जवाहर लाल नेहरू
यूनिवर्सिटी कैंपस में हुई हिंसा के मामले में दिल्ली पुलिस ने जो जानकारियाँ दी
हैं, उन्हें देखते हुए किसी को भी देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा पर अफसोस
होगा। जरूरी नहीं कि पुलिस की कहानी पर यकीन किया जाए, पर हिंसा में शामिल पक्षों की कहानियों के आधार पर भी कोई धारणा नहीं बनाई जानी चाहिए। लम्बे अरसे से लगातार होते राजनीतिकरण के कारण भारतीय शिक्षा-प्रणाली
वैश्विक मीडिया के लिए उपहास का विषय बन गई है। सन 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा का भी दुनिया के मीडिया
ने इसी तरह उपहास उड़ाया था। सन 1973 में लखनऊ विवि के छात्र आंदोलन के दौरान ही
पीएसी का विद्रोह हुआ था। हालांकि तब न तो आज का जैसा मीडिया था और राजनीतिक स्तर
पर इतनी गलाकाट प्रतियोगिता थी, जैसी आज है। आज जो हो रहा है वह राजनीतिक
विचार-वैषम्य नहीं अराजकता है।
विश्वविद्यालय
अध्ययन के केंद्र होते हैं। बेशक छात्रों के सामने देश और समाज के सारे सवाल होते
हैं। उनकी सामाजिक जागरूकता की भी जरूरत है, पर यह कैसी जागरूकता है? यह कहानी केवल जेएनयू की ही नहीं है। देश के
दूसरे विश्वविद्यालयों से भी जो खबरें आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि छात्रों
के बीच राजनीति की गहरी पैठ हो गई है। छात्र-नेता जल्द से जल्द राष्ट्रीय स्तर पर
ख्याति अर्जित करना चाहते हैं। जेएनयू के पूर्व
छात्रों में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं, लीबिया और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं। तमाम बड़े नेता, राजनयिक, कलाकार और समाजशास्त्री
हैं। यह विवि भारत की सर्वोच्च रैंकिंग वाले संस्थानों में से एक है। आज भी यहाँ
आला दर्जे का शोध चल रहा है, पर हालात ऐसे ही रहे तो क्या इसकी यह तारीफ शेष रहेगी?
पिछले रविवार की
हिंसा को केवल ‘एक दिन की हिंसा’ के रूप में देखना उचित नहीं होगा। यह बरसों से
चल रही हिंसा है। कई महीनों से बल्कि कम से कम 2014 के बाद से यह किसी न किसी वजह
से विवाद के घेरे में है। सबसे महत्वपूर्ण घटना है 9 फरवरी 2016 की वह सभा, जिसमें
भारत-विरोधी नारे लगाए जाने का आरोप है। वह सभा मृत्युदंड प्राप्त अफजल गुरु और मकबूल बट की याद में
आयोजित की गई थी। नारे लगे थे या नहीं, पर इन आरोपों की जाँच अपनी तार्किक परिणति
तक नहीं पहुँची। जो वीडियो सामने आए थे, उनमें से कई वीडियो मॉर्फ्ड बताए गए, पर
पुलिस की जाँच और उसके बाद की अदालती कार्रवाई अधूरी पड़ी है। बेहतर हो कि वह जाँच
किसी तार्किक परिणति तक पहुँचे।
उस कार्यक्रम में
एक नारा था, ‘भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी’, एक और नारा था, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह-इंशा अल्लाह।’ इन नारों की वजह से देश
में एक नए राजनीतिक वर्ग का जन्म हुआ है, जिसे उसके विरोधी ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहते हैं। पता नहीं ये नारे लगे या नहीं, पर ये किस मनोदशा की देन हो सकते हैं? कहाँ से आए होंगे ये शब्द? जेएनयू कैम्पस में हिंसक संघर्ष कोई नई बात
नहीं है। अस्सी के दशक में यूनिवर्सिटी में
प्रवेश प्रक्रिया में बदलाव को लेकर छात्रों और अध्यापकों के बीच संघर्ष हुआ था।
उस दौर के अख़बारों के मुताबिक़ कैम्पस में 'अराजकता' का माहौल था। छात्रों ने अध्यापकों के घरों पर हमले किए थे।
अप्रेल 2000 में कैम्पस में हुए एक मुशायरे में पाकिस्तानी शायर फहमीदा रियाज की
रचना का विरोध करने वाले दो फौजी अफसरों की पिटाई के मामले ने भी काफी समय तक मीडिया का ध्यान
खींचा था।
इस कैम्पस में
वाम और दक्षिण टकराव की लम्बी पृष्ठभूमि है। यहाँ के छात्रसंघ पर लिंग्दोह कमेटी
की अनदेखी करने पर पाबंदी भी लगी थी। बातें जबतक वैचारिक विमर्श के दायरे में रहती
हैं, तबतक उनमें कोई खराबी नहीं है, पर जब बात खून-खराबे तक पहुँच जाए, तब चिंता
होती है। छात्र संगठनों की सम्बद्धता राजनीतिक संगठनों से है। कहना मुश्किल है कि
कितने छात्र राजनीतिक पक्षधरता से मुक्त हैं। पर संगठन शक्ति के सहारे अपनी बात
मनवाने के लिए जोर-जबर्दस्ती भी हुई होगी। दिल्ली पुलिस ने बताया कि विवाद के
केंद्र में ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन था, जिसका लेफ्ट से जुड़े छात्र विरोध कर रहे थे।
पुलिस ने 1 से 5 जनवरी के बीच
रजिस्ट्रेशन रोकने के लिए सर्वर को नुकसान पहुंचाने से लेकर पेरियार और साबरमती
हॉस्टल में हुई हिंसा तक की घटनाओं का सिलसिलेवार ब्योरा भी दिया। इस विवरण को
लेकर दो राय हो सकती हैं, पर कहना मुश्किल है कि ताकत का इस्तेमाल किसी एक पक्ष ने
ही किया था। कैम्पस में वामपंथी दबदबा है, जिसे दक्षिणपंथी संगठन लगातार चुनौती दे
रहा है।
जेएनयू की हिंसा के बाद दिल्ली के आईआईटी में प्रदर्शन हुआ।
इसके बाद आईआईटी-मद्रास, बॉम्बे, गांधीनगर और कानपुर से भी प्रदर्शनों की खबरें
आईं। सामान्यतः आईआईटी छात्र राजनीतिक विचारधाराओं से कुछ दूरी बनाकर रखते हैं, पर
हाल में हफिंगटन पोस्ट ने देश के विभिन्न आईआईटी में चल रही राजनीतिक
गतिविधियों का विवरण दिया है। इन गतिविधियों के पीछे कई तरह की राजनीतिक
विचारधाराएं काम कर रहीं हैं। यह बात शैक्षिक वातावरण को बनाएगी या बिगाड़ेगी? आंदोलन फीस को लेकर शुरू हुआ, फिर नागरिकता कानून में संशोधन का विषय सामने
आया। जामिया में आंदोलन शुरू हो गया। मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता और हैदराबाद वगैरह
से भी आंदोलनों की खबरें आईं।
यह सब छात्रों की विश्व-दृष्टि से जुड़ा मामला जरूर है, पर
उसके पीछे राजनीतिक प्रतिबद्धता ज्यादा महत्वपूर्ण कारक है। यह राजनीति आज की नहीं
है, पहले से चली आ रही है, पर अब उसने अपने चेहरे पर से पर्दा हटाना शुरू कर दिया
है। यह समस्या केवल भारत की ही नहीं है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भी यह सवाल उठ रहा है।
भारत के नागरिकता कानून को लेकर हारवर्ड विवि में भी आंदोलन है। फिर भी एक बड़ा
फर्क उस मात्रा का है, जो दोनों समाजों में है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भी
कम्युनिस्टों और दक्षिणपंथियों का भेद है।
कैम्पस-राजनीतिकरण के खतरे भारी हैं। छात्र के रूप में हम
विश्वविद्यालय में खुले मन से प्रवेश करते हैं, पर यदि हम प्रवेश करते ही किसी एक
राजनीतिक समूह के जाल में फँस जाए, तो फिर खुले मन की सम्भावना कम हो जाती है।
जेएनयू में वामपंथी और दक्षिणपंथी धारणाओं के अलावा फ्री थिंकर्स भी हैं। पिछले कुछ
वर्षों में दलित चेतना से जुड़े संगठन भी सामने आए हैं। ये सब समाज का हिस्सा हैं।
इनकी एक भूमिका भी है, पर वह भूमिका संतुलित होनी चाहिए। असंतुलित होगी, तो भयावह
होगी।
सटीक विश्लेषण। केवल जेएनयू ही नहीं हर शिक्षा संस्थान में कुछ सुगबुगाहट है। हमारे छोटे से कुमाऊँ विश्वविद्यालय में भी हवा कुछ भारी हो गयी है दिक्कत है साँस लेने में। राजनीति में छात्रों और शिक्षकों की जुगलबन्दी पर समाज भी नजरे फेर ले रहा है। कुलपति की कुर्सी से लेकर विधानसभा लोक सभा राज्यसभा लालबत्तियाँ सब पर दूरबीने तनी हुयी हैं पढाई लिखायी बस नाजायज बाकि सब कुछ जायज है।
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