शिंजो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। जापान के प्रति जो सम्मान आम भारतीय के मन में है, उसे केवल महसूस किया जा सकता है। यह सम्मान यों ही नहीं है। हम जापानियों को उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। पर शिंजो आबे का सम्मान हम उनके राष्ट्रवादी विचारों के कारण भी करते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित जापान ने जिस तरह से अपना रूपांतरण किया, वह अलग कहानी है, पर इस समय आक्रामक चीन के जवाब में खड़ा है। जापान में इस समय दो तरह की अवधारणाएं चल रही हैं। एक है कि चीन से दोस्ती बनाकर रखो और दूसरी है कि चीन का मुकाबला करने के लिए तैयार रहो। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी दबाव में ऐसी सांविधानिक-व्यवस्थाएं कर दी गई हैं कि जापान के हाथ बँध गए। शिंजो आबे इन्हें खोलना चाहते थे।
चीन से मुकाबिल
हाल के वर्षों में चीन ने दुनिया में धाक कायम की
है, पर जापानियों ने उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही
अपना सिक्का बुलंद कर रखा है। पिछले डेढ़ दशक में शिंजो आबे ने अपने देश का
नेतृत्व जिस तरीके से किया और भारत के साथ जैसे रिश्ते बनाए, उसपर ध्यान देने की जरूरत है। शिंजो आबे का राष्ट्रवाद भारत
दिलो-दिमाग पर छाया है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र और क्वॉड की परिकल्पना उनकी थी।
अगस्त, 2007 में उन्होंने भारत की संसद में आकर इस
अवधारणा पर रोशनी डाली थी, जो अब मूर्त रूप ले रही है। निश्चित
रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक
पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और उसे गोली मार दी गई। उस
देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी बंदूकें नहीं
होतीं।
क्यों हुई हत्या?
कैमरे जैसी बंदूक बनाकर उनकी हत्या की गई। क्यों की गई? अभी अटकलें ही हैं, पर किसी बड़ी साजिश को खारिज नहीं किया जा सकता है। शिंजो आबे हालांकि प्रधानमंत्री पद छोड़ चुके थे, पर राजनीतिक दृष्टि से वे महत्वपूर्ण थे और एक बड़े सैद्धांतिक बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे। बताते हैं कि उनके हत्यारे ने कहा है कि शिंजो जापान के दक्षिणपंथी संगठन निप्पॉन कैगी (Nippon Kaigi) के समर्थक थे, और मेरी माँ ने अपना सारा पैसा उस संस्था को दान में दे दिया, जिससे वह दिवालिया हो गई। इसलिए मैंने उनकी हत्या की। 1997 में बने निप्पॉन कैगी का उद्देश्य जापान के वर्तमान संविधान और खासतौर पर उसके अनुच्छेद 9 को बदलना है, जिसमें जापान में स्थायी सेना के गठन पर रोक है। निप्पॉन कैगी मानता है कि जापान को उस ताकत के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए, जो पूर्वी एशिया को पश्चिमी ताकतों के वर्चस्व से मुक्त कर सके। संगठन मानता है कि 1946-1948 के दौरान जापान पर चला युद्ध अपराध का मुकदमा अवैध था। जापानी समाज लम्बे अरसे से युद्ध और शांति, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सम्मान जैसे सवालों से घिरा हुआ है। जापान के इतिहास में नब्बे साल बाद इस किस्म की हत्या हुई है। ऐसा नहीं है कि वहाँ हत्याएं नहीं हुई हैं। जापान का इतिहास राजनीतिक हत्याओं से भरा है। ज्यादातर हत्याओं के पीछे राष्ट्रवाद से जुड़े वैचारिक-द्वंद थे। 15 मई 1932 को प्रधानमंत्री इनुकाई सुयोसी की 11 नौसैनिकों द्वारा घेरकर की गई हत्या के पीछे भी अंतरराष्ट्रीय टकराव था।
विह्वल देश
आबे की हत्या ने जापान के समाज और राजनीति को
झकझोर कर रख दिया है। इसे ‘आतंकवाद’ की संज्ञा दी गई है। हत्यारे का मंतव्य अब भी
स्पष्ट नहीं है, पर इतना जरूर लगता है कि वह आबे की
रक्षा-नीतियों का आलोचक है। हत्या की खबर आने के बाद चीन के कुछ इलाकों से खुशियाँ
मनाए जाने की खबरें मिली हैं। इन खबरों का कोई मतलब नहीं है, पर तफतीश इस बात की जरूर होगी कि इस हत्या के पीछे कहीं चीनी हाथ तो
नहीं। जरूरी नहीं कि यह हाथ सीधे-सीधे हो। सम्भावना यह भी है कि जापानी समाज के
भीतर चल रहे उद्वेलन का लाभ किसी बाहरी शक्ति ने उठाया हो।
राष्ट्रवाद की विरासत
शिंजो आबे के पिता जापान के पूर्व विदेश मंत्री शिनतारो आबे थे। शिंजो के नाना नोबुसुके किशी जापान के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वे 1957-1960 को दौर में जापान के प्रधानमंत्री थे। वह दौर दूसरे विश्व-युद्ध के बाद जापान का सबसे महत्वपूर्ण दौर था। उसी दौरान उन्होंने अमेरिका के साथ सुरक्षा-संधि की थी, जिसका देश में काफी विरोध हुआ था। उनकी हत्या का प्रयास भी हुआ था। उनके छह चाकू मारे गए। तब वे बच गए, पर अब शिंजो आबे नहीं बचे। पर इतना स्पष्ट है कि शिंजो को राष्ट्रवाद पारिवारिक विरासत में मिला था।
सबसे युवा प्रधानमंत्री
वे पहली बार 1993 में सांसद बने और 2005 में
कैबिनेट में मंत्री बनाए गए। 2006 में वे दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान के सबसे
युवा प्रधानमंत्री बने। उस दौरान उनकी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी कई तरह के विवादों
में घिर गई और 2007 में उन्होंने बीमारी की वजह से अपना पद छोड़ दिया। 2012 में वे
प्रधानमंत्री की कुर्सी पर फिर बैठे। जापान की राजनीति में जबर्दस्त अस्थिरता है,
फिर भी वे पद पर बने रहे। हालांकि उनका कार्यकाल 2021 तक था, पर 28 अगस्त 2020 को उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। जापान में
सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने का रिकॉर्ड उन्हीं के नाम है। अपनी पार्टी में
उन्हें किसी ने चुनौती नहीं दी। इतना ही नहीं पार्टी ने अपने संविधान में संशोधन
कर, उन्हें प्रमुख के तौर पर तीसरे कार्यकाल का
अवसर भी दिया।
जापानी सम्मान
आबे की मनोकामना थी कि जापान वैश्विक मंच पर
ज्यादा बड़ी भूमिका निभाए। उन्हें नजर आ रहा था कि चीन बड़ी ताकत बनता जा रहा है
और उसके इरादे आक्रामक हैं, जिनका निशाना अंततः जापान बनेगा। यह प्रतिद्वंदिता
काफी पुरानी है। उन्नीसवीं सदी ने जापान ने चीन को पराजित किया था। चीन उस अपमान
का बदला लेना चाहता है। चीन के अलावा उत्तरी कोरिया और रूस का उभार भी उनकी चिंता
का विषय था। वे चाहते थे कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी दबाव में लागू हुए
जापान के शांतिवादी संविधान को संशोधित किया जाए।
सैन्य-मनोकामना
संविधान का अनुच्छेद 9 कहता है कि जापान सेना,
नौसेना या वायुसेना का गठन नहीं करेगा और वह अंतरराष्ट्रीय विवादों
को सुलझाने के लिए सेना का इस्तेमाल नहीं करेगा। जापान की सेना को आत्मरक्षा बल
(सेल्फ डिफेंस फोर्स या एसडीएफ) कहा जाता है। शिंजो आबे अनुच्छेद 9 में संशोधन
कराना चाहते थे, जो वे करा नहीं पाए। अलबत्ता 2014 और
2015 में एसडीएफ से जुड़े कुछ नियमों में बदलाव करके ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि
यदि संसद को समझ में आए कि जापान पर खतरा है, तो
प्रत्यक्ष हमले के जवाब में सैनिक कारवाई की जा सकती है। यह विषय आज भी देश की
राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण है। जापान अब अपने लड़ाकू विमानों और युद्धपोतों का
विकास कर रहा है। उसकी पनडुब्बियों की संख्या बढ़ी है।
चीन का उदय
जापान और चीन परम्परागत प्रतिस्पर्धी हैं। शिंजो
के दादा चाहते थे कि जापान अपने आर्थिक विकास पर ध्यान दे और अंततः अमेरिकी सुरक्षा
छतरी के बजाय अपनी रक्षा अपने हाथों से करे। अस्सी के दशक में नाकासोने यासुहीरो
के कार्यकाल में इस विचार को और मजबूती मिली। नब्बे के दशक में खाड़ी युद्ध के
दौरान जापान ने अपने संविधान का हवाला देते हुए अमेरिकी सेना के साथ अपनी सेना को
नहीं भेजा। धन दे दिया, पर सेना नहीं भेजी। एक प्रकार से यह अमेरिका पर तोहमत थी। दूसरे
विश्व-युद्ध के बाद जापान की विदेश-नीति में आने वाले बदलाव का वह प्रस्थान-बिन्दु
था। अस्सी के दशक में चीनी उभार शुरू हो गया था। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के
समय अमेरिकी विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर चीन को खुश करके अपने पाले में लाने के
प्रयास में लगे थे। उनकी समझ थी कि रूस के विरुद्ध चीन का इस्तेमाल करेंगे। इस दोस्ती
का लाभ चीन को आर्थिक विकास के रूप में मिला। अमेरिका के सामने वही चीन आज हथियार
लेकर खड़ा है।
सेंकाकू टकराव
2010 में चीन और जापान के बीच सेंकाकू द्वीपों
को लेकर टकराव हुआ। चीन ने जापान को रेयर अर्थ नाम खनिज का निर्यात बंद कर दिया।
यह खनिज इलेक्ट्रॉनिक्स के काम आता है और चीन में इसका सबसे बड़ा भंडार है।
अमेरिका जो भी करेगा अपने हित में करेगा यानी ‘अमेरिका फर्स्ट।’ अमेरिका ने जापान
के साथ, जो संधि की थी उसके पीछे सोवियत संघ का खतरा था,
पर आज खतरा चीन से है। यह खतरा केवल जापान को ही नहीं ताइवान को है।
ताइवान पर हमले का मतलब है जापान की सुरक्षा को सीधा खतरा।
मोदी के मित्र
पद से हट जाने के बावजूद शिंजो आबे जापान की
राजनीति में महत्वपूर्ण स्तम्भ थे। नरेंद्र मोदी की नज़र से देखें तो अमेरिका और
यूरोपीय देशों के मुकाबले शिंजो आबे के जापान ने उन्हें विशेष महत्व दिया। गुजरात
के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी 2007 और 2012 में जापान गए थे। उस दौर में पश्चिमी
देश मोदी को हिकारत की नज़रों से देख रहे थे। अमेरिका ने वीज़ा रद्द कर दिया था। 2014
के बाद मोदी और आबे की दोस्ती अकस्मात हुई परिघटना नहीं थी। उसके पीछे एक अनुभव और
एक दृष्टिकोण भी था।
हिंद-प्रशांत
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका को
जापान ने पहचाना। ‘क्वॉड्रिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग’ को लेकर अनौपचारिक चर्चा 2004
में ही शुरू हो गई थी। उस साल हिन्द महासागर में सुनामी आई थी। इन चारों देशों ने
सहायता कार्य में सहयोग किया था, पर ध्यान दिया शिंजो आबे ने। इसके
सामरिक पहलुओं पर संवाद की शुरुआत सन 2007 में उनकी पहल पर हुई। चीन ने शुरू से ही
इसका विरोध किया। भारत इसमें सकुचाते हुए शामिल हुआ था। दूसरे विश्व युद्ध के
दौरान इस इलाके में जापानी सेना ने काफी दूर तक आ गई थी। नए समीकरण में जापान की
भूमिका के कारण भारत की दिलचस्पी बढ़ी है। चीन का वास्तविक प्रतिस्पर्धी जापान है,
अमेरिका नहीं।
हरिभूमि में प्रकाशित
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