Monday, November 14, 2011

कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
अन्ना आंदोलन शुरू होने के पहले करीब 42 साल से लोकपाल का मसला देश की जानकारी में था। पर उसे लेकर कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ। अन्ना हजारे का पहला अनशन शुरू होते वक्त कोई किसी कोर कमेटी वगैरह की बात नहीं करता था। पहले से दूसरे अनशन के बीच जनांदोलनों से जुड़े तमाम लोग इस आंदोलन से जुड़े। मेधा पाटकर समर्थन में आईं तो अरुंधति रॉय विरोध में। इस बीच अन्ना टीम के सदस्यों के अंतर्विरोध भी सामने आए। कीचड़ भी उछला। शांति भूषण को लेकर एक सीडी वितरित हुई। उस सीडी की कानूनी परिणति क्या हुई मालूम नहीं, पर वह मामला भुला दिया गया। जैसे-जैसे आंदोलन भड़का अन्ना टीम के सदस्यों को लेकर विवाद खड़े होते गए। प्रशांत भूषण के कश्मीर-वक्तव्य पर विवाद, अन्ना पर मनीष तिवारी के आरोप, स्वामी अग्निवेश की सीडी, अरविन्द केजरीवाल को इनकम टैक्स विभाग का नोटिस, किरण बेदी के हवाई यात्रा टिकटों का विवाद, राजेन्द्र सिंह और पी राजगोपाल की आंदोलन से अलहदगी, कोर कमेटी में फेर-बदल का विवाद, ब्लॉग लेखक का विवाद वगैरह-वगैरह। जैसे-जैसे आंदोलन भड़का वैसे-वैसे अन्ना आंदोलन के अंतर्विरोध भी सामने आए। कुछ खुद-ब-खुद आए और कुछ भड़काए गए। आग में हाथ डालने पर झुलसन क्यों नहीं होगी?


इन विवादों से क्या अन्ना आंदोलन की सार्थकता खत्म हो गई? यह आंदोलन क्या पच्चीस-तीस लोगों की कोर कमेटी और अन्ना हजारे तक सीमित था? क्या किरण बेदी या अरविन्द केजरीवाल के कृतित्व में सेंध लगने से मूल प्रश्न गौण हो गया? सबसे बड़ी बात यह कि जनता इस आंदोलन के साथ है या नहीं? जो लोग इस आंदोलन के सहारे देश की सारी समस्याओं के समाधान देख रहे हैं, उन्हें शायद इन बातों से धक्का लगे। और जो इस आंदोलन को सवर्ण, मध्यवर्गीय, शहरी, साम्प्रदायिक, संघी वगैरह के रूप में देख रहे थे उन्हें आनन्द आएगा। इस हर्ष या विषाद से ज्यादा महत्वपूर्ण यह समझना है कि यह आंदोलन महत्वपूर्ण क्यों था या क्यों है।

अन्ना हजारे का नाम इस आंदोलन से जुड़े हुए कोई आठ या नौ महीने हुए हैं। इसे अन्ना के बजाय कोई और शुरू करता तो उसे भी जनता का समर्थन मिलता। अन्ना का नाम महाराष्ट्र के आंदोलनों से जुड़ा रहा है, इसलिए जनता को पहचानने में आसानी हुई। पर जनता अन्ना के नाम पर नहीं आंदोलन की ज़रूरत के नाम पर जुटी थी। या अभी तक जुटी है। आंदोलन को उसके अंतर्विरोधों के साथ देखना चाहिए। इसे राजनीतिक चश्मे से देखेंगे तो हम या तो इसके कट्टर समर्थक होंगे या धुर विरोधी। आम नागरिक इन बातों को इस तरह नहीं देखता। वह अपेक्षाकृत संतुलित दृष्टिकोण अपनाता है या अपनाना चाहता है। दृष्टिकोण जितना संतुलित होगा, उसकी मुखरता उतनी कम होगी। संतुलित बात में संतुलित शब्दों की भूमिका होती है।

नए केन्द्रीय विजिलेंस कमिश्नर प्रदीप कुमार ने पिछले महीने मोरक्को में हुए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में कहा कि अन्ना-आंदोलन ने देश में दूरगामी भ्रष्टाचार विरोधी कार्यक्रमों की ओर सरकार को प्रवृत्त किया। उन्होंने ‘अरब-स्प्रिंग’ से लेकर ‘ऑक्यूपेशन वॉल स्ट्रीट’ तक को इस आंदोलन से जोड़ा। मूलतः यह जनता की नाराज़गी का आंदोलन है। इस नाराज़गी के वैश्विक संदर्भ हैं या नहीं, अभी कहना मुश्किल है। पर पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोध इसने उजागर किए हैं। भारत के प्रशासनिक सुधार विभाग ने हाल में प्रस्तावित शिकायत निवारण विधेयक का प्रारूप अपनी वैबसाइट पर डाला है। इस कानून को लागू करने के पहले इसके निहितार्थ पर अच्छी तरह से बहस होनी चाहिए। पर लगता है हम बहस करना नहीं चाहते।

माना जा रहा है कि संसद का शीत कालीन सत्र नए कानूनों का सत्र होगा। हमने संसद को अभी तक हंगामे और शोर-गुल के कारण ही याद किया है। यदि संस्कृति बहस-मुबाहिसे और तार्किक-विमर्श की होगी तो हमारे जीवन में भी गुणात्मक बदलाव होगा। ज्युडीशियल स्टैंडर्ड्स एंड एकाउंटेबिलिटी विधेयक पर स्थायी समिति की रपट भी संसद को मिल गई है। उसपर भी चर्चा होगी। ह्विसिल-ब्लोवर कानून पर भी बात होनी है। लोकपाल विधेयक पर तो सारे देश की निगाहें हैं। इनसे क्या निकल कर आता है यह दीगर बात है पर पिछले आठ महीने की जद्दो-जेहद के बाद देश के वैचारिक क्षितिज पर विमर्श के बादल घुमड़ते दिखाई पड़ रहे हैं।

अन्ना की टीम का क्या होगा और अन्ना का क्या होगा, इसपर ज़रूर ध्यान दें, पर महत्वपूर्ण है इन सवालों पर राष्ट्रीय सहमति का बनना। लोकपाल कानून देश की सारी समस्याओं का इलाज़ बेशक नहीं है, पर व्यवस्था के सुधार की दिशा में पहला बड़ा कदम ज़रूर है। इस बात को हम चालीस साल से जानते हैं। कुछ वामपंथी मित्रों के बीच इस बात पर विचार-युद्ध छिड़ा था कि इस कानून के लिए दबाव बनाने वाले आंदोलन का स्वरूप प्रगतिशील है या नहीं। इसमें जल,जंगल और जमीन के मसले शामिल हैं या नहीं। जन-आंदोलन है तो उसे प्रगतिशील बनाने में देर नहीं लगनी चाहिए। लोहा जब गर्म हो चोट तभी काम करती है। इसी दौरान कॉरपोरेट मीडिया, कॉरपोरेट मामलों और एनजीओ की जिम्मेदारी को लेकर भी बहस शुरू हो गई है। अन्ना आंदोलन चले या परास्त हो, ये विषय खत्म होने वाले नहीं हैं।

इस आंदोलन के व्यापक राजनीतिक निहितार्थ हैं। चुनाव हराने या जिताने में इन बातों का असर पड़ेगा। इसीलिए इसे महत्व दिया जा रहा है और शायद इसीलिए तेजी से कानूनी बदलाव की प्रक्रिया शुरू हुई है। पिछले साल इन दिनों हम टू-जी के शुरूआती दौर में थे। और सदमे में थे। अब हम समाधान की राह में हैं। मानो तो यह भी उपलब्धि है। न मानो तो यह व्यवस्था सुधरने वाली नहीं। आप क्या कहते हैं? अकबर इलाहाबादी कहते हैः-

थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए/ कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा 

6 comments:

  1. अन्ना का एक सार्थक पहलू यह लगता है कि कम से कम भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक चर्चा देश में शुरू हुई... यद्यपि इसके लिए बाबा रामदेव पहले से ही प्रयासरत थे... अन्ना का सेक्युलर होने का दिखावा करना कहीं न कहीं संशय उत्पन्न करता है.

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  2. Important is that peoples are still hopeful in this crucial hopeless environment.

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  3. आधे से ज्यादा लोग अन्न के प्रशांशक शायद इसलिए ही हैं क्यूंकि भले ही उन्होने कुछ लोग की नज़र मे कुछ ना भी किया हो मगर उनका सार्थक पहलू यह लगता है कि कम से कम भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक चर्चा देश में शुरू हुई. जो आम आगमी की आवाज बन गई सालों बाद ही सही लोगों के अंदर कुछ कर गुजरने का जोश तो जागा....

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  4. बेहतरीन प्रस्तुति। बहुत विस्‍तार से समझाया है आपने।
    शानदार अभिव्यक्ति, केन्द्र हो या राज्य हर जगह यही हाल है

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  5. Anonymous1:02 PM

    aam jan anna aandolan se isliye juDaa kyonki vah apanaa gussa aur niraashaa vyakt karne ka koyee manch DhooD rahaa thaa.
    jahaan tak sansad ke sheet satr kee baat hai to mujhe to koyee bhee saarthak pariNaam nikalate nazar naheen aate - Rajat

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  6. आशाएं हमें ज़िन्दा रखतीं हैं, और हम आशाओं को,
    आइये हम दुआ करें कि कुछ तो हो भ्रष्टाचार के मामले में, अगर न हो तो फिर हम भी खांस लेंगे जी भर के!

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