Monday, January 2, 2012

अंधेर नगरी का लोकतंत्र

नए साल का पहला दिन आराम का दिन था। आज काम का दिन है। हर नया साल चुनौतियों का साल होता है। पर हर साल की चुनौतियाँ गुणधर्म और प्रकृति में अनोखी होती हैं। हर दिन और हर क्षण पहले से फर्क होता है। पर जब हम समय का दायरा बढ़ाते हैं तो उन दायरों की प्रकृति भी परिभाषित होती है। पिछला साल दुनियाभर में स्वतः स्फूर्त जनांदोलनों का साल था। भारत में उतने बड़े आंदोलन नहीं हुए, जितने पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप के देशों में हुए। संकट खत्म नहीं हुआ है, बल्कि और गहरा रहा है। इसके घेरे में अमेरिका भी है, जहाँ इस साल बराक ओबामा को राष्ट्रपति पद के चुनाव में फिर से उतरना है। ओबामा अमेरिका में नई आशा की किरण लेकर आए थे। पर यह उम्मीद जल्द टूट गई। यह साल उम्मीदों की परीक्षाओं का साल है। आर्थिक दृष्टि से भारत, चीन और कुछ अन्य विकासशील देश इस संकट से बाहर हैं। इन देशों में राजनीतिक बदलाव की आहटें हैं। इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक दुनिया के लिए नई परिभाषाएं गढ़ने वाला है। हमारे लिए भी इसमें कुछ संदेश हैं।


पिछले साल के आखिरी दिनों में हमारी संसद कुछ महत्वपूर्ण कानूनों को पास करने की प्रक्रिया में थी। इस प्रक्रिया को संकीर्ण पार्टीबाज़ी के नज़रिए से देखें तो निष्कर्ष निकलेगा कि हम छोटे फायदों के लिए राष्ट्र-निर्माण के लम्बे रास्ते से भटक गए हैं। लोकपाल बिल के बहाने हमारी संसदीय राजनीति और राष्ट्रीय विमर्श की पद्धति भी रोशनी में आई। 29 दिसम्बर की रात राज्यसभा में इस विधेयक पर 187 संशोधनों का पेश होना एक ओर तो हमारी संसदीय सक्रियता को साबित करता है वहीं यह भी बताता है कि बजाय रास्ते निकालने के असमंजस को बढ़ाने की कोशिशें ज्यादा सफल होती हैं। कुछ दिन पहले तक हम जोर देकर कह रहे थे कि कानून सड़क पर नहीं संसद में बनेंगे। संसद में मामला है तो वहीं सब कुछ तय होगा।

वास्तव में लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा को बनाए रखना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। ये संस्थाएं राष्ट्रीय-निर्माण की वाहक हैं। इन संस्थाओं के संचालन की कुछ बुनियादी ज़रूरतें हैं। लोकपाल कानून को लेकर चली पूरी बहस के दौरान यह बात बार-बार कही गई कि इसके बन जाने मात्र से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो जाएगा। केवल कानून बनने से सामाजिक बदलाव नहीं होता। हमारे पास दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। शायद संविधान संशोधनों का रिकॉर्ड भी हमारे नाम ही है। इसके मुकाबले अमेरिकी संविधान काफी छोटा है। इंग्लैंड में लिखित संविधान है ही नहीं। पर वहाँ की व्यवस्थाएं हमारी व्यवस्था से बेहतर चल रहीं हैं। एक सामान्य अमेरिकी नागरिक कानूनों के पालन को लेकर जितना सतर्क रहता है उतना सतर्क हमारा नागरिक नहीं है। वह दिन भर कानूनों का खुला उल्लंघन देखता रहता है। यह उल्लंघन सरकारी मशीनरी की ओर से होता है। इस सरकारी मशीनरी में आप पैबंद पर पैबंद लगाते जाएं। वह बुनियादी तौर पर वहीं रहेगी। बहरहाल राष्ट्र-निर्माण के प्रश्नों को संकीर्णताओं से बाहर निकालने की पहली ज़रूरत है।

मतलब क्या यह कि हम अकुशल हैं और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अनुपयुक्त? सामंती व्यवस्था ही सही है? इस सवाल का जवाब देने के पहले पूछा यह जाना चाहिए कि क्या हम व्यवस्था चला रहे हैं? हमारी आबादी के कितने प्रतिशत लोग इस बहस में या दूसरे शब्दों में पूछें तो व्यवस्था को चलाने में शामिल हैं? और जब तक लोग इसमें शामिल नहीं है उन्हें अनुपयुक्त क्यों कहें? और इस व्यवस्था को उनकी क्यों कहें? पर इतना पूछा जाना चाहिए कि वे लोग इसमें शामिल क्यों नहीं हैं? इसका एक जवाब हमारी हजारों साल पुरानी सामाजिक-व्यवस्था में है। और दूसरा 64 साल पुरानी राजनीतिक व्यवस्था में। इन दोनों व्यवस्थाओं ने इन लोगों को हाशिए पर ही रखा। पुरानी व्यवस्था ने उन्हें खेत-मजदूर बनाया तो नई व्यवस्था ने उन्हें वोट मशीन का बटन दबाने वाला दास। पर आधुनिक व्यवस्था उसे सिद्धांततः बराबरी का दर्जा देती है। राजनीति,शिक्षा और अर्थ-व्यवस्था इस अर्थ में पूरी तरह आधुनिक नहीं है। है भी तो सिर्फ ढाँचे में, व्यावहारिक क्रिया-कलाप में नहीं। ज़रूरत है तेज गति से बदलने की। क्या हम ऐसा कर पाएंगे?

इस सवाल का जवाब हमें हर रोज अपने आस-पास मिलेगा। नए साल की पूर्व संध्या पर देश के शहरों में होने वाले समारोहों में इसका जवाब मिलता है। विकास की गतिविधियों को बढ़ाने के लिए हमें कुशल लोगों की ज़रूरत होती है। इस नव-शिक्षित और कुशल वर्ग के पास पैसा आता है तो वह क्या करता है? अक्सर सवाल होता है कि हमारे मीडिया में गरीब जनता के सवाल क्यों नहीं होते। यह सवाल इसी मध्य वर्ग के ही कुछ लोग उठाते हैं। उनकी संख्या छोटी है। हमारे जागरूक मध्यवर्ग पर जिम्मेदारी है कि वह इस सवाल को उठाए। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान आजादी से ज्यादा बड़ा सवाल यही था कि आज़ादी पाने के बाद क्या। इस आज़ादी का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक यह बेबस-बेसहारा लोगों की परेशानियों को दूर करने के काबिल न हो।

यह बौनेपन का दौर है। समाज का प्रभावशाली वर्ग स्वार्थ-साधना में लिप्त है। संजीदगी और समझदारी पर मस्ती और मनोरंजन हावी हैं। मस्ती पाप नहीं है और न मनोरंजन में कोई दोष है, पर देश-काल को देखते हुए इसे सामाजिक आनन्द और आह्लाद कैसे मान लें? व्यवस्था पर तार्किकता, बौद्धिकता-विरोध (एंटी इंटलेक्च्युअलिज्म) हावी है। मीडिया में पसरता छिछलापन इसका प्रमाण है। ज्ञान और विचार की ताकत पश्चिमी आर्थिक क्रांति का मूलाधार थी। हमारी आर्थिक क्रांति हवा में नहीं होगी। उसके लिए जरूरी है सबकी भागीदारी और वैचारिक समझदारी। उम्मीद है नया साल हमें इन दोनों रास्तों पर ले जाएगा। जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित


1 comment:

  1. आपको और परिवारजनों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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