Thursday, December 24, 2020

कश्मीर में लोकतंत्र की वापसी


 जम्मू-कश्मीर इस महीने हुए डीडीसी चुनाव में गुपकार गठबंधन (पीएजीडी) स्पष्ट रूप से जीत मिली है, पर बीजेपी इस बात पर संतोष हो सकता है कि उसे घाटी में प्रवेश का मौका मिला है। चूंकि राज्य में अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय बनाए जाने के बाद ये पहले चुनाव थे, इसलिए एक बात यह भी स्थापित हुई है कि इस केंद्र शासित राज्य में धीरे-धीरे राजनीतिक स्थिरता आ रही है। एक तरह से इस चुनाव को उस फैसले पर जनमत संग्रह भी मान सकते हैं।

इसमें एक बात यह साफ हुई कि कश्मीर की मुख्यधारा की जो पार्टियाँ पीएजीडी के रूप में एकसाथ आई हैं, उनका जनता के साथ जुड़ाव बना हुआ है। अलबत्ता बीजेपी को जम्मू क्षेत्र में उस किस्म की सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्मीद थी। बीजेपी को उम्मीद थी कि घाटी की पार्टियाँ इस चुनाव का बहिष्कार करेंगी, पर वैसा हुआ नहीं। बहरहाल घाटी के इलाके में पीएजीडी की जीत का मतलब है कि जनता राज्य के विशेष दर्जे और पूर्ण राज्य की बहाली की समर्थक है, जो पीएजीडी का एजेंडा है।

जिले की असेंबली

इन चुनावों में सीट जीतने से ज्यादा महत्वपूर्ण पूरे जिले में सफलता हासिल करना है। पीएजीडी का कश्मीर के 10 में से 9 जिलों पर नियंत्रण स्थापित हो गया है, जबकि बीजेपी को जम्मू क्षेत्र में केवल छह जिलों पर ही सफलता मिली है। कुल मिलाकर जो 20 डीडीसी गठित होंगी, उनमें से 12 या 13 पर पीएजीडी और कांग्रेस के अध्यक्ष बनेंगे। इस चुनाव की निष्पक्षता भी साबित हुई है, जिसका श्रेय उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा को जाता है। पर सवाल आगे का है। इस नई संस्था की कश्मीर में भूमिका क्या होगी और विधानसभा के चुनाव कब होंगे?

आज के इंडियन एक्सप्रेस में राज्य के पूर्व वित्तमंत्री और अपेक्षाकृत संतुलित राजनेता हसीब ए द्राबू का लेख इस विषय पर प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि बीजेपी ने राज्य के विशेष दर्जे को खत्म करने के बाद बहुत जल्द चुनावी-राजनीति की वापसी कराई है। क्षेत्रीय पार्टियों ने शुरू में बहिष्कार की धमकियाँ देने के बाद चुनाव में हिस्सा भी लिया और मतदान भी अच्छा हुआ। हिंसा भी नहीं हुई। इस तरह बीजेपी ने चीजों को ठीक से व्यवस्थित किया।  

गुपकार गठबंधन

दूसरी तरफ गुपकार गठबंधन ने भी अपने विचार को साफ और पुरजोर आवाज में व्यक्त किया है। हालांकि इस गठबंधन में एक-दूसरे का विरोध करने वाली पार्टियाँ हैं, पर इसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा है। केवल घाटी में ही नहीं, जम्मू क्षेत्र में भी। इन पार्टियों का कम से कम अपनी नजरों में भरोसा बढ़ा है जनता की निगाहों में बढ़ा है या नहीं इसका पता कुछ समय बाद लगेगा। अलबत्ता घाटी में पीएजीडी को वोट मिलने का मतलब है बीजेपी का विरोध।

द्राबू मानते हैं कि पीएजीडी को इस जीत पर बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। अलबत्ता इस जीत के पीछे मुकाबले पीडीपी के नेशनल कांफ्रेंस के पास मुस्कराने के कारण ज्यादा हैं। बड़ी तादाद में निर्दलीय प्रत्याशियों के जीतने से काफी संभावनाएं अभी खुली हुई हैं। यों निर्दलीयों में ज्यादातर किसी न किसी मुख्यधारा की पार्टी से जुड़े लोग हैं। फिर भी कुल मिलाकर ये नतीजे क्षेत्रीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर इशारा कर रहे हैं।   

डीडीयी करेंगी क्या? 

द्राबू के अनुसार डीडीसी की संरचना से चुनाव की राजनीति में एक नई परत सामने आई है। इन्हें जूनियर एमएलए कह सकते हैं या सीनियर पंच। देश की राजनीति में तीन परतें हैं। संसद, विधान सभाएं और पंचायतें। दूसरे राज्यों से हटकर जम्मू-कश्मीर में एक और परत डीडीसी के रूप में बनाई गई है। वस्तुतः यह कानूनी संस्था भी नहीं है। इसे कार्यपालिका के आदेश से जम्मू-कश्मीर पंचायती राज अधिनियम-1989 में संशोधन करके बनाया गया है।

इसके तहत हरेक कौंसिल में 14 सदस्यों का चुनाव करके 20 डीडीसी का गठन किया गया है। इस तरह से जम्मू-कश्मीर की लोकतांत्रिक संरचना को रिडिजायन किया गया है। व्यवहार में ये जिला असेम्बलियाँ हैं, जिनकी व्यवस्था भारतीय संविधान में नहीं है और इनके सीधे निर्वाचन की व्यवस्था भी नहीं है। देश में कहीं और इस प्रकार की संस्थाएं नहीं हैं। यदि देश भर में इस पद्धति को अपनाया जाए, तो 718 जिला कौंसिल बनेंगी। दूसरे राज्यों में जिला परिषदों का गठन सरपंच करते हैं, जो पंचायतों के प्रतिनिधि होते हैं। देश के लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और विकासमान-प्रशासन के बीच की वह संस्थागत कड़ी होती है, जो जम्मू-कश्मीर प्रशासन की नई रूपरेखा में टूट गई है।  

जिला छोटा हो या बड़ा जिला कौंसिल के चुने हुए सदस्यों की संख्या समान होगी। 12 लाख की आबादी वाले श्रीनगर जिले में 14 प्रतिनिधि होंगे और 2.5 लाख आबादी वाले किश्तवाड़ जिले में भी उतने ही प्रतिनिधि होंगे। देश में कहीं भी जनसंख्या और प्रतिनिधित्व के बीच इतना अंतर नहीं है। डीडीसी के चुनाव से विधानसभा का महत्व कम होगा। जनता द्वारा चुनी जाने के कारण ये कौंसिलें राज्य विधानसभा के समांतर होंगी। यह समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि 20 जिलों की ये असेम्बलियाँ अपने 280 विधायकों के मार्फत महत्वपूर्ण राजनीतिक मामलों में राज्य विधानसभा के प्रभाव को कम कर देंगी।

हसीब ए द्राबू का पूरा लेख पढ़ें यहाँ

 

 

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