पिछले साल जनवरी के इन्हीं दिनों में ट्यूनीशिया से जनतांत्रिक विरोध की एक लहर उठी थी, जिसने पूरे पश्चिम एशिया और बाद में यूरोप और अमेरिका को हिलाकर रख दिया था। सोशल मीडिया के सहारे उठीं बगावत की वे लहरें अब भी चल रहीं हैं। पर पिछले हफ्ते इस क्रांति का एक और रूप देखने को मिला। पिछले बुधवार को दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन एनसाइक्लोपीडिया विकीपीडिया ने अपनी सेवाओं को एक दिन के लिए ब्लैकआउट कर दिया। गूगल ने अपनी साइट पर एक ऑनलाइन पिटीशन जारी की जिसका 70 लाख से ज्यादा लोगों ने समर्थन किया। इलेक्ट्रॉनिक फ्रंटियर फाउंडेशन की पिटीशन को 10 लाख से ज्यादा लोगों का समर्थन मिला। सायबर संसार में विचरण करने वालों ने इंटरनेट पर जो बगावत देखी उसकी तुलना किसी और कार्य से नहीं की जा सकती।
दुनिया में अपने किस्म का यह सबसे बड़ा लोकतांत्रिक विरोध था, जो इंटरनेट पर ही सम्भव था। इस विरोध के आगे अमेरिकी संसद को झुकना पड़ा। संसद ने इंटरनेट से जुड़े दो कानूनों को पास करने का काम अनंत काल के लिए टाल दिया। अमेरिका के राष्ट्रपति को वक्तव्य जारी करना पड़ा कि हम किसी भी ऐसे कानून का समर्थन नहीं करेंगे जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाता हो। इन कानूनों के निहितार्थ और उनकी प्रासंगिकता पर किसी किस्म की बहस होने से पहले ऐसे प्रबल विरोधी स्वरों से पता लगता है कि सायबर संसार से जुड़े लोग अब अपने को पूरे विश्व का नागरिक मानते हैं। अमेरिका में ऑक्यूपेशन आंदोलन के बाद एक नया नारा उभरा है ’वी आर ऑल अमेरिकंस नाव।’
पिछले हफ्ते अमेरिकी प्रतिनिधि सदन और सीनेट इंटरनेट पायरेसी में शामिल गैर-अमेरिकी कम्पनियों पर कार्रवाई करने के लिए स्टॉप ऑनलाइन पायरेसी एक्ट (सोपा) और प्रोटेक्ट इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी एक्ट(पीपा) पर वोट करने जा रहीं थीं। वस्तुतः अमेरिका के सिनेमा और संगीत उद्योग का दबाव था कि बाहर के देशों से संचालित हो रही वैबसाइट गैर-कानूनी तरीके से फिल्मों और संगीत को अपलोड और डाउनलोड करा रहीं हैं। इससे अमेरिकी फिल्म उद्योग को करीब 50 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसके अलावा फर्जी तरीके से माल बेचने वाली कम्पनियों पर कार्रवाई करने की व्यवस्था इन कानूनों में की जा रही थी। क्रेडिट कार्डों वगैरह के माध्यम से पैसे का लेन-देन करने वाली कम्पनियों पेपॉल और वीज़ा वगैरह के नियमन का इंतजाम भी इन कानूनों में है। इन कानूनों के निहितार्थ पर शायद अच्छी तरह विचार नहीं किया गया। इनका असर केवल व्यावसायिक नहीं था। बल्कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इसका सीधे प्रभाव पड़ता। पिछले साल के भंडाफोड़ों के बाद अमेरिका सरकार ने पेपॉल वगैरह को दबाव में लेकर विकीलीक्स के सामने आर्थिक संकट पैदा कर दिया था।
ऑनलाइन संचार दुनिया भर में विचार का विषय है। बेशक इसके मार्फत धोखाधड़ी और हेरफेर के मामले भी सामने आ रहे हैं, पर किसी भी एक कार्रवाई का प्रभाव कितना दूरगामी होगा, इसे देखने की ज़रूरत भी है। प्रस्तावित कानूनों का समर्थन अमेरिका की तमाम कम्पनियाँ कर रहीं हैं तो याहू, गूगल, ट्विटर, मोज़ीला, एबे, ज़िंग, लिंक्डइन और अमेरिकन ऑनलाइन विरोध में भी हैं। तकनीक के इस्तेमाल, सूचना के आदान-प्रदान और सामग्री की खरीद-फरोख्त के एक अद्भुत वैश्वीकरण से हमारा सामना हो रहा है। सोपा और पीपा के पहले भी अमेरिकी संसद इस सिलसिले में कानून बनाने की कोशिश कर चुकी है, जो विफल रही।
भारत और चीन में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे तेज गति से बढ़ रही है, पर इस मामले में भारत और चीन का अनुभव अलग-अलग है। आमतौर पर इंटरनेट पर राजनीतिक, सामाजिक और सुरक्षा से जुड़े विवरण होते हैं। ओपननेट इनीशिएटिव अंतरराष्ट्रीय संस्था है जो इंटरनेट सेसंसरशिप का डेटा रखती है। ओपन नेट ने 41 देशों का डेटा रखा है इनमें सात देशों में उपरोक्त तीनों मामलों की फिल्टरिंग नहीं पाई गई। इनमें भारत भी है। यानी भारतीय इंटरनेट पूरी तरह आजाद है। चीन में तीनों क्षेत्रों में फिल्टरिंग होती है। हमारे पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेहतर इतिहास भी है। इस आजादी के बाद संस्थाओं की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। उन्हें अपनी अभिव्यक्ति में उदार और संतुलित होना पड़ता है।
इस मामले के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम हैं। विकीलीक्स खुलासों के बाद अमेरिकी सरकार ने ट्विटर के माध्यम से व्यक्तिगत जानकारियाँ हासिल करने की कोशिश की। दुनिया के तमाम देश सर्च इंजनों को अपने हिसाब से चलाने के निर्देश देते हैं। इंटरनेट के कारण भारत जैसे देश के तमाम लोग सस्ती दरों पर काम करके पश्चिमी देशों से कमाई करते हैं। जब पाबंदियाँ लगती हैं तो एक के सहारे दूसरी बात पर भी लग सकती है। यह भी सच है कि इंटरनेट आतंकवादी और आपराधिक प्रवृत्तियों की मदद भी करता है। और पोर्नोग्राफी का सबसे बड़ा प्रसारक इंटरनेट ही है। पर इसके सकारात्मक फल परिणाम भी छोटे नहीं हैं। हाल में कपिल सिब्बल ने भारतीय संदर्भ में इंटरनेट की कुछ जिम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। अदालतों में यह मामला भी गया है। पर तस्वीर के केवल एक पहलू से निष्कर्ष निकालने की ज़रूरत नहीं है। तकनीक के संदर्भ लगातार बदल रहे हैं। उसकी उपयोगिता बदल रही है। हमारे जैसे देश के लिए यह ज्ञान और सूचना की वाहक है। अमेरिका में पाबंदिया लगाने की कोशिशों से इस प्रकार के प्रयत्नों के भारतीय समर्थकों को बल मिलता है। और इन पाबंदियों के विरोध के स्वर जब जीतते हैं तो भारत की स्वतंत्र चेतना सबल होती है।
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित
दुनिया में अपने किस्म का यह सबसे बड़ा लोकतांत्रिक विरोध था, जो इंटरनेट पर ही सम्भव था। इस विरोध के आगे अमेरिकी संसद को झुकना पड़ा। संसद ने इंटरनेट से जुड़े दो कानूनों को पास करने का काम अनंत काल के लिए टाल दिया। अमेरिका के राष्ट्रपति को वक्तव्य जारी करना पड़ा कि हम किसी भी ऐसे कानून का समर्थन नहीं करेंगे जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाता हो। इन कानूनों के निहितार्थ और उनकी प्रासंगिकता पर किसी किस्म की बहस होने से पहले ऐसे प्रबल विरोधी स्वरों से पता लगता है कि सायबर संसार से जुड़े लोग अब अपने को पूरे विश्व का नागरिक मानते हैं। अमेरिका में ऑक्यूपेशन आंदोलन के बाद एक नया नारा उभरा है ’वी आर ऑल अमेरिकंस नाव।’
पिछले हफ्ते अमेरिकी प्रतिनिधि सदन और सीनेट इंटरनेट पायरेसी में शामिल गैर-अमेरिकी कम्पनियों पर कार्रवाई करने के लिए स्टॉप ऑनलाइन पायरेसी एक्ट (सोपा) और प्रोटेक्ट इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी एक्ट(पीपा) पर वोट करने जा रहीं थीं। वस्तुतः अमेरिका के सिनेमा और संगीत उद्योग का दबाव था कि बाहर के देशों से संचालित हो रही वैबसाइट गैर-कानूनी तरीके से फिल्मों और संगीत को अपलोड और डाउनलोड करा रहीं हैं। इससे अमेरिकी फिल्म उद्योग को करीब 50 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसके अलावा फर्जी तरीके से माल बेचने वाली कम्पनियों पर कार्रवाई करने की व्यवस्था इन कानूनों में की जा रही थी। क्रेडिट कार्डों वगैरह के माध्यम से पैसे का लेन-देन करने वाली कम्पनियों पेपॉल और वीज़ा वगैरह के नियमन का इंतजाम भी इन कानूनों में है। इन कानूनों के निहितार्थ पर शायद अच्छी तरह विचार नहीं किया गया। इनका असर केवल व्यावसायिक नहीं था। बल्कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इसका सीधे प्रभाव पड़ता। पिछले साल के भंडाफोड़ों के बाद अमेरिका सरकार ने पेपॉल वगैरह को दबाव में लेकर विकीलीक्स के सामने आर्थिक संकट पैदा कर दिया था।
ऑनलाइन संचार दुनिया भर में विचार का विषय है। बेशक इसके मार्फत धोखाधड़ी और हेरफेर के मामले भी सामने आ रहे हैं, पर किसी भी एक कार्रवाई का प्रभाव कितना दूरगामी होगा, इसे देखने की ज़रूरत भी है। प्रस्तावित कानूनों का समर्थन अमेरिका की तमाम कम्पनियाँ कर रहीं हैं तो याहू, गूगल, ट्विटर, मोज़ीला, एबे, ज़िंग, लिंक्डइन और अमेरिकन ऑनलाइन विरोध में भी हैं। तकनीक के इस्तेमाल, सूचना के आदान-प्रदान और सामग्री की खरीद-फरोख्त के एक अद्भुत वैश्वीकरण से हमारा सामना हो रहा है। सोपा और पीपा के पहले भी अमेरिकी संसद इस सिलसिले में कानून बनाने की कोशिश कर चुकी है, जो विफल रही।
भारत और चीन में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे तेज गति से बढ़ रही है, पर इस मामले में भारत और चीन का अनुभव अलग-अलग है। आमतौर पर इंटरनेट पर राजनीतिक, सामाजिक और सुरक्षा से जुड़े विवरण होते हैं। ओपननेट इनीशिएटिव अंतरराष्ट्रीय संस्था है जो इंटरनेट सेसंसरशिप का डेटा रखती है। ओपन नेट ने 41 देशों का डेटा रखा है इनमें सात देशों में उपरोक्त तीनों मामलों की फिल्टरिंग नहीं पाई गई। इनमें भारत भी है। यानी भारतीय इंटरनेट पूरी तरह आजाद है। चीन में तीनों क्षेत्रों में फिल्टरिंग होती है। हमारे पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेहतर इतिहास भी है। इस आजादी के बाद संस्थाओं की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। उन्हें अपनी अभिव्यक्ति में उदार और संतुलित होना पड़ता है।
इस मामले के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम हैं। विकीलीक्स खुलासों के बाद अमेरिकी सरकार ने ट्विटर के माध्यम से व्यक्तिगत जानकारियाँ हासिल करने की कोशिश की। दुनिया के तमाम देश सर्च इंजनों को अपने हिसाब से चलाने के निर्देश देते हैं। इंटरनेट के कारण भारत जैसे देश के तमाम लोग सस्ती दरों पर काम करके पश्चिमी देशों से कमाई करते हैं। जब पाबंदियाँ लगती हैं तो एक के सहारे दूसरी बात पर भी लग सकती है। यह भी सच है कि इंटरनेट आतंकवादी और आपराधिक प्रवृत्तियों की मदद भी करता है। और पोर्नोग्राफी का सबसे बड़ा प्रसारक इंटरनेट ही है। पर इसके सकारात्मक फल परिणाम भी छोटे नहीं हैं। हाल में कपिल सिब्बल ने भारतीय संदर्भ में इंटरनेट की कुछ जिम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। अदालतों में यह मामला भी गया है। पर तस्वीर के केवल एक पहलू से निष्कर्ष निकालने की ज़रूरत नहीं है। तकनीक के संदर्भ लगातार बदल रहे हैं। उसकी उपयोगिता बदल रही है। हमारे जैसे देश के लिए यह ज्ञान और सूचना की वाहक है। अमेरिका में पाबंदिया लगाने की कोशिशों से इस प्रकार के प्रयत्नों के भारतीय समर्थकों को बल मिलता है। और इन पाबंदियों के विरोध के स्वर जब जीतते हैं तो भारत की स्वतंत्र चेतना सबल होती है।
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित
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