देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक है। जनजातीय समाज से वे देश की पहली राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। इसके अलावा वे देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी। उनकी विजय भारतीय राजनीति और समाज की भावी दिशा की ओर इशारा कर रही है। हमारा लोकतंत्र वंचित और हाशिए के समाज को बढ़ावा दे रहा है। और यह भी कि सामाजिक रूप से पिछड़े और गरीब तबकों के बीच प्रतिभाशाली राजनेता, विचारक, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार और खिलाड़ी मौजूद हैं, जो देश का नाम ऊँचा करेंगे। उन्हें बढ़ने का मौका दीजिए।
जबर्दस्त समर्थन
यह चुनाव राजनीतिक-स्पर्धा भी थी। जिस तरह से उन्हें
विरोधी सांसदों और विधायकों के वोट मिले हैं, उससे भी देश की भावना स्पष्ट होती
है। उनकी उम्मीदवारी का 44 छोटी-बड़ी पार्टियों ने समर्थन किया था, पर ज्यादा
महत्वपूर्ण है, विरोधी दलों की कतार तोड़कर अनेक सांसदों और विधायकों का उनके पक्ष
में मतदान करना। भारतीय राज-व्यवस्था में यह अलग किस्म की बयार है। तमाम मुश्किलों
और मुसीबतों का सामना करते हुए देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने वाली इस महिला को
देश ने जो सम्मान दिया है, वह अतुलनीय है।
मास्टर-स्ट्रोक
राजनीतिक दृष्टि से यह चुनाव बीजेपी का
मास्टर-स्ट्रोक साबित हुआ है। जैसे ही द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने आया, पूरे देश
ने उनके नाम का स्वागत किया। इसका प्रमाण और इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है
क्रॉस वोटिंग। सबसे अधिक क्रॉस वोटिंग असम में हुई। असम में 22 और मध्य प्रदेश में
19 क्रॉस वोट पड़े। 126 सदस्यीय असम विधानसभा से उन्हें 104 वोट मिले। असम
विधानसभा में एनडीए के 79 सदस्य हैं। मतदान के दौरान विधानसभा के दो सदस्य
अनुपस्थित भी थे। राजनीतिक दृष्टि से यह भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता और
विरोधी दलों की रणनीति की भारी पराजय है। बावजूद इस सफलता के, उन्हें मिले एकतरफा
समर्थन की यह राजनीतिक-तस्वीर पूरे देश की नहीं है। चार राज्यों में उन्हें कुल
वोटों की तुलना में 12.5 फीसदी या उससे भी कम वोट मिले। सबसे कम केरल में उन्हें
0.7 फीसदी मत मिले, जहां एकमात्र विधायक ने उनके पक्ष में वोट
डाला। तेलंगाना में उन्हें केवल 2.6 फीसदी वोट मिले। पंजाब में 7.3 फीसदी और
दिल्ली में 12.5 फीसदी। अलबत्ता तमिलनाडु में 31 फीसदी वोट मिले, जिसकी वजह अद्रमुक
का समर्थन है।
विरोधी बिखराव
यह परिणाम देश की पहली महिला आदिवासी के राष्ट्रपति बनने की कहानी तो है ही, साथ ही विरोधी दलों के आपसी मतभेद और अलगाव को भी दिखाता है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर ने श्रीमती मुर्मू का समर्थन करके उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के गठबंधन की एकजुटता के लिए चुनौती पेश कर दी है। उधर तृणमूल कांग्रेस द्वारा उप राष्ट्रपति पद के चुनाव में मार्गरेट अल्वा का समर्थन न करने की घोषणा के बाद विरोधी दलों का यह बिखराव और ज्यादा खुलकर सामने आ गया है। प्रकारांतर से ममता बनर्जी श्रीमती मुर्मू का विरोध नहीं कर पाईं। उन्होंने कहा था, हमें बीजेपी की उम्मीदवार के बारे में पहले सुझाव मिला होता, तो इस पर सर्वदलीय बैठक में चर्चा कर सकते थे। द्रौपदी मुर्मू संथाल-समुदाय से आती हैं। पश्चिम बंगाल के 70 फ़ीसदी आदिवासी संथाल हैं। उन्हें पश्चिम बंगाल के अपने आदिवासी मतदाता को यह समझाना होगा कि उन्होंने मुर्मू का समर्थन क्यों नहीं किया।
बीजेपी का विस्तार
बीजेपी अपने सामाजिक आधार का विस्तार करती जा
रही है। वह इस आरोप को गलत साबित करना चाहती है कि वह सवर्णों का पार्टी है। द्रौपदी
मुर्मू का राष्ट्रपति बनना देश के जनजातीय समाज के बीच इस पार्टी की पहचान को
बढ़ाएगा। भारत की आदिवासी आबादी में एक संदेश जाएगा। देश में करीब 8.5 फीसदी
जनजातीय जनसंख्या है। यह आबादी खासतौर से मध्य प्रदेश, गुजरात,
महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड,
पश्चिम बंगाल, ओडिशा में ज़्यादा है। पूर्वोत्तर के राज्यों
में कहीं-कहीं तो उनकी आबादी 90 प्रतिशत तक है। ये सभी राज्य भाजपा की राजनीति के
लिए महत्वपूर्ण हैं। बीजेपी की फिलहाल कोशिश देशभर के सभी आदिवासी समूहों को एक
पहचान के दायरे में लाना है। राजनीतिक-दृष्टि से अभी तक आदिवासी समूहों की तरफ
किसी ने ध्यान नहीं दिया था। बीजेपी ने यह काम किया है। यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के कार्यकर्ता वर्षों से आदिवासी समाज के भीतर शिक्षा और विकास से जुड़े कार्य
कर रहे हैं। आदिवासी समाज के अलावा भारतीय जनता पार्टी के मतदाताओं में महिलाओं की
संख्या काफी ज्यादा है। श्रीमती मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद महिला मतदाताओं
का आधार और पुख्ता होगा।
सादा जीवन
उनका जन्म 20 जून 1958 को मयूरभंज जिले के
बैदापोसी गाँव में बिरंची नारायण टुडू की पुत्री के रुप में हुआ। वे संथाल आदिवासी
हैं और उनके पिता अपनी पंचायत के मुखिया रहे हैं। उनका बचपन अभावों और गरीबी में
बीता था, लेकिन अपनी मेहनत से उन्होंने तमाम चुनौतियों को पराजित किया। उनकी स्कूली
पढ़ाई गांव में हुई। 1969 से 1973 तक वे आदिवासी आवासीय विद्यालय में पढ़ीं। इसके
बाद उन्होंने भुवनेश्वर के रमादेवी वीमैंस कॉलेज में दाखिला लिया। अपने गांव की वे
पहली लड़की थीं, जो स्नातक की पढ़ाई करने भुवनेश्वर गई थीं। उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे
में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। उनके पति का नाम श्याम चरण मुर्मू था। कम उम्र
में ही उनका देहांत हो गया था। उनसे दो बेटे और दो बेटी हुई। 1984 में एक बेटी की
मौत हो गई। बाद में दोनों बेटों की मौत असमय हो गई। उनकी एकमात्र जीवित संतान बेटी
इतिश्री मुर्मू हैं, जो रांची में रहती हैं। उनकी एक बेटी
है। 1979 में बीए पास करने के बाद उन्होंने ओडिशा सरकार में क्लर्क की नौकरी की। वे
सिंचाई और ऊर्जा विभाग में जूनियर सहायक थीं। बाद में उन्होंने रायरंगपुर के श्री
अरविंदो इंटीग्रल एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर में मानद शिक्षक के तौर पर पढ़ाया।
राजनीतिक करियर
उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत वार्ड कौंसिलर
के रूप में 1997 में हुई। वे रायरंगपुर नगर पंचायत के चुनाव में वॉर्ड पार्षद चुनी
गईं और नगर पंचायत की उपाध्यक्ष बनाई गईं। इसके बाद वे राजनीति मे लगातार आगे
बढ़ती चली गईं और रायरंगपुर विधानसभा सीट से बीजेपी के टिकट पर दो बार (साल 2000
और 2009) विधायक भी बनीं। उन्हें ओडिशा में सर्वश्रेष्ठ विधायकों को मिलने वाला
नीलकंठ पुरस्कार भी मिल चुका है। पहली बार विधायक बनने के बाद वे 2000 से 2004 तक
नवीन पटनायक के मंत्रिमंडल में स्वतंत्र प्रभार की राज्यमंत्री रहीं। उस समय बीजेडी
और बीजेपी के गठबंधन की सरकार थी। 18 मई 2015 को उन्होंने झारखंड की पहली महिला और
आदिवासी राज्यपाल के रूप में शपथ ली थी। वे छह साल इस पद पर रहीं। राज्यपाल के रूप
में उनकी छवि निर्विवाद और न्यायप्रिय व्यक्ति के रूप में बनी।
निरर्थक विवाद
इस दौरान कुछ निरर्थक टिप्पणियाँ भी हुईं,
जिनका जिक्र होना चाहिए। राजद के नेता तेजस्वी यादव ने कहा, ‘राष्ट्रपति
भवन को 'मूर्ति' की जरूरत
नहीं है। हम राष्ट्रपति भवन में कोई मूर्ति नहीं चाहते…आपने हमेशा यशवंत सिन्हा को
सुना होगा, लेकिन हमने सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रपति पद
के उम्मीदवार (द्रौपदी मुर्मू) की आवाज कभी नहीं सुनी होगी।’
बाद में उन्होंने सफाई भी दी, पर उनकी टिप्पणी इतिहास में दर्ज हो गई। श्रीमती
मुर्मू की विजय के बाद तेजस्वी यादव ने उन्हें बधाई का संदेश दिया है, पर सोशल
मीडिया में उन्हें ट्रोल किया जा रहा है। उनके संदेश के जवाब में एक यूजर ने लिखा,
‘तेजस्वी
यादव ने द्रौपदी मुर्मू को ‘मूर्ति’ बताया था…आज ध्यान से सुन लेना राष्ट्रपति
द्रौपदी मुर्मू बोलेगी।’
राष्ट्रपति की भूमिका
यशवंत सिन्हा ने हार स्वीकार कर ली और बधाई
देने में देर नहीं की। उन्होंने कहा, परिणाम चाहे जो रहे हों भारतीय लोकतंत्र को
दो फायदे हुए। पहला, विपक्षी दल एक मंच पर आए। दूसरे, देश के सामने विपक्षी दलों
के विचारों, चिंताओं को रखा गया। विरोधी दल यह कहना चाहते
हैं कि राष्ट्रपति को खामोशी से सरकारी बातें नहीं मान लेनी चाहिए। यशवंत सिन्हा ने
प्रचार के दौरान कहने का प्रयास किया कि उन्हें राष्ट्रपति चुना गया, तो वे क्या
करेंगे और क्या नहीं करेंगे। अतीत में इस पद को लेकर राजेन्द्र प्रसाद और ज्ञानी
जैल सिंह ने कुछ सवाल जरूर उठाए थे, पर व्यावहारिक सच यह है कि राष्ट्रपति अपने
ज्यादातर काम सरकार की सलाह पर करता है। सभाओं, गोष्ठियों
में कई बार राष्ट्रपति अपने निजी विचार भी व्यक्त करते हैं। इनके अलावा अध्यादेशों
को पुनर्विचार के लिए सरकार के पास भेजने और कैदियों की सज़ा-माफी और कुछ
नियुक्तियों से ही उनके दृष्टिकोणों का पता लगता है। हाल के वर्षों में प्रणब
मुखर्जी राजनेता-राष्ट्रपति थे, पर उन्होंने मोदी सरकार से टकराव का कोई काम नहीं
किया।
श्रीमती मुर्मू की राय
21 जून को जब बीजेपी के अध्यक्ष जगत प्रकाश
नड्डा ने द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा की, तो वे
ओडिशा के मयूरभंज जिले के रायरंगपुर स्थित अपने घर में थीं। एक दिन पहले 20 जून को
उन्होंने अपना 64 वां जन्मदिन मनाया था। उन्होंने स्थानीय पत्रकारों से कहा, मुझे
हैरत है और खुशी भी। मुझे टीवी देखकर इस
बात का पता चला। यह संवैधानिक पद है और मैं अगर इस पद के लिए चुन ली गई, तो राजनीति से अलग देश के लोगों के लिए काम करूंगी। इस पद के लिए जो
सांविधानिक प्रावधान और अधिकार हैं, मैं उसके अनुसार
काम करना चाहूंगी।
हरिभूमि में प्रकाशित
बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
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