Sunday, June 26, 2022

धागे से लटकी उद्धव सरकार


महाराष्ट्र में मचा राजनीतिक घमासान अब विधानसभा सचिवालय और राजभवन तक पहुँच चुका है। इस मसले को अब तक फ्लोर-टेस्ट के लिए विधानसभा तक पहुँच जाना चाहिए था, पर अभी मानसिक लड़ाई चल रही है।  लगता नहीं कि महाविकास अघाड़ी सरकार चलेगी, पर फिलहाल वह एकजुट है। यह एकजुटता कब तक चलेगी, यही देखना है। विधानसभा उपाध्यक्ष यदि कुछ सदस्यों के निष्कासन का फैसला करेंगे, तो मामला अदालतों में भी जा सकता है। जिसका मतलब होगा विलम्ब। यह लड़ाई प्रकारांतर से बीजेपी लड़ रही है और दोनों पक्ष फिलहाल कानूनी पेशबंदियाँ कर रहे हैं। महाराष्ट्र के खिसकने का मतलब है राजनीतिक दृष्टि से देश के दूसरे और आर्थिक दृष्टि से पहले नम्बर के राज्य का राकांपा और कांग्रेस के हाथ से निकल जाना। साथ ही शिवसेना के सामने अस्तित्व का संकट है।

हिन्दुत्व का सवाल

शिवसेना के सामने हिन्दुत्व का सवाल भी है। कांग्रेस और राकांपा के साथ जाने पर पार्टी के हिन्दुत्व का धार पहले ही कम हो चुकी थी। इस बगावत ने धर्मसंकट पैदा कर दिया है। वर्तमान उद्वेलन के पीछे चार कारण नजर आते हैं। एक, हिन्दुत्व और विचारधारा के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी से अलगाव और एनसीपी, कांग्रेस से दोस्ती। दो, ठाकरे परिवार का वर्चस्व। 2019 में जब सरकार बन रही थी, तब उद्धव ठाकरे ने कोशिश की थी कि उनके बेटे आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाया जाए। तब शरद पवार ने उन्हें समझाया था। तीसरा कारण है बृहन्मुम्बई महानगरपालिका (बीएमसी) का आसन्न चुनाव, जिसमें शिवसेना के अंतर्विरोध सामने आएंगे। इन तीन कारणों की प्रकृति कमोबेश एक जैसी है। इनके अलावा जिस कारण का जिक्र एनसीपी, कांग्रेस और उद्धव ठाकरे भी कर रहे हैं, वह है बीजेपी का ऑपरेशन कमल। यानी कि बीजेपी ने इस उद्वेलन को हवा दी है। कुछ और कारण भी हैं, पर इन चार वजहों की कोई न कोई भूमिका है।  

बीएमसी चुनाव

इस साल अक्तूबर तक राज्य के शहरी निकायों के चुनाव भी होने हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बृहन्मुम्बई महानगरपालिका (बीएमसी) का चुनाव है, जो देश की सबसे समृद्ध नगर महापालिका है। इस साल इसका बजट 45 हजार 900 करोड़ रुपये से ऊपर का है। इसके हाथ से निकलने का मतलब है शिवसेना की प्राणवायु का रुक जाना।  मुम्बई और राज्य के कुछ क्षेत्रों में शिवसैनिकों के हाथों में सड़क की राजनीति भी है। उद्योगों तथा कारोबारी संस्थानों के श्रमिक संगठनों से जुड़े ये कार्यकर्ता शिवसेना के हिरावल दस्ते का काम करते हैं। इनके दम पर ही संजय राउत बार-बार एकनाथ शिंदे को मुम्बई आने की चुनौती दे रहे हैं। हालांकि बीजेपी प्रत्यक्षतः इस बगावत के पीछे अपना हाथ मानने से इनकार कर रही है, पर पर्यवेक्षक मानते हैं कि शिंदे यदि सफल हुए, तो उसमें काफी हाथ बीजेपी का ही होगा।

अस्तित्व का संकट

इस संकट ने भारतीय राजनीति के चरित्र को उघाड़ कर रख दिया है। इसके कारणों को समझने के लिए हमें दो दशक पीछे जाना होगा। इसके साथ मराठा राजनीति के मूल चरित्र, विचारधारा की भूमिका और भारतीय जनता पार्टी के क्रमशः होते विस्तार पर नजर रखनी होगी। इसमें दो राय नहीं कि इस समय उद्धव ठाकरे के सामने मुश्किल चुनौती है और उनके अस्तित्व पर ही बन आई है। इस परिस्थिति के लिए काफी हद तक वे खुद जिम्मेदार हैं। हैरत की बात है कि उद्धव ठाकरे की नाक के नीचे उनके विश्वसनीय मंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बड़ी संख्या में विधायकों ने विद्रोह कर दिया और उन्हें इसकी ख़बर ही नहीं लगी। जानकार बताते हैं कि राज्य में यह बात आम जानकारी थी कि एकनाथ शिंदे नाख़ुश हैं।

निष्क्रिय ठाकरे

इस मामले को तूल देने में भारतीय जनता पार्टी का हाथ होगा, पर मूल समस्या तो शिवसेना के भीतर जन्मी है। एकनाथ शिंदे यदि अपने मंतव्य में सफल हुए, तो शिवसेना के साथ राकांपा और कांग्रेस के हाथ से एक बेहद महत्वपूर्ण राज्य निकल जाएगा। पिछले ढाई साल में महाविकास अघाड़ी सरकार ने कोविड के ख़िलाफ़ अच्छा काम किया, लेकिन इसके अलावा नाकामियां ही बटोरी हैं। मुख्यमंत्री के रूप में उद्धव ठाकरे न तो जनता के बीच गए और न अपने विधायकों से मिले। वे अपने घर से बाहर बहुत कम निकले। यों भी वे दिल के मरीज़ हैं और 2012 में सर्जरी के बाद उन्हें 8 स्टेंट भी लग चुके हैं। नवंबर 2021 में उनकी रीढ़ की सर्जरी भी हुई है। उन्होंने अधिकतर कैबिनेट बैठकें वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए ही कीं। वे बहुत कम मंत्रालय गए।

बढ़ते अंतर्विरोध

महाराष्ट्र के अंतर्विरोध हाल में हुए राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावी नतीजों में व्यक्त हो गए थे। ये अंतर्विरोध केवल शिवसेना से जुड़े हुए ही नहीं हैं। इनके पीछे एनसीपी और कांग्रेस के भीतर चल रही उमड़-घुमड़ भी जिम्मेदार है। आरोप यह भी है कि महाराष्ट्र के इस गठबंधन का सबसे ज्यादा फायदा शरद पवार की पार्टी ने उठाया। यह आरोप केवल शिंदे गुट का नहीं है, बल्कि कांग्रेस के विधायकों का भी है। इस साल के पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों बाद महाराष्ट्र के विधायकों के मन में अपने भविष्य को लेकर सवाल उठने लगे थे। एक तरफ शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस पार्टी के महा विकास अघाड़ी के बीच दरार बढ़ी, वहीं तीनों पार्टियों के भीतर से खटपट सुनाई पड़ने लगी। सबसे बड़ा असमंजस कांग्रेस के भीतर था। पार्टी के विधायकों का एक दल अप्रैल के पहले हफ्ते में हाईकमान से मिलने दिल्ली भी आया था। कांग्रेस के नेता दबे-छुपे पंजाब और उत्तर प्रदेश में पार्टी की दुर्दशा देखकर परेशान हैं और उन्हें लगने लगा है कि यहाँ अब और रुकना खतरे से खाली नहीं है। उनका विचार है कि 2024 के विधान सभा चुनाव तक अघाड़ी बना भी रहा, तो वह सफल नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने विकल्प की तलाश शुरू कर दी है। शिवसेना के पास मुख्यमंत्री पद होने के बावजूद उसके नेता भी नाराज हैं। गत 22 मार्च को शिवसेना के सांसद श्रीरंग बारने ने कहा था कि सबसे ज्यादा फायदा शरद पवार की राकांपा ने उठाया है। नेतृत्व करने के बावजूद शिवसेना को नुकसान उठाना पड़ रहा है। शिवसेना विधायक तानाजी सावंत ने भी ऐसी ही बात कही थी।

भाजपा से अलगाव

फिलहाल बगावत का सबसे बड़ा कारण है भाजपा से हुआ अलगाव। एक समय तक राज्य में शिवसेना बड़ी पार्टी थी और भाजपा उसकी अनुगामिनी थी, पर 2014 से स्थिति बदल गई और भाजपा ने शिवसेना नेतृत्व से कहा कि आप वास्तविकता को समझे। 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा और शिवसेना गठबंधन बनाकर उतरे थे। 105 विधायकों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। शिवसेना के 56 प्रत्याशी चुनाव जीते। इस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत प्राप्त था, पर मुख्यमंत्री पद को लेकर शिवसेना ने अड़ंगा लगा दिया और अंततः शरद पवार की पहल पर अघाड़ी की सरकार बनी। चुनाव में राकांपा के 54 और कांग्रेस के 44 प्रत्याशी जीतकर आए थे। शिवसेना के विधायकों के शामिल हो जाने के बाद अघाड़ी को बहुमत प्राप्त हो गया।

भविष्य का गणित

पर्यवेक्षक मानते हैं कि भाजपा के सामने तत्काल सत्ता में वापस आने की तुलना में भविष्य के गठबंधन की रूपरेखा बनाने का लक्ष्य ज्यादा महत्वपूर्ण है। राज्य में विधानसभा चुनाव अक्तूबर 2024 में होंगे, पर उससे पहले पार्टी अप्रैल-मई 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति को सुनिश्चित कर लेना चाहेगी। नवम्बर 2019 में बीजेपी के संचालकों को धक्का लगा था। उन्होंने या तो सरकार बनाने की संभावनाओं को ठोक-बजाकर देखा नहीं और धोखा खा गए। पर उन्हें यकीन था कि शिवसेना के अंतर्विरोध उसे देर-सबेर घेरेंगे। वैसा ही अब हो रहा है।

भाजपा का वर्चस्व

2019 में भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटना एक नई दुविधा भरी राजनीति का प्रारंभ था। इस कहानी के सूत्रधार एनसीपी के बुजुर्ग नेता शरद पवार हैं, जिन्हें राजनीतिक जोड़-तोड़ का बेहतरीन खिलाड़ी माना जाता है। इन्हीं पवार ने 2014 में विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी को ‘फ्लोर टेस्ट’ पार करने में मदद की थी, जिसके बाद शिवसेना ने घुटने टेक दिए थे। सन 2014 में शिवसेना ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा, पर बीजेपी की ताकत और बढ़ गई। फ्लोर टेस्ट में बीजेपी की सफलता के बाद घबराकर शिवसेना ने सरकार में शामिल होना स्वीकार कियापर उसके अलग होने की भूमिका तैयार होने लगी। चुनाव के बाद बनी सरकार में शिवसेना को महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं दिए गए। उनके मंत्रियों की फाइलों को लेकर सवाल किए गए। बीजेपी नेताओं ने ‘मातोश्री’ जाकर राय-मशविरा बंद कर दिया। शायद यह सब सोच-समझकर हुआ, ताकि शिवसेना को अपनी जगह का पता रहे। शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के आंतरिक-टकराव की पृष्ठभूमि सन 2009 में तैयार हो गई थी, जब विधानसभा चुनाव में बीजेपी को शिवसेना से ज्यादा सीटें मिलीं। उसके पहले तक महाराष्ट्र में शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में थी। उसके बाद उसे समझ में आ गया था कि भूमिका बदल रही है।

पवार की राजनीति

2019 में शरद पवार शिवसेना को यह समझा पाने में कामयाब हुए कि ‘भारतीय जनता पार्टी की छत्रछाया में’ शिवसेना का विकास संभव नहीं है। बीजेपी के आने से आपका आधार कमजोर हुआ है वगैरह। शिवसेना और एनसीपी दोनों का जातीय आधार ओबीसी मराठा वोट है। उसके साथ मुस्लिम वोट भी शामिल है, पर शिवसेना ने पिछले तीन दशक से हिंदुत्व का दामन पकड़े रखा है, क्या उसे वह छोड़ पाएगी? अब शिवसेना के विधायकों के मन में सवाल है कि क्या एनसीपी और कांग्रेस की छत्रछाया में हमारा विकास सम्भव है? इतनी बड़ी संख्या में विधायक अनायास ही गुवाहाटी में जाकर बैठ नहीं गए हैं। उन्हें अपना भविष्य खतरे में दिखाई पड़ रहा है। महाराष्ट्र में भाजपा अब ज्यादा बड़ी शक्ति हैं। शिवसेना केवल मुम्बई की पार्टी के रूप में सिकुड़ती जा रही है। 

हरिभूमि में प्रकाशित

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