पिछले साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय और उसके
बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में मिली आंशिक सफलता दो तरह के संदेश दे रही
है। पराजय के बावजूद उसके पास वापसी का विकल्प भी मौजूद है। सन 2014 के बाद से कई
बार कहा जा रहा है कि कांग्रेस फीनिक्स पक्षी की भांति फिर से जीवित होकर बाहर
निकलेगी। सवाल है कि कब और कैसे?
देश के पाँच राज्यों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं और दो
में वह गठबंधन में शामिल है। चिंता की बात यह है कि वह उत्तर प्रदेश, बिहार,
तमिलनाडु, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पूर्वोत्तर के
राज्यों में उसकी उपस्थिति कमजोर है। इस साल बिहार, दिल्ली और तमिलनाडु में चुनाव
होने वाले हैं। इन तीनों राज्यों में अपनी स्थिति को सुधारने का उसके पास मौका है।
बिहार और तमिलनाडु में उसके प्रमुख गठबंधन सहयोगी काफी हद तक तय हैं। क्या दिल्ली
में वह आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन करेगी? ‘आप’ भी क्या अब उसके साथ गठबंधन के लिए तैयार होगी?
पर ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि पार्टी के नेतृत्व का स्वरूप
क्या बनेगा? सोनिया गांधी अस्थायी रूप
से कार्यकारी अध्यक्ष का काम कर रहीं हैं, पर पार्टी को उनके आगे के बारे में
सोचना है। क्या इस साल कोई स्थायी व्यवस्था सामने आएगी? पार्टी की
अस्तित्व रक्षा के लिए यह सबसे बड़ा सवाल है। पिछले साल 26 मई को जब राहुल गांधी
ने अध्यक्ष पद से इस्तीफे की घोषणा की थी, तो काफी समय तक पार्टी ने इस खबर को
बाहर आने ही नहीं दिया। यह बात नेतृत्व को लेकर उसकी संवेदनशीलता और असुरक्षा को
रेखांकित करती है।
पिछले पाँच दशक
से कांग्रेस ‘मजबूत हाईकमान’ वाली पार्टी है। वह धुरी पर केन्द्रित रहती है। अब धुरी
को लेकर ही सवाल हैं। उसकी दूसरी बड़ी कमजोरी है सड़कों पर उतर पाने में असमर्थता।
पिछले कुछ साल से वह केवल ट्विटर के सहारे मुख्यधारा में बने रहने की कोशिश में
थी। उसके कार्यकर्ता कठपुतली की भूमिका निभाते रहे हैं। उसे यकीन था कि ‘परिवार का चमत्कार’ उसे वापस लेकर आएगा। परिवार चुनाव जिताने में
असमर्थ है, इसलिए यह संकट पैदा हुआ
है। धुरी फेल होने लगी और परिधि बेकाबू।
हरियाणा,
महाराष्ट्र और अब झारखंड के विधानसभा चुनाव परिणामों से एक बात यह भी समझ में आ
रही है कि देश ने राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी को नेता के रूप में स्वीकार कर
लिया है, पर प्रदेशों में गैर-भाजपा राजनीति को सफलता मिल रही है। झारखंड चुनाव के
बाद फिर से पार्टी के भीतर राहुल गांधी को स्थापित करने की बातें सुनाई पड़ रही
हैं। उनकी वापसी होगी या पार्टी सामूहिक नेतृत्व का कोई नया फॉर्मूला तैयार करेगी? इस साल यह बात साफ होगी।
पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने हाल
में एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। ऐसा संकट पिछले 134
साल में कभी नहीं आया। पाँच
साल पहले हमारे सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ था, जो आज भी है। कोई जादू की छड़ी हमारी
पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है। सोनिया गांधी पार्टी के पुराने अनुभवी नेताओं
की सलाह को महत्व दे रही हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना के साथ मिलकर
सरकार बनाने का फैसला करने के पहले उन्होंने कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गंभीर
विमर्श किया।
साफ है कि वरिष्ठों और राहुल
की समझ में फर्क था। वॉर रूम में ‘नयों’ का वर्चस्व था। शायद यही वजह थी कि राहुल
के इस्तीफे के साथ कार्यसमिति के सदस्यों ने इस्तीफा नहीं दिया। राहुल गांधी ने
अपने चार पेज के इस्तीफे में पार्टी के नेताओं पर भी इशारा किया था।
राहुल के हटने के बाद पार्टी
की रणनीति में कुछ बदलाव है। सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रियंका गांधी सड़क पर भी
उतरी हैं। पर पार्टी को नेतृत्व पर ही नहीं नैरेटिव पर भी सोचना चाहिए। ‘मेजॉरिटेरिएनिज्म’ के अंतर्विरोधों
पर भी। बहुसंख्यक वर्ग बीजेपी के साथ क्यों है? उससे जुड़ने के
लिए मंदिरों के दर्शन करना निरर्थक है।
नागरिकता कानून को लेकर
प्रतिक्रिया से साफ है कि युवा वर्ग धार्मिक आधार पर भेदभाव का विरोधी है। नरेंद्र
मोदी ने इसे फौरन महसूस किया है और मन की ताजा बात में कहा, ‘देश का युवा भेदभाव
को पसंद नहीं करता है… लोग सिस्टम को फॉलो करते है और अगर वह सही काम नहीं कर रहा
हो तो बेचैन भी होते हैं।’ वह आगजनी और
हिंसक प्रतिरोध का समर्थक नहीं है, पर धार्मिक रूपकों और नारों का विरोधी है। ‘ला इलाहा
इल्लल्लाह’ के इस्तेमाल को लेकर बहस है। नागरिकता कानून की बहस 2024 के चुनाव का
प्रस्थान-बिंदु है।
कांग्रेस को इन बारीकियों को
पकड़ना चाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी पुलवामा और बालाकोट
के नाम पर जनता के बीच जा रही थी, उस वक्त कांग्रेस पार्टी आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट
को बदलने और भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए यानी देशद्रोह के कानून को भी हटाने
की बात कर रही थी। घोषणापत्र में कहा गया था कि कश्मीर में सेना कम करनी चाहिए। पता
नहीं पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं से पूछा था या नहीं। पर पूछना चाहिए।
इस साल पार्टी ज्यादा उत्साह
और ताकत के साथ बीजेपी के खिलाफ खड़ी होगी। उसके पास बड़े कद के नेता नहीं
हैं। दो दशक से पार्टी का सारा ध्यान राहुल को नेता बनाने में लगा रहा। युवाओं को उठने
का मौका मिलना चाहिए। यह साल कांग्रेस को मौका देगा। वह इसका फायदा उठाएगी या
नहीं, कहना मुश्किल है।
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