पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की 1992 की एक बहुचर्चित टिप्पणी है, ‘इट इज द इकोनॉमी स्टुपिड’। यानी सारा खेल अर्थव्यवस्था का है। नब्बे के दशक में जब वैश्वीकरण ने शक्ल लेनी शुरू की, तब इसका केवल आर्थिक पक्ष ही सामने नहीं था। इसके तीन पहलू हैं: आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक। इन तीन वर्गीकरणों में सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और तमाम दूसरे विषय शामिल हैं। एक मायने में वैश्वीकरण का मतलब है मानव-समुदाय का साझा विकास। 1992 में ही फ्रांसिस फुकुयामा की किताब ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री’ भी प्रकाशित हुई थी। ‘इतिहास का अंत’ एक तरह से शीत-युद्ध की अवधारणा और पश्चिम की विजय की घोषणा थी। सोवियत संघ के पराभव के बाद पूँजीवाद और खासतौर से अमेरिकी प्रभुत्व के आलोचकों और फुकुयामा समर्थकों के बीच बहस छिड़ी थी, जो आज भी जारी है।
वैश्विक सप्लाई-चेन
दुनिया की सप्लाई-चेन चीन के गुआंगदोंग,
अमेरिका के ओरेगन, भारत के मुम्बई, दक्षिण अफ्रीका के डरबन, अमीरात के दुबई,
फ्रांस के रेन से लेकर चिली के पुंटा एरेनास जैसे शहरों से होकर गुजरने वाले
विमानों, ईमेलों, कंटेनर पोतों, रेलगाड़ियों, पाइपलाइनों और ट्रकों पर सवार होकर
चलती है। एयरबस, बोइंग, एपल, सैमसंग, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, ऑरेकल, वीज़ा और
मास्टरकार्ड ने अपने बहुराष्ट्रीय ऑपरेशनों की मदद से दुनिया को जोड़ रखा है। एक
देश से उठकर कच्चा माल दूसरे देश में जाता है, जहाँ वह प्रोडक्ट के रूप में तैयार
होकर फिर दूसरे देशों में जाता है।
महामारी ने दुनिया की पारस्परिक-निर्भरता की
जरूरत के साथ-साथ विश्व-व्यवस्था की खामियों को भी उभारा। यूक्रेन के युद्ध ने इसे
जबर्दस्त धक्का दिया है। कहा जा रहा है कि लागत कम करने की होड़ में ऐसे तानाशाही
देशों का विकास हो गया है, जो मानवाधिकारों के विरुद्ध हैं। यानी रूस और चीन। पिछले
पाँच वर्षों से वैश्विक-तंत्र में तनाव बढ़ रहा है। अमेरिका और चीन के बीच
आयात-निर्यात शुल्कों के टकराव के साथ इसकी शुरुआत हुई। संरा कांफ्रेंस ऑन ट्रेड
एंड डेवलपमेंट (अंकटाड) के निवेश तथा उद्यमिता निदेशक जेम्स जैन ने हाल में अपने
एक लेख में लिखा कि इस दशक में 2030 आते-आते ग्लोबल वैल्यू चेन के रूपांतरण की
सम्भावना है।
रूपांतरण शुरू
यह रूपांतरण नजर आ रहा है। एपल ने कुछ प्रोडक्ट्स का उत्पादन चीन से हटाकर वियतनाम में शुरू कर दिया है। चीनी कम्पनियों ने मोंटेरी, मैक्सिको में एक विशाल औद्योगिक पार्क स्थापित किया है, ताकि अमेरिकी उपभोक्ताओं की माँग करीबी देश से पूरी की जा सके। मई के महीने में सैमसंग, स्टेलैंटिस और ह्यूंडे ने अमेरिका की इलेक्ट्रिक कार फैक्टरियों में 8 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। तीन दशक पहले जो बाजार चीन-केंद्रित था, वह दूसरी जगहों की तलाश में है। बहुत से देश ‘आत्मनिर्भरता’ की नीति अपना रहे हैं।
हालांकि कारोबार अब भी
वैश्विक है, पर पहले जैसा एकीकृत और किफायती नहीं। ब्रिटिश
पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने लिखा है कि महामारी के पहले ही संकेत मिलने लगे थे कि ‘ग्लोबलाइजेशन’ अब ‘स्लोबलाइजेशन’
होता जा रहा है। अमेरिकी कम्पनियों का विदेशी राजस्व ठप होने लगा, कमाई गिरने लगी।
इसकी एक वजह थी कि उद्योगों में ऑटोमेशन बढ़ने लगा, जिससे सस्ती मजदूरी वाले
इलाकों का महत्व कम हो गया। उन देशों में भी जहाँ नब्बे के दशक में नए उद्योग आए
थे, मजदूरी बढ़ने लगी।
कुछ हादसों ने भी अपनी भूमिका अदा की। 2011 के
तोहोकू भूकम्प के कारण जापानी कार-सप्लाई ठप हो गई और सिलिकन वैफर उत्पादन पर
विपरीत प्रभाव पड़ा। उसी साल थाईलैंड में बाढ़ आने से हार्ड-ड्राइव हब पानी में
डूब गया। इनका असर होता या न होता कि 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप
ने चीन के साथ व्यापार-युद्ध शुरू कर दिया। उसके बाद वैश्विक सप्लाई चेन में बदलाव
की बातें होने लगीं।
सितंबर 2020 में जापान, भारत
और ऑस्ट्रेलिया ने चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए त्रिपक्षीय ‘सप्लाई चेन
रेज़ीलिएंस इनीशिएटिव’ की शुरुआत की। अन्य देशों से भी इसमें शामिल होने का आग्रह
किया गया। संयोग से ये तीनों देश एशिया प्रशांत क्षेत्र में सामरिक सहयोग भी कर
रहे हैं, जो घोषित रूप से चीन के विरुद्ध नहीं है,
पर व्यावहारिक रूप से चीन-विरोधी मोर्चा है। सच यह भी है कि 2019 तक
दुनिया के बड़े उद्योगों को होने वाली करीब एक चौथाई सप्लाई चीन से थी। रसायन, बल्क
औषधियाँ, इलेक्ट्रॉनिक्स और वस्त्र इसमें शामिल हैं। हाल में चीन ने अपने यहाँ
जीरो कोविड अभियान शुरू किया है, जिसके कारण उसके उद्योग बंद पड़े हैं। इससे
वैश्विक सप्लाई चेन प्रभावित हुई है।
नया शीतयुद्ध
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद पेट्रोलियम और
अनाज के बाजार पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। रूस और चीन के गठजोड़ की सम्भावनाओं और
पश्चिमी देशों द्वारा लगाई जा रही पाबंदियों का असर वैश्वीकरण पर पड़ा है। यूरोप
लिक्विफाइड नेचुरल गैस की खरीद के नए रास्ते खोज रहा है। वैश्विक व्यवस्था में कुछ
नए इंफ्रास्ट्रक्चर और दीर्घकालीन समझौते होने लगे हैं। दूसरी तरफ देशों ने अपने
उद्योगों को संरक्षण देना शुरू कर दिया है। अमेरिका ने बायोटेक्नोलॉजी सॉफ्टवेयर
और सेमीकंडक्टरों से जुड़ी तकनीक के निर्यात पर पाबंदियाँ लगा दी हैं।
वैश्वीकरण केवल आर्थिक गतिविधि नहीं है। उसके
पीछे राजनीति भी है। अर्थशास्त्रियों को केवल आपस में जुड़े बाजारों का अलगाव ही
नजर नहीं आ रहा है, बल्कि वैश्वीकरण से जुड़ी प्रगति खत्म होती नजर आ रही है। यूक्रेन
के कारण पैदा हुई बुनियादी चीजों की कमी उच्च आय वाले देशों से ज्यादा विकासशील
देशों पर असर डाल रही है। जो सस्ते आटे और तेल के आयात पर निर्भर थे वे भुखमरी का
सामना कर रहे हैं। वैश्वीकरण के तंत्र को तोड़ा भी नहीं जा सकता और आगे बढ़ने में
दिक्कतें हैं। इसलिए उसकी पुनर्रचना या पुनर्जन्म की जरूरत है।
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