महाराष्ट्र में पिछले एक सप्ताह में जो हुआ, वह राजनीतिक प्रहसन था या त्रासदी इसका फैसला भविष्य में होगा। 20 जून के आसपास शुरू हुई प्रक्रिया की तार्किक परिणति अभी नहीं हुई है। सत्ता परिवर्तन हुआ है और सोमवार के शक्ति परीक्षण में एकनाथ शिंदे सरकार को विजय भी मिलेगी। बावजूद इसके 11 और 12 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई और अदालत के फैसले पर नजर रखनी होगी, क्योंकि सदन के डिप्टी स्पीकर के प्रति अविश्वास प्रस्ताव और 16 विधायकों को सदस्यता के अयोग्य घोषित करने की प्रक्रिया से जुड़े मसलों की कानूनी स्थिति तभी तय हो पाएगी। लोकसभा में 48 सीटों के साथ राजनीतिक दृष्टि से महाराष्ट्र देश में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। बीजेपी की दृष्टि से इस राज्य में वापसी बेहद महत्वपूर्ण है। फिलहाल राज्य की सभी प्रमुख पार्टियों की नजरें अक्तूबर में होने वाले बृहन्मुम्बई महानगरपालिका (बीएमसी) के चुनावों पर है। देश का यह सबसे समृद्ध निकाय शिवसेना का आर्थिक शक्ति-स्रोत है। पिछले 25 साल से उसका इसपर निर्बाध वर्चस्व रहा है। बीजेपी की नजरें इस निकाय पर हैं। उसके बाद 2024 के लोकसभा विधानसभा चुनावों पर असली निशाना है।
अब क्या होगा?
राजनीति का दूसरा, यानी
नए समीकरणों का दौर अब शुरू होगा। प्रश्न है कि उद्धव ठाकरे, कांग्रेस और राकांपा
के साथ क्या बने रहेंगे या अपना अलग अस्तित्व बनाएंगे? या
शिंदे ग्रुप के साथ सुलह-समझौता करके बीजेपी वाले खेमे में वापस लौट जाएंगे?
राजनीति में असम्भव कुछ नहीं है। शुक्रवार को उद्धव ठाकरे ने बीजेपी
को इंगित करते हुए पूछा, एक ‘कथित शिवसैनिक’ की सरकार ही बननी
थी, तो ढाई साल पहले क्या खराबी थी? दूसरी तरफ ढाई साल पहले उन्होंने बीजेपी के नेतृत्व को स्वीकार कर
लिया होता, तो उनकी ऐसी दुर्दशा नहीं हुई होती, जैसी अब दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस और राकांपा के साथ उनका गठबंधन एक
मायने में बेमेल था, पर उसके पीछे भी एक आधार था। दूसरी तरफ 55 में से 39 विधायक
यों ही तो उनका साथ छोड़कर नहीं गए होंगे। एकनाथ शिंदे को वे आज ‘कथित शिवसैनिक’
बता रहे हैं, पर कुछ समय पहले तक वे उनके सबसे विश्वस्त
सहयोगियों में से यों ही तो नहीं रहे होंगे। और जो बगावत आज सामने आई है, वह किसी न किसी स्तर पर धीरे-धरे सुलग रही होगी।
अघाड़ी या पिछाड़ी?
अब महाविकास अघाड़ी (एमवीए) का क्या होगा?
यह तिरंगा बना रहेगा या टूटेगा? जबतक
सत्ता में थे, तबतक इसके अस्तित्व को बनाए रखना आसान
था। वैचारिक मतभेदों को भुलाते हुए सत्ता की अनिवार्यताएं उनके एक मंच पर खड़े
रहने को मजबूर कर रही थीं। इसका भविष्य काफी कुछ शिवसेना के स्वास्थ्य पर निर्भर
करेगा, पर इतना साफ है कि ढाई साल के इस प्रयोग का
सबसे बड़ा फायदा शरद पवार की राकांपा का हुआ। उसने राज्य में अपने खोए जनाधार को
वापस पाने में काफी हद तक सफलता भी पाई है। वह मूलतः मराठा पार्टी है और शिवसेना
भी मराठा पार्टी है। दोनों की ढाई साल की एकता से जिस ऊर्जा ने जन्म लिया, वह राकांपा के हिस्से में गई और शिवसेना के हिस्से में आया फटा
अंगवस्त्र। अघाड़ी के तीनों पक्षों में केवल राकांपा ने ही भविष्य का रोडमैप तैयार किया है। शिवसेना और कांग्रेस दोनों की
दशा खराब है। शिवसेना में टूट नहीं हुई होती, तो
कांग्रेस में होती। आज भी कांग्रेस के भीतर असंतोष है।
अपने-अपने हित
हालांकि इस दौरान राकांपा और कांग्रेस दोनों ने शिवसेना के साथ अपनी एकता को प्रकट किया है, पर यह राजनीति है और सबके अपने-अपने एजेंडा हैं, जो एक-दूसरे से टकराते हैं। अघाड़ी सरकार के उप-मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री के रूप में शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने राकांपा के चुनाव-क्षेत्रों के लिए पर्याप्त संसाधनों की व्यवस्था कर रखी है। शिवसेना को मुख्यमंत्री पद तो मिला, पर उसने राकांपा और कांग्रेस के साथ मिलकर जिस न्यूनतम साझा कार्यक्रम को स्वीकार किया, उसमें डूबकर शिवसेना का हिन्दुत्व पनीला हो गया। हालांकि ऊँचे स्तर पर तीनों पार्टियों के नेता एकता की बात करते रहे, पर जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता कुंठित होते रहे। उसका परिणाम है, यह बगावत।
शरद पवार की भूमिका
1 मई, 1960 में
महाराष्ट्र राज्य की स्थापना हुई थी। तबसे 1995 तक कांग्रेस की एकदलीय सरकार ने
राज्य में शासन किया। केवल 1978-80 में बगावत करके शरद पवार ने डेमोक्रेटिक फ्रंट
की सरकार बनाई। तब उनकी उम्र 38 साल थी और वे राज्य के सबसे कम उम्र मुख्यमंत्री
बने। बाद में वे कांग्रेस में वापस आ गए। फिर सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मामला
उठाते हुए बाहर आ गए और 1999 में राकांपा बना ली। शिवसेना का जन्म हालांकि 1966
में हो गया था, पर चुनाव की राजनीति में उसने बीएमसी
के चुनाव में 1989 से प्रवेश किया। 1995 में उसने बीजेपी के साथ गठबंधन किया और
कांग्रेस को परास्त किया। 1999 से 2014 के बीच राज्य में कांग्रेस और राकांपा का
वर्चस्व रहा।
टकराव की पृष्ठभूमि
शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के टकराव की
पृष्ठभूमि सन 2009 में तैयार हो गई थी, जब विधानसभा
चुनाव में बीजेपी को शिवसेना से ज्यादा सीटें मिलीं। उसके पहले तक महाराष्ट्र में
शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में थी। उसके बाद उसे समझ में आ गया था कि भूमिका बदल
रही है। सन 2014 में शिवसेना ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा, पर बीजेपी की ताकत और बढ़ गई। रोचक बात यह है कि उस साल विधानसभा में
बीजेपी सरकार को विश्वासमत हासिल करने में शरद पवार की पार्टी ने रास्ता निकाला।
बहुमत की प्रक्रिया से पहले एनसीपी ने ध्वनिमत से पहले सदन से वॉकआउट कर दिया और
बीजेपी ने ध्वनिमत से विश्वास मत हासिल कर लिया। सरकार को विश्वासमत मिल जाने के
बाद शिवसेना दबाव में आ गई और उसने सरकार में शामिल होना स्वीकार कर लिया। 2019
में उसने मजबूरी में चुनाव-पूर्व समझौता किया, पर
सरकार बनते समय वह अड़ गई।
शिंदे का राज्यारोहण
एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने एक
तीर से कई निशाने लगाए हैं। एक, उद्धव ठाकरे को कमजोर कर दिया। पार्टी
उद्धव ठाकरे को पाखंडी साबित करना चाहती है। वह बताना चाहती है कि 2019 में उद्धव
ठाकरे केवल मुख्यमंत्री पद हासिल करने को लालायित थे, जिसके
लिए उन्होंने चुनाव-पूर्व गठबंधन को तोड़ा और अपने वैचारिक प्रतिस्पर्धियों के साथ
समझौता किया। बीजेपी पर सरकार गिराने का जो कलंक लगा है कि उसने शिवसेना की सरकार
गिराई, उसे धोने के लिए उसने शिवसेना का मुख्यमंत्री
और पूर्व मुख्यमंत्री को उनका डिप्टी बनाया है। इस प्रकार वह त्याग की प्रतिमूर्ति
भी बनी है। फिलहाल उसकी रणनीति है कि बालासाहेब ठाकरे की विरासत का दावा करने की
उद्धव ठाकरे की योजनाओं को विफल किया जाए। बालासाहेब ठाकरे ने सरकारी पद हासिल
नहीं करने का जो फैसला किया था, उद्धव ठाकरे ने उसे खुद पर लागू नहीं
किया। वे न केवल मुख्यमंत्री बने, बल्कि अपने बेटे को मंत्रिपद भी दिया,
जिनके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।
फडणवीस प्रसंग
शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के साथ देवेंद्र
फडणवीस के उप-मुख्यमंत्री बनने को लेकर भी कई तरह की रोचक कथाएं मीडिया में हैं।
पार्टी के अंदरूनी सूत्रों को उधृत करते हुए लिखा जा रहा है कि बीजेपी नेतृत्व ने
शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का निश्चय कर रखा था और इस बात से शिंदे को शुरू में
ही अवगत करा दिया गया था। पर गुरुवार की शाम शपथ ग्रहण के समय पैदा हुए भ्रम से
लगता है कि देवेंद्र फडणवीस को इस बात की जानकारी नहीं थी। जेपी नड्डा और अमित शाह
को सफाई देनी पड़ी। बीजेपी फडणवीस को भी सरकार में चाहती है, ताकि सरकार पर उसका नियंत्रण बना रहे, पर बीजेपी की राजनीति से यह
बात भी झलक रही है कि क्षेत्रीय नेताओं को एक सीमा के भीतर ही रखा जाएगा। फडणवीस
की आक्रामकता एक सीमा तक ही स्वीकार्य है। कुछ टिप्पणीकार मानते हैं कि फडणवीस को जानकारी
थी कि उन्हें उप-मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। पर उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे
फडणवीस योग्य प्रशासक हैं। बीजेपी को 2024 के चुनाव के पहले अपने कई
मेगा-प्रोजेक्ट पूरे करने हैं। वे यदि सरकार से बाहर रहते, तो
उनके माध्यम से सरकार चलाना उसपर नियंत्रण रखना गैर-सांविधानिक होता। सम्भव है कि
उन्हें पूरी तस्वीर का पता नहीं रहा हो। महाराष्ट्र में 30 फीसदी आबादी मराठों की
है। शरद पवार मराठा नेता हैं और शिवसेना का आधार भी मराठा हैं। देवेंद्र फडणवीस
ब्राह्मण हैं, जिनकी आबादी राज्य में 3 फीसदी है। बीजेपी
को मराठा नेता की जरूरत है। शिंदे को बढ़ाने के पीछे यही विचार है।
ठाकरे परिवार
क्या शिंदे में इतना दम है कि वे ठाकरे परिवार
से मुकाबला कर सकें? प्रति-प्रश्न है कि क्या ठाकरे परिवार की
वापसी इस खेमे में सम्भव है? कुछ पर्यवेक्षक मान रहे हैं कि केवल शिंदे
की मदद से शिवसेना की पारिवारिक विरासत को झपटना आसान नहीं होगा। पर भारतीय
राजनीति में ऐसे उदाहरण हैं, जब आक्रामक और उत्साही नेताओं ने
पारिवारिक विरासत की परवाह नहीं की। 1989 में मुलायम सिंह ने चौधरी चरण सिंह की
विरासत अजित सिंह के हाथों में जाने से रोकी। उसके पहले 1987 में जयललिता ने एमजी
रामचंद्रन की विरासत को जीता। आंध्र प्रदेश में 1995 में चंद्रबाबू नायडू ने
तेलगुदेशम पार्टी के नेतृत्व को अपने हाथों में लिया। दूसरी तरफ शिवसेना के भीतर
बालासाहेब के भतीजे राज ठाकरे ने भी ऐसी कोशिश की, पर
वे उद्धव ठाकरे के आभा-मंडल को तोड़ नहीं पाए। क्या अब एकनाथ शिंदे यह काम कर
पाएंगे? क्या राज ठाकरे भी उनके साथ आएंगे? शिंदे का दावा है कि बड़ी संख्या में शिवसैनिक तैयार बैठे हैं। ठाणे
के इलाके में उनका वर्चस्व स्पष्ट है।
हरिभूमि में प्रकाशित
जमीनी सियासी हकीकत से रूबरू कराता सारगर्भित लेख.आभार!
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