Friday, December 19, 2025

नाभिकीय-ऊर्जा में निजी-क्षेत्र का रास्ता खुला


संसद ने स्टेनेबल हार्नेसिंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया विधेयक, 2025’ को पारित कर दिया। इसअंग्रेजी नामाक्षरों के आधार पर शांति-विधेयक कहा गया है। हालाँकि कई विपक्षी सांसदों ने विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजने की माँग की थी, पर सरकार ने इसे राज्यसभा में चर्चा के लिए भेजकर जल्दी पास कराना उचित समझा। अब यह कानून बन जाएगा। दोनों सदनों की राजनीतिक-बहसों पर ध्यान नहीं दें, तो यह स्पष्ट है कि यह कानून यूपीए सरकार में अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लियर-डील का एक महत्वपूर्ण अंग है, जो अब अमेरिका के साथ संभावित व्यापार-समझौते के साथ भी जुड़ा है।

यह कानून अनायास ही नहीं बनाया गया है। कई कारणों से न्यूक्लियर-डील अपने अभीप्सित उद्देश्यों में पूरी तरह सफल नहीं हो सका। एक बड़ा अड़ंगा, संभावित-दुर्घटना की क्षतिपूर्ति को लेकर था, जिसके लिए 2010 में पास हुए नागरिक दायित्व अधिनियम से विदेशी-आपूर्तिकर्त्ता सहमत नहीं थे। 2008 में, भाजपा ने मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, जिसका एक कारण यह भी था कि न्यूक्लियर-डील में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था, जिससे क्षतिपूर्ति हो सके।

इस साल का बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने नाभिकीय ऊर्जा को लेकर कुछ बड़ी घोषणाएँ की थीं। उन्होंने स्वदेशी स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर (एसएमआर) विकसित करने के लिए 20,000 करोड़ रुपये के 'परमाणु ऊर्जा मिशन' की घोषणा की थी। 2033 तक इनमें से कम से कम पाँच रिएक्टर चालू हो जाएँगे। भारत के 2047 तक 100 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा सुनिश्चित करने के बड़े लक्ष्य के लिहाज से यह महत्वपूर्ण है।

उसके पहले पिछले साल जुलाई में नई सरकार के पहले बजट भाषण में उन्होंने कहा था कि सरकार भारत स्मॉल रिएक्टर (बीएसआर) की स्थापना, भारत स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर (बीएसएमआर) के अनुसंधान और विकास, तथा परमाणु ऊर्जा के लिए नई प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और विकास के लिए निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी करेगी।

भारत में परमाणु बिजली बनाने का काम अभी तक सरकारी कंपनी न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड करती है। अब इसमें निजी क्षेत्र का प्रवेश भी होगा, जिसमें विदेशी-कंपनियों की भागीदारी भी हो सकती है। यह घोषणा नाभिकीय-ऊर्जा के मामले में भारत-अमेरिका संवाद फिर से कायम होने की ओर इशारा कर रही है। 2008 के न्यूक्लियर डील ने भारत और अमेरिका को काफी करीब कर दिया था, पर इसी डील ने दोनों के बीच खटास भी पैदा की थी।

न्यूक्लियर डील होते वक्त लगता था कि भारत नाभिकीय ऊर्जा के लिए अपने दरवाज़े खोलेगा, पर उस दिशा में प्रगति नहीं हुई, बल्कि सब कुछ धीमा पड़ गया। 2011 में जापान के फुकुशिमा एटमी बिजलीघर की दुर्घटना के बाद उससे जुड़े जोखिम को लेकर भी सवाल उठे। भारतीय संसद ने 2010 में सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट पास किया, जिसमें वे व्यवस्थाएं थीं, जो परमाणु दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे का भार उपकरण सप्लाई करने वाली कंपनी पर डालती थीं।

उस कानून की धारा 17 से जुड़े मसले पर दोनों देशों के बीच सहमति नहीं रही है। यह असहमति केवल अमेरिका के साथ ही नहीं थी, दूसरे देशों के साथ भी थी। 2010 में जब यह कानून पास हो रहा था, तब भारतीय जनता पार्टी भी कड़ी शर्तें लागू करने की पक्षधर थी। बाद में यूपीए सरकार पर जब अमेरिकी दबाव पड़ा तो रास्ते खोजे जाने लगे।

भारत की कुल स्थापित विद्युत क्षमता का 1.5 प्रतिशत और उत्पादित बिजली का 3 प्रतिशत हिस्सा परमाणु ऊर्जा क्षेत्र से आता है। स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने, ग्रिड की स्थिरता में सुधार करने और 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए हाल के वर्षों में सरकार के एजेंडे में परमाणु ऊर्जा क्षेत्र का निजीकरण करना प्रमुख रहा है।

भारत के रूपांतरण के लिए परमाणु ऊर्जा के सतत दोहन और विकास विधेयक, 2025, परमाणु ऊर्जा अधिनियम, पुराने 1962 के कानून और परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 दोनों को निरस्त करके उनका स्थान लेगा। 1962 का कानून परमाणु ऊर्जा के विकास और उपयोग के आधार प्रदान करता है, और 2010 का परमाणु दुर्घटना के मामले में दायित्व और मुआवजा देने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है। नया कानून दो स्पष्ट जरूरतों से प्रेरित है। एक, कोयले पर आधारित ऊर्जा के स्थान पर अक्षय-ऊर्जा क्षमता का निर्माण और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात, नाभिकीय-क्षमता वृद्धि के लिए पूँजी की आवश्यकता।

1962 के अधिनियम के तहत परमाणु-ऊर्जा से जुड़ी गतिविधियों के लिए लाइसेंस केवल केंद्र सरकार की इकाई या सरकारी कंपनियों को ही दिया जा सकता है। वहीं नाभिकीय-दुर्घटना होने पर क्षतिपूर्ति के लिए 2010 के अधिनियम के तहत, परमाणु स्थापना का संचालक नो-फॉल्ट सिद्धांत के अनुसार परमाणु घटना के कारण होने वाले किसी भी नुकसान के लिए उत्तरदायी है। ऑपरेटरों को देनदारियों को कवर करने के लिए बीमा रखना होगा।  

ऑपरेटर की देयता की अधिकतम-सीमा भी तय है, जिसके ऊपर की देयता केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। 2010 के अधिनियम में 10 मेगावाट या उससे अधिक की ताप विद्युत क्षमता वाले परमाणु रिएक्टर के लिए अधिकतम 1,500 करोड़ रुपये की देनदारी निर्दिष्ट की गई थी। अब नए कानून में क्षमता के आधार पर 100 करोड़ रुपये से 3,000 करोड़ रुपये तक की देयता सीमा तय की गई है। इस सीमा के ऊपर की क्षतिपूर्ति केंद्र सरकार करेगी। लोक हित में जरूरी हुआ, तो वह किसी गैर-सरकारी संस्था का पूरा दायित्व भी अपने ऊपर ले सकती है।

अब सरकारी संस्थाओं, संयुक्त उपक्रमों और ‘अन्य किसी कंपनी’ को लाइसेंस के जरिए नाभिकीय ऊर्जा गतिविधियों की अनुमति देने की इजाजत देकर, संसद  ने संकेत दिया है कि घरेलू निजी पूँजी इन्हें चलाए, न कि विदेशी संयंत्र मालिक। 100 गीगावॉट का लक्ष्य पूरा करने के लिए भारत को बड़े पैमाने पर पूँजी जुटानी होगी। निर्माण-संबंधी जोखिम साझा कर सकने वाली गैर-सरकारी संस्थाओं को भी खोजना होगा। साथ ही नाभिकीय प्रसार के लिहाज से संवेदनशील कामों को राज्य के मातहत रखना होगा। इस कानून में सेफ्टी, क्रियान्वयन और विवाद-समाधान तथा भागीदारी की शर्तों को एकसाथ समेटने का प्रयास किया गया है।

पश्चिम एशिया के कुछ सरकारी-कोषों और विदेशी-निधियों ने आंशिक वित्तपोषण में रुचि दिखाई है, जिसमें एसएमआर की विनिर्माण शृंखला में प्रवेश करना भी शामिल है। परमाणु ऊर्जा को व्यावसायिक रूप से प्रतिस्पर्धी विकल्प बनाए रखने के लिए एसएमआर महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। सरकारी सूत्रों ने संकेत दिया है कि नाभिकीय-क्षेत्र में इक्विटी निवेश के नियम सरकार के विदेशी इक्विटी भागीदारी दिशानिर्देशों के अनुरूप होंगे, जो अन्य क्षेत्रों के अनुरूप और वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय (डीपीआईआईटी) के मानदंडों के अनुसार हैं।

दो प्रमुख संशोधन खासतौर से महत्वपूर्ण हैं। एक का उद्देश्य एक विशिष्ट प्रावधान-नागरिक दायित्व कानून की धारा 17 (बी) को कमज़ोर करना है, जिसे दुनिया भर में लागू किए गए इसी तरह के परमाणु दायित्व कानूनों के विपरीत माना गया था। इसे विदेशी उपकरण-विक्रेताओं ने बाधा बताया है। इस धार पर किसी ने भी कानून लागू होने के बाद से भारत में किसी भी परियोजना में निवेश नहीं किया है। यह भारतीय उप-विक्रेताओं के लिए भी चिंता का विषय था, क्योंकि ‘आपूर्तिकर्ता’ शब्द का दायरा बहुत व्यापक माना जाता है। अब इसे भी स्पष्ट किया गया है।

दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित

 

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