Monday, January 27, 2020

बजट जो भरोसा बहाल करे


वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आगामी 1 फरवरी को जो बजट पेश करेंगी, वह मोदी सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण बजट होगा। हरेक क्षेत्र को कुछ फैसलों की आशा है। औद्योगिक माहौल ठंडा है, गाँवों में निराशा है और नौजवान चेहरों की चमक गायब हो रही है। फिर भी देश को आशा है। बेशक अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी नहीं है, पर उसकी गति भरोसा पैदा करने वाली भी नहीं है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि माँग और निवेश दोनों बढ़ाने की जरूरत है। दोनों ही मोर्चों पर संकट है।
बावजूद इसके निराश होने और हारकर बैठ जाने की जरूरत भी नहीं है। बजट ऐसा होना चाहिए जो देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा बहाल करे और निवेशकों तथा देश के उद्यमी जगत को आश्वस्त करे। उन्हें भरोसा होना चाहिए कि सुधार सरकार की प्राथमिकता में हैं। चिंता इसलिए बढ़ी, क्योंकि हाल में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने चालू वित्त वर्ष की आर्थिक संवृद्धि दर का अपना अनुमान घटाकर 4.8 प्रतिशत कर दिया है। यह अनुमान भारत सरकार के आधिकारिक अग्रिम वृद्धि अनुमान 5 प्रतिशत से भी कम है। भारत की संवृद्धि में कमी के असर से विश्व की संवृद्धि दर नीचे जा रही है।  

यह विवेक और समझदारी का समय है। रास्ते संकट के बीच से ही निकलते हैं। सन 1991 के संकट के बीच से ही उदारीकरण का पहिया चलना शुरू हुआ था। बहरहाल बजट के पहले हमें आर्थिक समीक्षा का इंतजार करना चाहिए, जिससे  अर्थव्यवस्था की वास्तविक तस्वीर का पता लगेगा। आर्थिक विशेषज्ञ टीएन नायनन का कहना है कि हाल के वर्षों में बजट के साथ समस्या यह नहीं है कि वे अपर्याप्त साबित हुए बल्कि वित्त मंत्रियों ने जरूरत से ज्यादा कदम उठाने की कोशिश की। यहां बात केवल कर राजस्व की नहीं है। 2018-19 में उसे लेकर अनुमान खासे गलत साबित हुए और इस साल भी ऐसा हो सकता है।

सकल कर राजस्व भले ही अनुमान से कम रहे, लेकिन तथ्य यह है कि जीडीपी की तुलना में कर राजस्व का अनुपात मोदी सरकार के दौर में हर साल बढ़ा है। वर्ष 2013-14 के 10.14 फीसदी से बढ़कर इस वर्ष इसके 11.72 फीसदी हो जाने की उम्मीद है। यदि इस वर्ष राजस्व लक्ष्य से 2 लाख करोड़ रुपये तक (करीब 8 फीसदी) कम रहा, तब भी जीडीपी के संदर्भ में यह आंकड़ा 2013-14 की तुलना में कहीं अधिक बेहतर रहेगा। ऐसा तब होगा जबकि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से होने वाला संग्रह अपेक्षा से कम रहना तय है।
जरूरत से ज्यादा बजटिंग की कीमत दूरसंचार जैसे बदहाल क्षेत्रों और सरकारी कंपनियों को चुकानी पड़ी है। सरकार अपनी कंपनियों की बकाया राशि उन्हें नहीं दे पा रही है। दूसरी तरफ वह तथ्यों को छिपाने का प्रयास करती है। मंदी का अनुमान लगाया नहीं या उसे छिपाने की कोशिश की। संवृद्धि के लिए 7 फीसदी (और नॉमिनल वृद्धि के लिए 12 फीसदी) का अनुमान क्यों लगाया, जबकि पिछले साल जुलाई से ही हालात एकदम स्पष्ट थे। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठन भी इस मामले में चूके।
सरकार के सामने पहली चुनौती है राजकोषीय अनुशासन पर टिके रहना। फिर भी आर्थिक गतिविधियों को चलाने के लिए उसे ही खर्च करना होगा। नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में आधारभूत संरचना पर 100 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही थी। इसके बाद एक कार्यबल बनाया गया था, जिसने 102 लाख करोड़ की परियोजनाओं की पहचान की है। नए साल पर निर्मला सीतारमण ने नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) की घोषणा की, जिसके तहत अगले पांच साल में 102 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं को पूरा किया जाएगा।
पिछले साल सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अतिरिक्त पूँजी डाली। बड़े बैंकों के विलय की घोषणा की। ऐसे कदमों के परिणाम आने में समय लगता है। अतीत की गलतियां भी अपनी कीमत वसूल कर रही हैं। एयर इंडिया और बीएसएनएल जैसी संस्थाओं की विशाल देनदारियाँ सिर पर हैं। इन्हें दुरुस्त होने के लिए समय चाहिए और समय लगेगा। फिलहाल सरकार को संसाधनों को बढ़ाने पर विचार करना चाहिए। एक रास्ता है सार्वजनिक उद्योगों के विनिवेश में तेजी लाने का। बहरहाल राजकोषीय घाटा 3.3 फीसदी के तय लक्ष्य से ज्यादा होने वाला है। कितना ज्यादा होगा, यह आर्थिक समीक्षा से पता लगेगा।
राजस्व में कमी होने के कारण सरकार के पास व्यय के विकल्प कम हैं। करों में राहत देने के विकल्प भी बहुत ज्यादा नहीं है। देश में केवल 4 प्रतिशत लोग ही आयकर देते हैं। उनकी संख्या बढ़ेगी, तो आयकर में और कटौती सम्भव है। ध्यान देने वाली बात है कि सन 2004-08 के दौरान देश में केवल दो फीसदी लोग ही आयकर देते थे। उस वक्त अर्थव्यवस्था की संवृद्धि करीब 8 फीसदी थी। चार फीसदी आबादी का भी विस्तार हो रहा है, साथ ही नया वर्ग इसमें जुड़ रहा है। यही वर्ग उपभोक्ता है, जिसके कारण अर्थव्यवस्था में माँग बढ़ती है और संवृद्धि होती है। हमें उसकी तरफ देखना चाहिए। 
देश की भावी अर्थव्यवस्था के संरक्षक गाँवों में निवास करते हैं, जो भविष्य में शहरों में आएंगे या गाँवों में रहते हुए संवृद्धि को प्रभावित करेंगे। प्रधानमंत्री-किसान सम्मान कार्यक्रम ने गाँवों की क्षमता का विस्तार किया है। इस योजना में सभी किसानों को शामिल करने की जरूरत है। हालांकि भूमि के 92 फीसदी रिकॉर्ड डिजिटाइज हो चुके हैं, पर अभी यह स्कीम भी किसानों तक नहीं पहुँच पाई है। बटाई पर काम करने वालों को शामिल करने में तेजी आनी चाहिए। साथ ही 6000 रुपये सालाना धनराशि में क्रमिक वृद्धि की घोषणा भी करनी चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों से हमारे वाहन उद्योग के सामने संकट है। माँग कम हो रही है। वाहन उद्योग बहुत बड़ा रोजगार प्रदाता है। अनुमान है कि बजट में पुराने वाहनों को खत्म करने की योजना की घोषणा हो सकती है। सरकार 15 साल से पुराने वाहनों को कबाड़ में बेचने के लिए प्रोत्साहन की घोषणा कर सकती है। इससे वाहन उद्योग को गति मिलेगी और प्रदूषण में कमी आएगी। स्टार्टअप्स पर भी नजर रखनी होगी। स्टार्टअप्स को इजाजत होनी चाहिए कि वे 15 वर्ष तक नुकसान वहन कर सकें। फिलहाल यह इजाजत आठ वर्ष तक की है। कुछ वर्षों में निर्यात के मोर्चे पर भी निराशा है। शायद प्रोत्साहन पैकेजों की घोषणा हो।


1 comment:

  1. निराश कौन होता है? आशा बनी रहती है। सदियाँ बीत जायें तब भी। सुन्दर पोस्ट।

    ReplyDelete