सैंकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।
हर साल पन्द्रह अगस्त
की तारीख हमें घर में आराम करने और पतंगें उड़ाने का मौका देती है। तमाम छुट्टियों
की सूची में यह भी एक तारीख है। सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, सार्वजनिक संस्थाओं में औपचारिक
ध्वजारोहणों के साथ मिष्ठान्न वितरण की व्यवस्था भी होती है। 26 जनवरी और पन्द्रह अगस्त
साल के दो दिन हमने राष्ट्र प्रेम के नाम सुरक्षित कर दिए हैं। तीसरा राष्ट्रीय पर्व
2 अक्टूबर है। एक अलग किस्म की औपचारिकता का दिन। एक बड़ा तबका नहीं जानता कि देश की
उसके जीवन में क्या भूमिका है। और देशप्रेम से उसे क्या मिलेगा? करोड़ों अनपढ़ों और गैर-जानकारों की बात छोड़िए। पढ़े-लिखों के दिमाग साफ नहीं हैं।
आप किसी से भी बात करें
तो वह सरकार, व्यवस्था और सिस्टम को कोसता नज़र आएगा। उसकी बात एक हद तक सही है, पर
यह लोकतांत्रिक व्यवस्था है। यदि खराब है तो हमारी अनुमति से ही है। सरकारी व्यवस्था
के दोषों पर हम सालहों-साल चर्चा करते हैं। क्यों न हम आज नागरिक के रूप में अपने बारे
में विचार करें। आपको दिल्ली मेट्रो के राजीव चौक स्टेशन पर जाने का मौका मिले तो देखें
कि किस तरह से लोग ट्रेन में चढ़ते और उतरते हैं। अराजक भीड़ में शामिल ज्यादातर लोग
पढ़े लिखे हैं। वे अगर ठीक से लाइन में लगे रहें और आने-जाने वालों की लाइनें एक-दूसरे
के समानांतर चलती रहें तो सारा काम आसानी से हो जाए।
अमेरिका में 9/11 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले का विवरण देने वाले नागरिकों
ने बताया कि लिफ्टें बंद थीं। सिर्फ सीढ़ियों के रास्ते भागा जा सकता था। हर मंजिल
से लोग उतर रहे थे, पर सीढ़ीं में एक कतार नीचे से ऊपर जाने वाले फायर ब्रिगेड और अन्य
राहतकर्मियों की थी। दोनों तरफ की कतारें धीरज के साथ आगे बढ़ रहीं थीं। कहीं भगदड़
नहीं थी। पिछले दिनों जापान में आए भूकम्प से भयानक तबाही हुई, पर आपने अराजकता की
खबरें नहीं सुनी होंगी। जापानी समाज के हर सदस्य को इस बात की ट्रेनिंग बचपन से दी
जाती है कि भूकम्प आने पर क्या करें।
चौराहों पर रेड लाइट
का सम्मान करना हमारे देश के नागरिक अपमानजनक समझते हैं, पर कुछ लोग चालान होने के
डर से रुक जाते हैं। पर जब बिजली चली जाती है तब चारों दिशाओं का ट्रैफिक हड़बड़ाता
हुआ उसपार जाने को व्याकुल हो जाता है। ऐसी परिस्थिति जब अमेरिका में आती है तब जानते
हैं वहाँ क्या होता है? चारों दिशाओं का ट्रैफिक अपनी जगह रुक जाता है।
फिर एक गाड़ी एक दिशा से आगे बढ़ती है। उसके बाद दूसरी दिशा से दूसरी गाड़ी बढ़ती है।
फिर तीसरी और फिर चौथी। ऐसा क्यों होता है? हम ऐसा क्यों करते हैं और वे
ऐसा क्यों नहीं करते? अरुण शौरी में अपने एक लेख में अपने एक अमेरिकी
मित्र के साथ एक हाइवे की यात्रा का जिक्र किया है। रास्ते में कई जगह लाल बत्ती मिलती
थी। मित्र गाड़ी रोक देते थे, भले ही दूसरी दिशा से कोई गाड़ी नहीं आ रही थी। अनुशासन
उनके जीवन का अंग है। उन्हें बचपन से इसकी शिक्षा मिली है।
हम हिन्दी, अंग्रेजी,
गणित, इतिहास, भूगोल, फिजिक्स और केमिस्ट्री पढ़ते हैं। नागरिकता के बारे में कहीं
भी कुछ भी नहीं पढ़ते। क्या नागरिकता की शिक्षा दी जा सकती है? हमने बचपन में नागरिक शास्त्र पढ़ा है। पर वह शिक्षा एक सीमा तक देश की संवैधानिक
और प्रशासनिक जानकारी देने भर तक की शिक्षा है। उसमें हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों
के बारे में कुछ नहीं बताया जाता। नागरिक के रूप में व्यावहारिक ज्ञान देने का काम
कोई नहीं करता। हमें सिर्फ अपेक्षाएं हैं।
अच्छा नागरिक बनाने की
जानकारी कौन देगा? पहला काम शिक्षा व्यवस्था का है। हम आसानी से अपने
स्कूलों में बच्चों को व्यावहारिक जीवन और राष्ट्रीय लक्ष्यों की जानकारी दे सकते हैं।
दुर्भाग्य है कि साम्प्रदायिकता, जातिवाद, आर्थिक गैरबराबरी की भावना, गलाकाट प्रतियोगिता
हमारी शिक्षा व्यवस्था में इस तरह घुस गए हैं कि इन शिक्षा मंदिरों से एक बच्चा भ्रष्टाचारी,
बेईमान, चापलूस, गिरोहबाज़ वगैरह बनने की शिक्षा लेकर बाहर आता है। घर में माता-पिता
भी इस बात को ज़रूरी नहीं समझते।
हमारा सामुदायिक जीवन
क्या है? सोशल नेटवर्किंग में हम काफी आगे चले गए हैं। पर सारी नेटवर्किंग
अपने व्यावसायिक हितों और स्वार्थों के लिए है। शाम को दारू पार्टी पर बैठने और गॉसिप
करने को हम सोशल होना मानते हैं। जो इसमें शामिल नहीं है, वह अन-सोशल है। पर दरअसल
सोशल होना व्यावहारिक रूप में ऊपर चढ़ने की सीढ़ियाँ तलाशना है। सामाजिक जीवन की गुत्थियों
को सुलझाना या सामूहिक एक्शन के बारे में सोचना सोशल नेटवर्किंग का अंग नहीं है। लोग
चाहें तो अपने घरों के आसापास की तमाम खराबियों को आपसी सहयोग से दूर कर सकते हैं।
पर लोग ऐसा क्यों नहीं करते?
हम वैचारिक कर्म से भागते
हैं। उसे भारी काम मानते हैं। मामूली सी बात को भी समझना नहीं चाहते। रास-रंग हम पर
हावी हो गया है। आपने गौर किया होगा नई कॉलोनियों की योजनाओं में जीवन की सारी चीजें
मुहैया कराने का वादा होता है। मॉल होते हैं, मेट्रो होती है, ब्यूटी सैलून, जिम और
स्पा होते हैं। मल्टी प्लेक्स, वॉटर स्पोर्ट्स होते हैं। जमीन पर अवैध रूप से कब्जा
करके चार-छह धर्म स्थल भी खड़े कर दिए जाते हैं। कोई उन धर्म स्थलों का बहिष्कार यह
कहकर नहीं करता कि यह खुली चोरी है। बहरहाल इस योजना में लाइब्रेरी की कोई अवधारणा
नहीं होती। ऐसे सामुदायिक केन्द्र की कल्पना नहीं होती, जो पब्लिक स्फीयर का केन्द्र
बने। छोटा सा ऑडीटोरियम। पढ़ने, विचार करने, सोचने और उसे अपने एक्शन में उतारने को
कोई बढ़ावा नहीं। तेल-फुलेल लगाकर नशे में झूमने वाले कॉस्मेटिक्स समाज को अपनी भ्रष्ट
राजव्यवस्था के बारे में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं।
प्रमोद जी,
ReplyDeleteसभ्य व्यवहार स्कूलों में सिखाया ज़रूर जा सकता है, पर उसकी परीक्षा में उतीर्ण होकर कोई कुछ भी हासिल नहीं कर सकता.
क्यों न हम यह लाजिमी कर दें कि हर ज़रूरी सरकारी दस्तावेज पाने के पहले, आवेदक को एक छोटी सी, दस मिनट की, कंप्यूटर-कृत परीक्षा देनी पड़ेगी, जिसमे साधारण से सवाल पूछे जायेंगे.
जैसे: रस्ते के किनारे, जन शौचालय की दीवार पर, शौच करना-
क) अच्छा है
ख)बुरा है
ग) पता नहीं
घ) जब बुलाहट आवत, तो कहीं भी जावत
स्वतंत्रता दिवस आप को भी मुबारक हो!
zindagi ka sach h or haqikat bhi k hum priveleged class mai shamil hona chahte h or un sab pareshani se bhagna chahte jo aadami ko hila deti h lekin kuch badalne ka dum hum nhi bhar sakte........aadikaro ki ladaii mai hum bina bulaye shamil ho jate h lekin jab baat zimmedari ki hoti h, to mat puchiye apani nagrikta par sawal khade kar dete h...
ReplyDeleteदेसी बाबू,
ReplyDeleteइन सवालों के जवाब लोग सही ही देंगे |
हमरी शिक्षा व्यवस्था ने हमें टेस्ट पास करना ही सिखाया है,
पर सही चीज़ों को अमल में लाना नहीं |
ये अनुशासन समाज के स्तर पर ही आ सकता है |
बच्चे जब बड़ों को नियम तोड़ते देखते हैं, तो उन्हें ये ट्रेनिंग
बचपन से ही मिल जाती है |