अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष
(आईएमएफ) ने चालू वित्त वर्ष की आर्थिक वृद्धि दर का अपना अनुमान घटाकर 4.8
प्रतिशत कर दिया है. यह अनुमान भारत सरकार के आधिकारिक अग्रिम वृद्धि अनुमान 5
प्रतिशत से भी कम है. इतना ही नहीं यह अनुमान आईएमएफ के ही पहले के अनुमान की
तुलना में 1.3 प्रतिशत कम है. मुद्रा कोष के अनुसार भारत की आर्थिक वृद्धि कम होने
का असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा और विश्व की संवृद्धि दर नीचे चली
जाएगी. आईएमएफ ही नहीं भारत सरकार समेत देश के अर्थशास्त्री पहले से मान रहे हैं
कि संवृद्धि दर गिरेगी, पर सवाल है कि कितनी और यह गरावट कब तक रहेगी?
मुद्राकोष के अनुसार
आगामी वित्त वर्ष में भारत की संवृद्धि दर का अनुमान 5.8 प्रतिशत है, जो उसके पहले
के अनुमान की तुलना में 1.2 प्रतिशत कम है. एजेंसी के अनुसार उसके अगले वर्ष यानी 2021-22
में संवृद्धि दर 6.5 प्रतिशत रहेगी, जो उसके पहले के अनुमान की तुलना में 0.9 प्रतिशत अंक कम है.
आईएमएफ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि वैश्विक
आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट के पीछे प्रमुख भूमिका भारत की है, जहां गैर बैंकिंग वित्तीय
क्षेत्र में दबाव और कमजोर ग्रामीण आर्थिक वृद्धि के कारण दबाव बढ़ा है. घरेलू
मांग बहुत तेजी से गिरी है.
भारत सरकार मानती है कि देश की अर्थव्यवस्था में सुस्ती के पीछे वैश्विक मंदी
भी है, वहीं आईएमएफ कह रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के कारण वैश्विक मंदी है.
शायद दोनों ही बातें आंशिक रूप से सही हैं. बहरहाल इतना जरूर है कि भारत से दुनिया
की सबसे तेज अर्थव्यवस्था का टैग अगले कुछ साल के लिए हट गया लगता है. वित्तमंत्री
निर्मला सीतारमण अब अगले साल का बजट पेश करने जा रही हैं. बजट रखने के पहले ही इस
साल की तीसरी तिमाही के संवृद्धि आँकड़े सामने आ जाएंगे.
भले ही इन आँकड़ों से बहुत उम्मीद न जागे, पर इतना जरूर पता लगेगा कि
अर्थव्यवस्था की दिशा क्या है. यह गिरावट माँग और पूँजी निवेश की कमी के कारण है. फिलहाल
उत्पादन बढ़ाने से माँग नहीं बढ़ेगी, बल्कि लोगों की खरीदने की क्षमता बढ़ाने से
बढ़ेगी. माँग बढ़ाने और कारोबारी गतिविधियाँ बढ़ाने का काम साथ-साथ चलाना होगा. मंदी से निपटने के लिए
सरकार ने 20 सितंबर को कॉरपोरेट टैक्स में भारी कटौती की. कॉरपोरेट टैक्स को तीस
फीसदी से घटाकर 22 फीसदी के आसपास कर
दिया. नई कंपनियों को 17 फीसदी के टैक्स दायरे में लाया गया, लेकिन सरकार का कर संग्रह कम हो गया.
सरकारी आय में कमी हो रही
है. अनुमान है कि इस साल केंद्रीय राजस्व में अनुमान से करीब डाई लाख करोड़ रुपये
की कमी आएगी. जब कारोबार गिरेगा, तो टैक्स से होने वाली आय भी कम होगी. टैक्स से
सरकारी आय गिरी है और सरकारी खर्चे में बढ़ोत्तरी जारी है, जिसकी वजह से राजकोषीय घाटा यानी फिस्कल डेफिसिट बढ़ने का
अंदेशा है. जुलाई में बजट पेश करते समय वित्तमंत्री ने कहा था कि राजकोषीय घाटा
जीडीपी का 3.3 फीसदी रहेगा, लेकिन लगता है कि यह 4 फीसदी के ऊपर चला जाएगा. ऐसे
में अब सरकार के कौशल की परीक्षा है कि वह आय और व्यय के इस अंतर को कैसे संतुलित
करेगी. खर्च कम नहीं किए जा सकते, क्योंकि उसका असर आर्थिक विकास पर पड़ेगा. सवाल
है कि आय कैसे बढ़े?
तमाम कारणों से बजट का
बेसब्री से इंतजार है, क्योंकि उसके मार्फत कुछ समस्याएं सामने आएंगी और कुछ
समाधान भी उभरेंगे. अर्थव्यवस्थाएं अक्सर भावनाओं पर भी चलती हैं. पिछले कुछ समय
से सामान्य व्यक्ति के मन में कुछ नकारात्मक बातें भरी भी गईं, जिसके कारण उसने
पैसा खर्च करने से हाथ खींचना शुरू कर दिया. इसका असर शेयर बाजारों में देखने को
मिला. पर इस वक्त शेयर बाजार में अपेक्षाकृत उत्साह देखने को मिल रहा है.
बड़े स्तर पर पूँजी निवेश से रोजगार बढ़ेगा और रोजगार बढ़ने से ही माँग
बढ़ेगी. बड़े बैंकों का विलय किया जा रहा है ताकि वे वे पुष्ट हों और नकदी का
इंतजाम कर सकें. निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के प्रयास जारी हैं और इस बजट में
कुछ और प्रयास देखने को मिलेंगे. जब निजी क्षेत्र पूँजी निवेश करने की स्थिति में
नहीं है, तो सरकार को पहल करनी होगी. सरकार ने हाल में इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी
पूँजी निवेश की घोषणा की है, पर उसका रास्ता क्या होगा, यह नहीं बताया.
सरकार के सामने आर्थिक सुधारों को लागू करने की चुनौती भी है. देश का बित्तीय
बाजार एक लम्बे अर्से से चली आ रही कोताही के कारण अराजकता का शिकार हो गया.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पूँजी का बंदरबाँट चलता रहा. अब काफी कड़ाई के बाद
बैंकों की स्थिति में सुधार हुआ है. दीवालिया कानून बन जाने के बाद उनका पैसा भी
वापस आने लगा है. यह सब कानूनी प्रक्रिया से भी जुड़ा है, जिसे पूरा होने में समय
लगेगा.
फिलहाल हम पूँजी कहाँ से लाएं? कुछ विशेषज्ञों की राय है कि हमें जापान जैसे
देशों से पूँजी लाने का इंतजाम करना चाहिए, जहाँ ब्याज की दरें बहुत कम हैं. ज्यादा
आसान रास्ता सार्वजनिक क्षेत्रों के विनिवेश का है. सरकार के सामने राजकोषीय घाटे
को सीमित रखने की चुनौती भी है. कुछ विशेषज्ञ सुझाव दे रहे हैं कि सरकार को इस
चुनौती की परवाह किए बगैर निवेश बढ़ाना चाहिए. पर दूसरे विशेषज्ञों का कहना है कि
सरकार को हस्तक्षेप करने के बजाय बाजार को अपने आप सुधरने का मौका देना चाहिए. हाँ
यह सब मानते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में लोगों के पास पैसा जाना चाहिए ताकि वे
खरीदारी करें, जिससे माँग बढ़े. रोजगार, पूँजी निवेश और माँग में वृद्धि. इन तीन
सूत्रों के साथ जुड़ी है हमारी संवृद्धि की कहानी.
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