महामारी के कारण यह साल अपने आप वैश्विक स्वास्थ्य-चेतना वर्ष बन गया है। पर वैश्विक स्वास्थ्य-नीतियों का इस दौरान पर्दाफाश हुआ है। पिछले एक हफ्ते में स्वास्थ्य से जुड़ी तीन बड़ी खबरें हैं। गत 12 दिसंबर को स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) जारी किया, जिसके अनुसार बाल पोषण के संकेतक उत्साहवर्धक नहीं हैं। बच्चों की शारीरिक विकास अवरुद्धता में बड़ा सुधार नहीं है और 13 राज्यों मे आधे से ज्यादा बच्चे और महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं।
इस रिपोर्ट पर बात हो ही रही थी कि शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के एक पीठ ने स्वास्थ्य को नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश सरकार को दिए हैं। तीसरी खबर यह है कि भारत में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या एक करोड़ पार कर गई है। अमेरिका के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है, जहाँ एक करोड़ से ज्यादा कोरोना-पीड़ित हैं।
सुप्रीम कोर्ट की
टिप्पणियों ने खासतौर से ध्यान खींचा है। अदालत ने कहा, राज्य का कर्तव्य है कि वह सस्ती चिकित्सा की व्यवस्था करे।
पीठ ने 26 नवंबर को गुजरात के राजकोट में हुई आग की घटना का स्वतः संज्ञान लेते
हुए ये निर्देश दिए हैं। उस कोविड अस्पताल के आईसीयू वॉर्ड में हुए अग्निकांड से पाँच
मरीजों की मृत्यु हो गई थी।
मौलिक अधिकार
अदालत की टिप्पणी
में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। स्वास्थ्य नागरिक का मौलिक अधिकार है। दूसरे, इस
अधिकार में सस्ती या ऐसी चिकित्सा शामिल है, जिसे व्यक्ति वहन कर सके। अदालत के
कुछ पुराने फैसलों में भी इस बात की ध्वनि है कि अनुच्छेद 21 के तहत
स्वास्थ्य-रक्षा व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। व्यावहारिक रूप से उसकी स्थिति वही
है, जो शिक्षा के मौलिक अधिकार की है। सिद्धांत में है, व्यवहार में नहीं।
कोर्ट ने अपने
आदेश में कहा, ‘संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य मौलिक अधिकार है, जिसमें सस्ता उपचार
शामिल है। इलाज महंगा और महंगा होता गया है और यह आम लोगों के लिए वहन करने योग्य
नहीं रहा है। भले ही कोई कोविड-19 से बच गया हो, लेकिन वह आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका है। इसलिए सरकारी
अस्पतालों मे पूरे इंतजाम हों या निजी अस्पतालों की अधिकतम फीस तय हो। यह काम आपदा
प्रबंधन अधिनियम के तहत शक्तियों को प्रयोग करके किया जा सकता है।’
सुप्रीम कोर्ट का
निर्देश उत्साहवर्धक है, पर इसे अमली जामा कौन पहनाएगा? कोरोना-काल में देश की राजधानी के सरकारी
अस्पतालों से जिस तरह से मरीजों को वापस लौटाया गया, उससे मन में कड़वाहट है। संविधान में तो तमाम बातें हैं। भाग-4 में वर्णित नीति-निर्देशक तत्वों में भी
राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह नागरिकों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी ले।
अनुच्छेद 39 (ई), 42 और 47 इसके उदाहरण हैं। केंद्र, राज्य और ग्राम पंचायतों तक की
जिम्मेदारियाँ हैं।
सबके लिए स्वास्थ्य
इस विफलता के पीछे वैश्विक नीतियों की भूमिका भी है। सार्वजनिक स्वास्थ्य को
लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में तेजी से शुरू हुआ। सन 1978 में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता घोषणा
की थी-सन 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य! संयुक्त राष्ट्र
महासभा ने 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था की घोषणा और कार्यक्रम का मसौदा पास किया। उत्तर के विकसित देशों ने माना
कि विकासशील देशों की अनदेखी करना गलत है। आपसी विचार विमर्श की प्रक्रिया शुरू
हुई, जिसे उत्तर-दक्षिण संवाद कहा जाता है।
अल्मा-अता घोषणा
में स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की
नई सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें
लेंगी। इतनी बड़ी घोषणा के बाद अगले दो वर्षों में इस विमर्श पर कॉरपोरेट
रणनीतिकारों ने विजय प्राप्त कर ली। सन 1980 में विश्व बैंक ने
स्वास्थ्य से जुड़े अपने पहले नीतिगत दस्तावेज में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की
परिभाषा सीमित कर दी। वह चिकित्सा के स्थान पर निवारक (प्रिवेंटिव) गतिविधि भर रह
गई।
कारोबार हावी
नब्बे के दशक में
दुनिया ने पूँजी के वैश्वीकरण और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाना शुरू किया।
इस प्रक्रिया के केंद्र में पूँजी और कारोबारी धारणाएं ही थीं। ऐसे में गरीबों की
अनदेखी होती चली गई। इस साल जब दुनिया को महामारी ने घेरा तो हम पाते हैं कि
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं अस्त-व्यस्त हैं। निजी क्षेत्र ने मौके का फायदा उठाना
शुरू कर दिया। यह केवल भारत या दूसरे विकासशील देशों की कहानी नहीं है। फ्रांस, इटली, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे धनवान देशों का अनुभव है।
हैल्थकेयर इंडस्ट्री दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते कारोबारों में एक है। इसमें
दवाओं और उपकरणों से लेकर अस्पताल और सहायक सामग्री का प्रबंधन सब शामिल है। उनसे
कदम मिला रही हैं बीमा कंपनियाँ। दोनों तरह की ग्लोबल कंपनियों के साथ दुनियाभर
में सहायक कंपनियों की चेन बन गई है।
भारतीय नीतियाँ
तेज आर्थिक विकास
के बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च दुनिया के तमाम विकासशील देशों के मुकाबले कम
है। इस खर्च में सरकार की हिस्सेदारी और भी कम है। चीन में स्वास्थ्य पर प्रति
व्यक्ति व्यय भारत के मुकाबले 5.6 गुना है तो अमेरिका में 125 गुना। औसत भारतीय अपने स्वास्थ्य पर जो खर्च करता है, उसका 62 फीसदी उसे अपनी जेब से
देना पड़ता है। एक औसत अमेरिकी को 13.4 फीसदी, ब्रिटिश नागरिक को 10 फीसदी और चीनी नागरिक को
54 फीसदी अपनी जेब से देना होता है।
सार्वजनिक
स्वास्थ्य कवरेज पर योजना आयोग द्वारा गठित उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समूह की सिफारिशों
के अनुसार स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को बारहवीं योजना के अंत तक जीडीपी के 2.5 प्रतिशत और 2022 तक कम से कम 3 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहिए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 के अनुसार सन 2025 तक भारत में स्वास्थ्य
पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का 2.5 फीसदी हो जाएगा। पर सन 2019-20 के केंद्र और राज्यों के बजटों पर नजर डालें, तो यह व्यय जीडीपी के 1.6 फीसदी के आसपास था।
पिछले साल के
केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य के लिए धनराशि का आबंटन कुल बजट का 2.4 फीसदी था, जो चालू वित्त वर्ष के
बजट में घटकर 2.3 फीसदी हो गया। यह रकम जीडीपी की 0.3 फीसदी है। इन आँकड़ों की भाषा के बजाय सीधे-सीधे समझना है, तो यह समझिए की अब सरकार स्वास्थ्य सेवा प्रदाता नहीं, सेवा की ग्राहक है। स्वास्थ्य सेवाओं का जिम्मा निजी
क्षेत्र के पास है। सरकार उनसे सेवा खरीदती है।
बहुत ही उपयोगी जानकारी। ।।।। सुंदर लेखन।।।।
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