मीडिया की सजगता या अतिशय सनसनी फैलाने के इरादों के कारण पिछले कई वर्षों से देश में जहर-बुझे बयानों की झड़ी लगी हुई है। नौबत हत्याओं तक आ गई है। हाल में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा और उसके पहले बीजेपी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा के वक्तव्यों के कारण विवाद खड़े हुए हैं। इन बयानों की सदाशयता या आपराधिक भावना पर विचार अदालतों में ही सम्भव है। इनपर जल्द से जल्द विचार होना चाहिए। पर हम चैनलों, गलियों और चौपालों में बैठी अदालतों में फैसले करना चाहते हैं, जो अनुचित है।
सामाजिक बहस ठंडे दिमाग से ही होनी चाहिए, उत्तेजना
और तैश में नहीं। दो चार लोगों की वजह से किसी समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा
सकता। फिर भी जब बुनियादी बातों पर चोट लगती है तब समुदाय कुंठित महसूस करते हैं।
ऐसा नहीं कि समूचा ईसाई समुदाय एक जैसा है या सारे हिन्दू एक हैं और सारे मुसलमान
एक जैसा सोचते हैं। इनके भीतर कई प्रकार की धारणाएं हैं, पर
इनके अंतर्विरोधों को जब भड़काया जाता है तब क्रिया और प्रतिक्रिया होने लगती है।
अपनी नेतागीरी चमकाने कुछ ठेकेदार भी सामने आते हैं।
पूरी बहस के साथ कुछ मानवीय मूल्य जुड़े हैं,
जो आपस में टकराते हैं। महत्वपूर्ण क्या है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक
भावनाओं का सम्मान? यह टकराव केवल भारत में ही नहीं, पूरी
दुनिया में है। और यह सब कम से कम दो दिशाओं में जा रहा है। इस्लामोफोबिया से शुरू
होकर सभ्यताओं के टकराव तक एक धारा जाती है। यानी मध्ययुगीन प्रवृत्तियों का
टकराव। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक
भावनाओं के सांविधानिक-सिद्धांत और उनके अंतर्विरोध हैं।
पश्चिमी देशों में जानबूझकर इस बहस को छेड़ा गया
है। सितंबर 2005 में डेनमार्क की एक पत्रिका ने जब
कार्टूनों के प्रकाशन की घोषणा की थी, तभी समझ में आता
था कि यह सोच-समझकर बर्र के छत्ते में हाथ डालने वाला काम है। पर वह बहस अब भी नहीं
हो रही, जिसका वह ट्रिगर पॉइंट था। ऐसा ही 2015 में फ्रांस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो में प्रकाशित कार्टूनों
के कारण हुआ। 1988 में सलमान रुश्दी की किताब ‘सैटनिक
वर्सेज’ को लेकर ऐसी ही नाराजगी पैदा हुई थी, जिसके
कारण ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्ला खुमैनी ने उनकी मौत का फरमान जारी किया था।
क्या यह मध्य युग की वापसी है जब धार्मिक विचारों को लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड हो रहे थे? या उस खुली बहस का प्रस्थान-बिंदु है, जो कभी न कभी तो होगी। ‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के मायने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है?
प्रति-प्रश्न है कि यदि अभिव्यक्ति एबसल्यूट
नहीं है, तो क्या आस्था असीमित है? धर्म-विरोधी विचारों को भी व्यक्त किए जाने का हक क्यों नहीं है?
पेरिस की कार्टून पत्रिका केवल इस्लाम पर ही व्यंग्य नहीं करती, उसके
निशाने पर सभी धर्म हैं। पर इससे बदमज़गी बढ़ी। इसका असर सामाजिक जीवन पर पड़ रहा था।
2011 में नॉर्वे के 32 वर्षीय नौजवान एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक ने एक सैरगाह में गोलियाँ चलाकर 80 लोगों
की जान ले ली। मार्च 2019 में न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में एक हत्यारे ने दो
मस्जिदों पर हमला करके 50 से ज्यादा लोगों की हत्या कर दी।
ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया होती है। मीडिया
प्रकाश की गति से भागता है। इन बातों का विद्युत-प्रभाव होता है। इक्कीसवीं
सदी के तीसरे दशक में हम इस प्रश्न पर हम मध्ययुगीन दृष्टि से विचार नहीं कर सकते।
आने वाले वर्षों में यह सवाल और शिद्दत से उठने वाला है कि धार्मिक स्वतंत्रता के
बरक्स क्या धर्म-विरोधी विचारों को भी व्यक्त करने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए?
सिद्धांततः धार्मिक विचार की स्वतंत्रता में अपने विचार के प्रचार की स्वतंत्रता के साथ दूसरे के विचार के विरोध
की स्वतंत्रता भी इसमें शामिल है। इसकी मर्यादा कहाँ और किस तरह निर्धारित होगी
इसपर विचार किया जाना चाहिए।
ईशनिंदा को लेकर दुनिया के देशों में अलग-अलग
नियम हैं। भारत में वह अपराध है, पर सजा सीमित है। पाकिस्तान में मौत की सजा है। फ्रांस
के कानून व्यक्तिगत रूप से लोगों को ‘हेट स्पीच’ के विरुद्ध संरक्षण देते हैं,
पर वहाँ ईशनिंदा अपराध नहीं है। फ्रांस ने 1791
में इसे अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था। यूरोप का मानवाधिकार न्यायालय भी जिन
मामलों पर सजा देता है, उन्हें भी फ्रांस में सजा नहीं दी जा
सकती। फ्रांस की अदालत ने ‘शार्ली एब्दो’ को दोषी नहीं माना। वहाँ धर्म की आलोचना
की जा सकती है, पर किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति
नफरत फैलाने का अधिकार नहीं है। यानी कि वहाँ यह कहा जा सकता है कि ईसाईयत खराब है,
पर यह नहीं कि ईसाई लोग खराब होते हैं।
ऐसे प्रसंग दूसरे धर्मों को लेकर भी हैं। मकबूल
फिदा हुसेन को देवी-देवताओं की विवादित पेंटिंग के कारण देश के बाहर रहना पड़ा।
तसलीमा नसरीन को अपना देश छोड़ना पड़ा। अभिव्यक्ति जब सुरुचि और स्वतंत्रता का
दायरा पार कर जाती है, तब उसे रोकने की जरूरत होती है। पर उसे
रोकने के सिद्धांत क्या होंगे और उन्हें सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी किसकी है? न्याय-व्यवस्था और प्रशासन की। पर जब सीधे हत्याएं होने लगें, तो उसे
क्या कहेंगे?
समस्या काफी गहरी है। इसके निरंतर बढ़ते जाने
की एक वजह यह भी है कि अपराधियों को फौरन सजा नहीं मिलती है। आपने कितने लोगों को
सजाएं मिलती देखी हैं? 2014 में किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति
बीएस चौहान के नेतृत्व वाले तीन सदस्यों के पीठ ने कहा था कि सजा न मिल पाने का
कारण यह नहीं है कि हमारे कानूनों में खामी है। कारण यह है कि कानूनों को लागू
करने वाली एजेंसियाँ शिथिल हैं।
सन 1992 में बाबरी विध्वंस के पहले और उसके बाद
भी ऐसे भाषणों की बाढ़ आई हुई थी, जिनमें केवल भरी होती थी। लोग गलियों-चौराहों और
पान की दुकानों में इन भाषणों के टेपों को सुनते थे। सच यह है कि साम्प्रदायिक,
क्षेत्रीय, भाषायी और जातीय नफरत हमारे जीवन, समाज, संस्कृति और राजनीति में काफी घुल-मिल
गई है। वोट की राजनीति के कारण यह खुलकर सामने आती है।
कोलकाता के वर्तमान में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-07-2022) को चर्चा मंच "ग़ज़ल लिखने के सलीके" (चर्चा-अंक 4485) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'