इंडियन एक्सप्रेस में आज किसान-आंदोलन के सिलसिले में सुहास पालशीकर ने लिखा है कि देखना होगा कि इस आंदोलन के बारे में उन लोगों की राय क्या बनती है, जो किसान नहीं हैं। पिछले साल इसी वक्त हुए सीएए एनआरसी विरोधी आंदोलन को मुसलमानों का आंदोलन साबित कर दिया गया। अब सरकार और किसानों के बीच बातचीत में से समझौता नहीं निकल पा रहा है। क्या बीजेपी इन माँगों को स्वीकार करेगी या पलटकर वार करेगी? इस दौरान ऐसी बातें भी सुनाई पड़ रही हैं कि आर्थिक सुधारों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं रोक रही हैं।
पालशीकर ने लिखा है कि किसानों का आंदोलन शुरू होने के कुछ दिन बाद सरकार ने उनसे संवाद शुरू कर दिया। ऐसा सरकार करती नहीं रही है। इस वार्ता ने राजनीतिक लचीलेपन को स्थापित किया है। खेती से जुड़े कानूनों को बोल्ड आर्थिक सुधार के रूप में स्थापित किया गया है। वर्तमान प्रधानमंत्री गुजरात में भी ऐसे ही दावे करते रहे हैं। वे इस बात को कभी नहीं मानते कि सुधारों को लेकर मतभेद हो सकते हैं और ऐसे मामलों को मिलकर सुलझाना चाहिए।
छह साल तक लगातार प्रतिरोधों और संवाद को नकारने के बाद
सरकार अब बातचीत कर रही है। वर्तमान शासन किसी भी मतभेद या प्रतिरोध को तीन-आयामी
चश्मे से देखता है। पहला, समझदारी के ऊपर दंभी जिद-हमसे बेहतर कोई नहीं जानता।
दूसरे, दुर्भावना का चश्मा। इस बातचीत के दौरान खालिस्तान और कश्मीर का जिक्र होना
बता रहा है कि इस मामले का रिश्ता भी बहुसंख्यकों की राजनीति से जुड़ा है। तीसरा
है क्रूरता और ‘जनता’ का भय। सरकार ने किसानों के
दिल्ली प्रवेश को रोकने के लिए दमन का सहारा लिया।
इस आंदोलन ने अभी तक अपने आप को
राजनीतिक दलों से दूर रखा है। चूंकि सरकार तो सावधानी के साथ अपने राजनीतिक खाँचे
में ही काम करती है, इसलिए आंदोलन को गैर-राजनीतिक बनाए रखने का कोई मतलब नहीं है।
अकाली दल ने खुद को एनडीए से अलग कर लिया है और सीनियर बादल ने अपने पद्म पुरस्कार
को वापस कर दिया है और ज्यादातर गैर-भाजपा दल सही प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं,
पर आंदोलन ने खुद को राजनीतिक 0लों से दूर रखा है। यदि पूरे देश के किसानों को जोड़ना
है, तो राजनीतिक दलों को इसके साथ जोड़ना जरूरी होगा। नेतृत्व के अभाव और राजनीतिक
दलों की भूमिका के बगैर यह आंदोलन उस नए राजनीतिक मंथन को शुरू नहीं कर पाएगा,
जिसकी हमें सख्त जरूरत है। मामला केवल खेती से जुड़ी नीतियों का नहीं, बल्कि हर
तरह की नीतियों का है। पिछले छह साल में देश मेजोरिटेरियन राष्ट्रवाद की दिशा में
आगे बढ़ा है। सरकार भी लोकतांत्रिक अधिनायकवाद की दिशा में काम कर रही है। बेशक
बीजेपी ने हमें यहाँ तक पहुँचाया, पर लोकतांत्रिक अधिनायकवाद की वृहत प्रवृत्ति
खतरनाक है। बीजेपी ने इसे वैधता प्रदान की है, पर दूसरे बहुत से दलों को भी इस
मामले में आरोप मुक्त नहीं किया जा सकता। जब तेलंगाना की टीआरएस सरकार हड़ताली
कर्मचारियों से बात करने से इनकार किया था, तो उसपर भी यही बात लागू होती है।
किसान आंदोलन में बातचीत के बाद जो भी समझौता होगा, उसके
इर्द-गिर्द तमाम बातें जोड़ी जाएंगी, पर इस आंदोलन को इस बात का श्रेय जाएगा कि उसने
एक स्वयंभू मसीहा को मामूली प्रधानमंत्री बना दिया। समझौता होने का मतलब है ताकतवर
सुप्रीम नेता का सामान्य राजनीतिक व्यक्ति बनना। यदि ऐसा हुआ तो एक ‘सामान्य’ राजनीति की शुरुआत होगी, जिसमें संवाद होते हैं,
मतभेदों को स्वीकार किया जाता है और नेतृत्व की छवि अनम्य लौह-दृढ़ता की नहीं
होती।
पूरा
लेख पढ़ें इंडियन एक्सप्रेस में
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