट्रैक के शिलान्यास समारोह में गए अजय माकन ने कहा कि इस समारोह में मुझे इसलिए नहीं बुलाया गया क्योंकि मैं चियर गर्ल नहीं हूँ। अजय माकन ने क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था बीसीसीआई से भी पंगा ले रखा है। बीसीसीआई शुद्ध निजी कम्पनी की तरह काम करती है और वह सरकारी कायदों में बँधना नहीं चाहती। बावजूद इसके कि वह राष्ट्रीय टीम तैयार करती है। जहाँ राष्ट्रीय प्रतिष्ठा जुड़ी हो वहाँ नियमन सरकार ही कर सकती है। सामान्य धारणा है कि खेलों के आयोजन में सरकारी दखलंदाज़ी नहीं होनी चाहिए। पर खेल संगठनों को मर्यादा के भीतर रखने की ज़रूरत भी तो होगी।
फॉर्मूला-1 का खेल तत्व जनता को तय करना है। पर व्यावसायिक तत्व देश के कानूनों की परिधि में रहेगा। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक निहितार्थ भी हैं। गति के इस खेल में स्त्रियों को कमतर माना जाता है। इसी कारण एक या दो स्त्रियों के अलावा यहाँ किसी को सफलता नहीं मिली। ग्रेटर नोएडा के रेसिंग सर्किट का नाम गौतम बुद्ध सर्किट है। गौतम बुद्ध के विचार आज की उपभोक्तावादी संस्कृति से मेल नहीं खाते। रेस के मूल में यही रंगीन संस्कृति बैठी है। यह विडंबना है। और विडंबनाएं आज का यथार्थ हैं। अकबर इलाहाबादी का शेर याद आता है- चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती, अखबार में जो चाहिए वह छाप दीजिए ।
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित
आपके विचारों से सहमत हूँ सर!
ReplyDeleteकल 01/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
ek sateek aalekh bahut pasand aaya.
ReplyDeleteबहुत हि सार्थक लेख आपके विचारों से सहमत हूँ!
ReplyDeleteप्रचार पाने के लालायित समाचार पत्र को कोई अधिकार नही है इन्हें आम लोगों से जोड़ने का... मीडिया अपने धर्म से विरत हो रहा है|