पैग़ंबर मोहम्मद के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर शुक्रवार को देश के अलग-अलग शहरों में जिस स्तर पर विरोध-प्रदर्शन हुए हैं, उन्हें लेकर चिंता पैदा होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र के अलावा जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन हुए हैं। कई जगह इंटरनेट सेवाओं को स्थगित करना पड़ा है। विरोध यदि लोकतांत्रिक तरीके से किया जाए, तो इसमें आपत्ति नहीं है, पर यदि पत्थरबाजी और आगजनी जैसी हिंसक कार्रवाइयों का सहारा लिया जाएगा, तो चिंता होना स्वाभाविक है। इस दौरान सकारात्मक बातें भी हुई हैं। दिल्ली के शाही इमाम ने खुद को जामा मस्जिद के बाहर हुए प्रदर्शन से अलग किया। दूसरी तरफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम मौलानाओं से कहा है कि वे ऐसी टीवी बहसों में शामिल नहीं हों, जिनका उद्देश्य ‘इस्लाम और मुसलमानों’ का अपमान करना हो। सवाल है कि कौन है जो ‘इस्लाम और मुसलमानों’ का अपमान करना चाहता है? पर ऐसी बहसों की जरूरत ही क्या है? वैश्विक-मंच पर यह चुनौतियों से भरा समय है। भारत सरकार पर भी मित्र-देशों के साथ सम्बन्ध बनाए रखने की चुनौती है। सरकार राष्ट्रीय-हितों को देख-समझकर ही कदम उठाती है। इसलिए हमें माहौल को शांत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इन उपद्रवों के कारण मुसलमानों का गुस्सा सामने जरूर आया है, पर उनके आंदोलन का नैतिक-आधार कमजोर हुआ है।
खुल्लम-खुल्ला विद्वेष
समय आ गया है कि मीडिया में इस्तेमाल की जा रही
भाषा और अभिव्यक्ति के बारे में पुनर्विचार किया जाए। टीवी की बहसों में जो
अनाप-शनाप बातें खुल्लम-खुल्ला बोली जा रही हैं, चिंता
उनपर भी होनी चाहिए। इसके पीछे राजनीतिक कारण भी हैं, पर राजनीति के कारण यह
विद्वेष नहीं है। हमारे सामाजिक जीवन में यह दरार पहले से मौजूद है, जिसका
प्रतिविम्ब हमें राजनीति में देखने को मिल रही है। देश के विभाजन ने इस दरार को और
गहरा किया है। अलबत्ता इन जहरीली बातों से ध्रुवीकरण बढ़ेगा। मुसलमानों को कुछ भी
नहीं मिलेगा, बल्कि नुकसान होगा। देखना होगा कि हिंसक-रोष अनायास है या इसके पीछे
कोई योजना है? भारत सरकार के स्पष्टीकरण और सम्बद्ध दोनों
व्यक्तियों के पार्टी से निष्कासन और एफआईआर दर्ज होने के बावजूद इतने बड़े स्तर
पर भावनाओं को किसने भड़काया? अभी यह तय होना है कि जिस टिप्पणी को
लेकर आंदोलन खड़ा हुआ है, उसमें आपत्ति किस बात पर है। टिप्पणीकार
का और उनके साथ बहस करने वाले का लहजा कैसा था वगैरह। पर यह सब कौन तय करेगा? कोई अदालत ही तय कर सकती है। जाँच इस बात की भी होनी चाहिए कि टीवी
डिबेट के बाद सोशल मीडिया पर किसने इसे ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ का रंग दिया? किसने इसका अरबी में अनुवाद करके पश्चिम एशिया में सनसनी फैलाई?
बैकलैश का खतरा
क्या किसी को उस ‘बैकलैश’ का अनुमान है, जो
इसके बाद सम्भव है? किसी ने सोचा है कि
अरब देशों की कड़वी बातों और देशभर में हुए हिंसक-विरोध की प्रतिक्रिया कैसी होगी? कुछ लोगों को लगता है कि इससे
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की फज़ीहत होगी। इस बात से उन्हें खुशी क्यों मिलती है?
उनका इसमें क्या फायदा है? देश की बहुसंख्यक जनता की खामोशी को
पढ़ने की कोशिश भी कीजिए। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि भारत
सरकार ने अरब देशों के दबाव को मानते हुए जवाब दिया और कार्रवाई की। पर किसलिए?
क्योंकि करीब 85 लाख भारतीय पश्चिम एशिया के देशों में काम करते हैं।
उनमें बड़ी संख्या मुसलमानों की है। उनके हितों को चोट न लगने पाए। अरब देशों के
हित भी हमारे साथ जुड़े हैं। अरब देशों का ऐसा ही रुख जारी रहा, तो उनके खिलाफ भी भारत में माहौल बनेगा। देश की जनता अपने अंदरूनी
मामलों में विदेशी-हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेगी। पेट्रोलियम का कारोबार खत्म
होने वाला है। उन्हें पूँजी निवेश के लिए नए बाजार की जरूरत है।
पाकिस्तानी भूमिका
भारत-विरोधी परियोजनाओं के पीछे प्रत्यक्ष या
परोक्ष पाकिस्तान का हाथ भी होता है। भारत में कौन लोग हैं, जो
इसे अंतरराष्ट्रीय रंग देना चाहते हैं? शाहीनबाग,
हिजाब और जहाँगीरपुरी जैसे प्रसंगों के बाद पीएफआई और एसडीपीआई जैसे
संगठनों के नाम सामने आए हैं। इस मसले को ही नहीं अपने सभी मसलों को हम देश की
उपलब्ध न्याय-प्रणाली के अनुसार ही सुलझाएंगे। पर एक नजर पाकिस्तान पर डालना जरूरी
है। इसकी एक वजह ईशनिंदा से जुड़ा कानून है, जो
विभाजन से पहले के अंग्रेजी राज की देन है और जिसमें स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान
में बदलाव किया गया। पिछले साल शुक्रवार 3 दिसंबर को पाकिस्तान के शहर सियालकोट
में उन्मादी भीड़ ने ईशनिंदा के नाम पर श्रीलंका के एक नागरिक की बर्बर तरीके से
पीट-पीट कर हत्या कर दी और बाद में उनके शव में आग लगा दी। प्रियांथा कुमारा नाम
के श्रीलंकाई नागरिक ईसाई थे और सियालकोट ज़िले में वज़ीराबाद रोड स्थित एक परिधान
फैक्ट्री राजको इंडस्ट्रीज़ में मैनेजर के तौर पर पिछले नौ साल से काम कर रहे थे।
इस हत्या के बाद पाकिस्तान की न्याय-व्यवस्था ने आनन-फानन सजाएं भी दे दी हैं।
इसकी एक वजह दुनिया में हुई बदनामी है।
ईशनिंदा
ईशनिंदा के नाम पर हिंसा ऐसा अपराध है, जिसमें
हत्यारों को हीरो बना दिया जाता है। उनपर फूल मालाएं चढ़ाई जाती हैं। उन्हें फाँसी
की सजा मिल जाए, तो उनकी कब्र को तीर्थ का रूप दे दिया
जाता है। एक नहीं ऐसे अनेक मामले हैं। पाकिस्तान के इस कानून की पृष्ठभूमि में
अविभाजित भारत की घटनाएं है। 1920 के दशक में भारत के हिन्दू और मुस्लिम
सम्प्रदायों के बीच करीब-करीब ऐसी ही बहसें चल रही थीं, जैसी आज हैं। सन 1929 में
लाहौर के प्रकाशक महाशय राजपाल की हत्या इल्मुद्दीन नाम के एक किशोर ने कर दी।
इल्मुद्दीन को हत्या के आरोप में फाँसी की सजा हुई थी, पर
पाकिस्तान में आज भी उसे गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद माना जाता है। उसकी कब्र पर हजारों
की भीड़ जमा होती है। खैबर पख्तूनख्वा सरकार के आदेश से स्कूली शिक्षा के
पाठ्यक्रम में एक अध्याय गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद पर भी है।
धारा 295(ए)
महाशय राजपाल की हत्या के पहले ब्रिटिश सरकार ने 1927 में भारतीय दंड संहिता में धारा 295 (ए) जोड़ दी थी, जिसका उद्देश्य हेट स्पीच और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने की कोशिशों को रोकना था। अंग्रेज सरकार के कानून में ज्यादा से ज्यादा दो साल की कैद की सजा थी, पर आज के पाकिस्तानी कानून में मौत की सजा है। इसके कारण पाकिस्तानी समाज में कट्टरता बढ़ी है। कोई भी किसी पर भी आरोप मढ़कर उसकी हत्या कर देता है। पाकिस्तान यह भी चाहता है कि ईशनिंदा का जैसा कानून उसके यहाँ है, उसे दुनिया स्वीकार करे। वहाँ ईशनिंदा के कारण हत्या करने वाले को हीरो बना दिया जाता है। जैसे सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज़ कादरी को बनाया गया। अदालत ने 2016 में कादरी को फाँसी दे दी, पर जिस दिन उसे दफनाया गया था, उसी दिन उसका स्मारक बनाने के लिए आठ करोड़ रुपये जमा हो गए थे और उसका स्मारक बन गया है। पाकिस्तानी समाज में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पाकिस्तान की अवधारणा के जनक इकबाल और जिन्ना तक ने ऐसी हत्याओं का समर्थन किया था। यह समर्थन महाशय राजपाल की हत्या करने वाले किशोर इल्मुद्दीन के लिए था।
फ्रांस में हत्याएं
अक्तूबर-नवम्बर 2020 में फ्रांस में गला काटने
की कुछ घटनाएं हुईं थीं, जिनके बाद यह बहस फिर शुरू हुई कि
महत्वपूर्ण क्या है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या ईशनिंदा का विरोध? फ्रांस में ईशनिंदा अपराध नहीं माना जाता। वहाँ इसे अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के दायरे में रखा जाता है। इस वजह से पिछले आठ-दस साल से आए दिन हिंसक
घटनाएं हो रही हैं। फ्रांस में करीब 85 लाख मुसलमान रहते हैं, जो यूरोप में इस समुदाय की सबसे बड़ी आबादी है। पश्चिम एशिया के
देशों में अराजकता और हिंसा के कारण काफी बड़ी आबादी को यूरोप में शरण मिली है।
ऐसे में दो प्रकार के समाजों का टकराव हो रहा है। कट्टरता के कई रूप और कई स्तर
हैं। सन 2004 में फिल्म निर्देशक थियो वैनगॉफ की हत्या की गई। उन्होंने सोमालिया
में जन्मी लेखिका अयान हिर्सी अली के साथ मिलकर फिल्म ‘सब्मिशन’ बनाई थी। वे
इस्लामी दुनिया में स्त्रियों के प्रति किए जा रहे व्यवहार को लेकर आवाज़ उठा रहे
थे। उनपर भी आरोप था कि वे मुसलमानों को उकसा रहे थे। इसी तरह 2013 से 2016 के बीच
बांग्लादेश में ब्लॉग लिखने वालों की हत्याएं हुईं। अपने आप को ज्यादा कट्टरपंथी
साबित करने की होड़ लगी है।
सौहार्द चाहिए
यह बात केवल इस्लामी कट्टरता से नहीं जुड़ी है।
हर रंग की कट्टरता से जुड़ी है। ईसाई आतंकवादी भी दुनिया में हैं। नव-नाज़ी भी
हैं। कट्टरपंथी हिन्दुत्व भी हिंसक है। पर हम मध्य युग में वापस नहीं जा सकते, जब धर्म
के नाम पर हत्याकांड हो रहे थे। आधुनिकता का मतलब है कट्टरपंथी दायरों से बाहर
निकलना। हमें इंसान-परस्ती, न्याय-परस्ती और विज्ञान-परस्ती की जरूरत है, जो
मानव-समाज के सामने खड़ी चुनौतियों का सामना कर सके। सभी धर्मों, समाजों और
संस्कृतियों से सकारात्मक बातों को चुनना चाहिए। हम उस दिशा में बढ़ भी रहे हैं और
ये घटनाएं उस बदलाव को रोकने की कोशिश हैं। अफसोस की बात है कि यह सब ऐसे वक्त में
हो रहा है, जब देश महामारी से लड़ते हुए बाहर निकला है और अर्थव्यवस्था नए रास्ते
खोज रही है।
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