श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने जनता के दबाव में इस्तीफा दे दिया है। खबरों के मुताबिक वे मालदीव होते हुए सिंगापुर पहुंच गए हैं। प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को अंतरिम राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गई है। देश में जनांदोलन का आज 99वाँ दिन है। शनिवार 9 जुलाई को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा की। देश में राजनीतिक असमंजस है, आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। वहाँ सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश हो रही है। अंतरिम राष्ट्रपति के शपथ लेने से समस्या का समाधान नहीं होगा। संसद को राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है। 20 जुलाई को नए राष्ट्रपति का चुनाव होगा। इस जनांदोलन के पीछे सकारात्मकता भी दिखाई पड़ी है। भीड़ ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा जरूर किया, पर राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट करने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि उसकी रक्षा की। सेना ने भी आंदोलनकारियों के दमन का प्रयास नहीं किया।
अनेक कारण
राजनीतिक स्थिरता के
बाद ही आईएमएफ से बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत हो सकती है। सबसे पहले हमें समझना
होगा कि समस्या है क्या। समस्या के पीछे अनेक कारण हैं। विदेशी मुद्रा कोष खत्म हो
गया है, जिसके कारण जरूरी वस्तुओं का आना बंद हो गया है। 2019 को हुए चर्च में हुए
विस्फोट, कोविड-9 के कारण पर्यटन उद्योग को लगा धक्का, खेती में रासायनिक खादों का
इस्तेमाल एकमुश्त खत्म करके ऑर्गेनिक खेती शुरू करने की नीति, इंफ्रास्ट्रक्चर के
लिए चीनी कर्ज को चुकाने की दिक्कतें और धीरे-धीरे आर्थिक गतिविधियों का ठप होना।
सरकार रास्ते खोज पाती कि जनता का गुस्सा फूट पड़ा। पर समाधान राजनीतिक और
प्रशासनिक गतिविधियों से ही निकलेगा।
दिवालिया देश
महीने की शुरुआत में प्रधानमंत्री
रानिल विक्रमासिंघे ने कहा था कि देश दिवालिया हो चुका है। पेट्रोल और डीजल खत्म
हो चुका है। परिवहन तकरीबन ठप है। शहरों तक भोजन सामग्री नहीं पहुँचाई जा सकती है।
दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। अस्पतालों में सर्जरी बंद हैं। विदेश से चीजें मंगवाने के
लिए पैसा नहीं है। अच्छे खासे घरों में फाके शुरू हो गए हैं। स्कूल बंद हैं।
सरकारी दफ्तरों तक में छुट्टी है। निजी क्षेत्र काम ही नहीं कर रहा है। इसके पहले
अप्रेल के महीने में श्रीलंका सरकार ने कहा था कि वह 51 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज
का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। विदेश से पेट्रोल, दवाएं और जरूरी सामग्री
खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं है।
विदेशी मुद्रा
जनवरी में लगने लगा था
कि विदेशी-मुद्रा कोष के क्षरण के कारण श्रीलंका में डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो जाएगी।
राजपक्षे परिवार ने चीन और भारत से मदद माँगी। 15 जनवरी को विदेशमंत्री एस जयशंकर
ने श्रीलंका के वित्तमंत्री बासिल राजपक्षे के साथ बातचीत की, जिससे स्थिति
बिगड़ने से बची। दिसंबर में पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने श्रीलंका के साथ 1.5 अरब डॉलर का करेंसी स्वैप किया। 13 जनवरी को भारत ने
फौरी तौर पर 90 करोड़ डॉलर के ऋण की घोषणा की थी, ताकि श्रीलंका खाद्य-सामग्री का आयात
जारी रख सके। इस दोनों वित्तीय पैकेजों ने कुछ समय के लिए उसे बड़े संकट से बचा
लिया, पर यह स्थायी समाधान नहीं था।
अनुशासनहीनता
वर्तमान बदहाली के पीछे राजनीतिक अनुशासनहीनता
का हाथ है। 2019 में गोटाबाया राजपक्षा के राष्ट्रपति बनने के बाद आईएमएफ की उन
मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों को त्याग दिया गया, जो उसके तीन साल पहले इसी किस्म
का संकट पैदा होने पर अपनाई गई थीं। श्रीलंका में सत्ता-परिवर्तन के पीछे लंबी
जद्दो-जहद थी। नई सरकार ने आते ही तैश में या लोकप्रियता बटोरने के इरादे से
टैक्सों और ब्याज में कमी कर दी। यह देखे बगैर की जरूरत किस बात की है। ऊपर से
कोविड-19 ने परिस्थिति को बदल दिया। अब आईएमएफ के पास जाना भी राजनीतिक रूप से
तमाचा होता। आईएमएफ की शर्तों की वे खुली आलोचना कर चुके थे और इसे संप्रभुता में
हस्तक्षेप मानते रहे।
देखते ही देखते तबाही
संकट तब पैदा हुआ, जब हालात सुधरने की आशा थी। महामारी के दौरान अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाओं पर लगी रोक के कारण पर्यटन-कारोबार ठप हो गया था। पर्यटक अब आने लगे हैं, पर पहले के मुकाबले 20 फीसदी भी नहीं हैं। निर्यात बढ़ा, कंपनियों की आय बढ़ी, फिर भी अर्थव्यवस्था लंगड़ा गई। पुराने कर्जों को निपटाने में विदेशी मुद्रा का भंडार खत्म होने लगा। इससे पेट्रोल, रसोई गैस, गेहूँ और दवाओं के आयात पर असर पड़ा। रुपये की कीमत घटती गई, जिससे विदेशी सामग्री और महंगी हो गई। संकट पिछले साल के अंत में ही नजर आने लगा था। नवंबर 2021 में श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 1.2 अरब डॉलर रह गया। दिसंबर में एक महीने के आयात के लायक एक अरब डॉलर की मुद्रा हाथ में थी। 18 जनवरी को 50 करोड़ डॉलर के इंटरनेशनल सॉवरिन बॉण्ड की अदायगी अलग से होनी थी, जिसके डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो गई थी। इससे बचने के लिए बाहरी मदद की जरूरत पड़ी।
दिवालिया घोषित
जनवरी में केंद्रीय बैंक ने जानकारी दी कि 38.2 करोड़ डॉलर के स्वर्ण
भंडार में से आधा बेच दिया गया है। अफवाह थी कि बाकी भी बिक गया। ईरान से तेल की खरीद
के एवज में 25.1 करोड़ डॉलर की रकम के बदले में चाय भेजी गई। सरकारी संपत्तियाँ
बेचने का फैसला हुआ, पर खरीदार नहीं थे। चीन और भारत की सहायता से जनवरी में काम
चल गया, पर मार्च श्रीलंका के पास केवल 1.9 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा कोष था,
जबकि विदेशी कर्जों का भुगतान करने के लिए 4 अरब डॉलर की जरूरत थी। जुलाई में एक
अरब डॉलर के इंटरनेशनल सॉवरिन बॉण्ड की अदायगी फिर सिर पर
थी। पूरे साल में 8.6 अरब डॉलर का कर्ज उसे चुकाना था। ऐसे में अप्रेल के महीने
में श्रीलंका ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया। उसके सिर पर 2005 में 11.3 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज था, जो 2020
में बढ़कर 56.3 अरब डॉलर हो गया।
सरकारी नादानी
2019 के राष्ट्रपति पद
के चुनाव में गोटाबाया राजपक्षे ने श्रीलंका के लिए जिस 'नए नज़रिए' का खाका पेश किया, उसमें खेती के
लिए एक 'साहसिक नीति' शामिल थी। इसके
तहत 10 साल में खेती को पूरी तरह ऑर्गेनिक
(रासायनिक खादों से मुक्त और जैविक खाद पर आधारित) बनाने की योजना थी। इस नीति की विफलता
को भी श्रीलंका के मौजूदा आर्थिक संकट की एक बड़ी वजह माना जा रहा है। साठ के दशक
में विकासशील देशों के लिए चलाए गए 'हरित क्रांति' अभियान के तहत श्रीलंका में भी उपज बढ़ाने के प्रयास
शुरू हुए थे। उन्नत किस्मों को आजमाया गया। आधुनिक तकनीक इस्तेमाल की गई। पैदावार
बढ़ाने के लिए पोषक तत्व इस्तेमाल किए गए। किसानों को रासायनिक खाद का इस्तेमाल
करने के लिए बढ़ावा दिया गया। सब्सिडी दी गई, छोटे किसानों को 90 प्रतिशत तक सब्सिडी मिली। दूसरी तरफ श्रीलंका में रासायनिक
खाद का उत्पादन नहीं होता, आयात होता है। वह चीनी, गेहूं और दूध
का भी आयात करता है। इन सबके लिए विदेशी मुद्रा आती थी पर्यटन से। पर 2020 में
कोविड-19 के कारण पर्यटकों का आना अचानक रुक गया और विदेशी मुद्रा की आमद बंद हो
गई। लगभग उसी वक़्त उर्वरकों की वैश्विक सप्लाई-चेन टूटने लगी। दुनिया भर में खाद
की भी कमी हो गई।
ऑर्गेनिक खेती
रासायनिक खाद से जुड़ी
एक और दिक्कत थी। पैदावार तो बढ़ी, लेकिन क्रॉनिक किडनी
डिज़ीज़ ऑफ अननोन ईटियॉलॉजी (सीकेडीयू) की बीमारी के मामले सामने आए। श्रीलंका 'सीकेडीयू' का हॉट स्पॉट बन गया। आशंका जाहिर की गई कि इस बीमारी की
वजह है रासायनिक खाद, जिसका इस्तेमाल करने में सावधानी नहीं बरतने के कारण बीमारी फैल
रही है। यह सिर्फ़ अनुमान था, इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं था। पर सरकार ने जल्दबाजी
में तय किया कि खेती में बड़ा बदलाव होना चाहिए। उत्साह में रासायनिक खादों पर
पूरी तरह पाबंदी लगा दी। देश के सभी खेत जैविक खाद पर निर्भर होने जा रहे थे। शायद
इसके पीछे विदेशी मुद्रा बचाने का विचार भी था। दूरगामी-दृष्टि से यह विचार सही था
भी। ऑर्गेनिक उत्पादों की अच्छी माँग है और उसकी कीमत भी अच्छी मिलती है, पर एकमुश्त
और तुरत-बदलाव में जोखिम थे। ऊपर से कोविड-19 के कारण हालात बदल गए।
खाद्य-संकट
ऑर्गेनिक खेती की
योजना पिछले साल अप्रैल में लागू हुई और दिक्कतें तभी से सामने आने लगीं। देश में ज़रूरत
के मुताबिक जैविक खाद पैदा करने की क्षमता नहीं थी। अचानक खाद्य-संकट पैदा हो गया।
भारत और म्यांमार से 40 लाख मीट्रिक टन चावल मंगाना पड़ा। नवंबर के
आखिर में सरकार ने प्रतिबंध पर आंशिक छूट दे दी और रासायनिक खाद आयात करने की
अनुमति दी, पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में खाद का संकट पैदा हो चुका था। यह छूट भी चाय, रबर और नारियल जैसी निर्यात के लिए जरूरी फसलों के लिए
थी। बहरहाल चोट लग चुकी थी। सबसे बड़ी बात रासायनिक खाद खरीदने के लिए भी पैसा
नहीं बचा।
अब क्या हो?
जनता के दबाव में देश
को फिलहाल राजपक्षे परिवार के शासन से मुक्ति मिल गई है। यह काम विरोधी दल नहीं कर
पा रहे थे। पर इसके आगे क्या? नई सर्वदलीय
सरकार का गठन आसान नहीं होगा। देश का विपक्ष काफी बिखरा हुआ है। उनके पास संसद में
बहुमत भी नहीं है। सत्तारूढ़ दल के समर्थन से विरोधी दलों की सरकार बन भी गई, तब भी देश की अर्थव्यवस्था को संभाल पाना काफी मुश्किल
होगा। सरकार बदलने से आर्थिक-समस्याओं का समाधान नहीं हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय
मुद्राकोष भी सहायता करने के पहले देश की राजनीतिक स्थिरता की सुनिश्चितता चाहेगा। एक सुझाव है कि फौरन चुनाव हों और संविधान में बुनियादी बदलाव किए जाएं।
अध्यक्षात्मक व्यवस्था को संसदीय प्रणाली में बदला जाए। अस्थायी सरकार समस्याओं के
समाधान नहीं कर पाएगी।
हरिभूमि में
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