Sunday, September 29, 2019

संरा में धैर्य और उन्माद का टकराव


संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के भाषणों में वह अंतर देखा जा सकता है, जो दोनों देशों के वैश्विक दृष्टिकोण को रेखांकित करता है। दोनों देशों के नेताओं के पिछले कुछ वर्षों के भाषणों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तो पाएंगे कि पाकिस्तान का सारा जोर कश्मीर मसले के अंतरराष्ट्रीयकरण और उसकी नाटकीयता पर होता है। इसबार वह नाटकीयता सारी सीमाएं पार कर गई। इमरान खान के विपरीत भारत के प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कश्मीर और पाकिस्तान का एकबार भी जिक्र किए बगैर एक दूसरे किस्म का संदेश दिया है।

नरेंद्र मोदी ने न केवल भारत की विश्व-दृष्टि को पेश किया, बल्कि कश्मीर के संदर्भ में यह संदेश भी दिया कि वह हमारा आंतरिक मामला है और किसी को उसके बारे में बोलने का अधिकार नहीं है। पिछले आठ साल में पहली बार संरा महासभा में प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री ने पाकिस्तान का नाम नहीं लिया है। दुनिया के सामने पाकिस्तान के कारनामों का जिक्र हम बार-बार करते रहे हैं। इसबार नहीं कर रहे हैं, क्योंकि पाकिस्तान खुद चीख-चीखकर अपने कारनामों का पर्दाफाश कर रहा है। इमरान खान ने एटमी युद्ध, खूनखराबे और बंदूक उठाने की खुली घोषणा कर दी।

चूंकि इमरान खान ने भारत और कश्मीर के बारे में अनाप-शनाप बोल दिया, इसलिए उन्हें जवाब भी मिलना चाहिए। भारत के विदेश मंत्रालय की प्रथम सचिव विदिशा मित्रा ने उत्तर देने के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए कहा कि क्या पाकिस्तान इस बात को नहीं मानेगा कि वह दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आतंकवादी को पेंशन देता है? क्या वह इस बात से इंकार करेगा कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ने अपने 27 में से 20 मानकों के उल्लंघन पर उसे नोटिस दिया है? क्या इमरान खान न्यूयॉर्क शहर से नहीं कहेंगे कि उन्होंने ओसामा बिन लादेन का खुलकर समर्थन किया है?

Friday, September 27, 2019

भारत और पाकिस्तान का फर्क आज देखेगी दुनिया


संयुक्त राष्ट्र महासभा में आज भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के भाषण होने वाले है। दोनों देशों की जनता और मीडिया की निगाहें इस परिघटना पर हैं। क्या कहने वाले हैं, दोनों नेता?  पिछले कुछ वर्षों में इस भाषण का महत्व कम होता गया है। यह भाषण संबद्ध राष्ट्रों के वैश्विक दृष्टिकोण को रेखांकित करता है। इससे ज्यादा इसका व्यावहारिक महत्व नहीं होता।
दोनों देशों के नेताओं के पिछले कुछ वर्षों के भाषणों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, तो पाएंगे कि पाकिस्तान का सारा जोर कश्मीर मसले के अंतरराष्ट्रीयकरण और उसकी नाटकीयता पर होता है। शायद उनके पास कोई विश्व दृष्टि है ही नहीं। इस साल भी वही होगा। देखना सिर्फ यह है कि नाटक किस किस्म का होगा। इसकी पहली झलक गुरुवार को मिल चुकी है।

भारत-पाक नजरियों का अंतर क्या है?


संयुक्त राष्ट्र महासभा में आज भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के भाषण होने वाले है. दोनों देशों में मीडिया की निगाहें इस परिघटना पर हैं. क्या कहने वाले हैं, दोनों नेता?  पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने इस अधिवेशन के लिए अमेरिका रवाना होने के पहले अपने देश के निवासियों से कहा था, मैं मिशन कश्मीर पर जा रहा हूँ. इंशा अल्लाह सारी दुनिया हमारी मदद करेगी. पर हुआ उल्टा महासभा में अपने भाषण के पहले ही उन्होंने स्वीकार कर लिया कि पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण के अपने प्रयासों में फेल रहा है. दूसरी तरफ भारत के प्रधानमंत्री ने हाउडी मोदी रैली में केवल एक बात से सारी कहानी साफ कर दी. उन्होंने कहा, दुनिया जानती है कि 9/11 और मुंबई में 26/11 को हुए हमलों में आतंकी कहाँ से आए थे।
संरा महासभा के भाषणों का औपचारिक महत्व बहुत ज्यादा नहीं होता. अलबत्ता उनसे इतना पता जरूर लगता है कि देशों और उनके नेतृत्व की विश्व दृष्टि क्या है. फिलहाल आज की सुबह लगता यही है कि महासभा के भाषण में इमरान खान केवल और केवल भारत-विरोधी बातें बोलेंगे और भारत के प्रधानमंत्री भारत की विश्व दृष्टि को दुनिया के सामने रखेंगे. भारत चाहता है कि पाकिस्तान भी एक सकारात्मक और दोस्ताना कार्यक्रम लेकर दुनिया के सामने आए, ताकि इस इलाके की गरीबी, मुफलिसी, अशिक्षा और बदहाली को दूर किया जा सके. आप खुद देखिएगा दोनों भाषणों के अंतर को.

Thursday, September 26, 2019

भविष्य के सायबर-युद्ध, जो अदृश्य होंगे


सायबर खतरे-3
लड़ाई की विनाशकारी प्रवृत्तियों के बावजूद तीसरे विश्व-युद्ध का खतरा हमेशा बना रहेगा। अमेरिकी लेखक पीटर सिंगर और ऑगस्ट के 2015 में प्रकाशित उपन्यास ‘द गोस्ट फ्लीट’ का विषय तीसरा विश्व-युद्ध है, जिसमें अमेरिका, चीन और रूस की हिस्सेदारी होगी। उपन्यास के कथाक्रम से ज्यादा रोचक है उस तकनीक का वर्णन जो इस युद्ध में काम आई। यह उपन्यास भविष्य के युद्ध की झलक दिखाता है।
आने वाले वक्त की लड़ाई में शामिल सारे योद्धा परम्परागत फौजियों जैसे वर्दीधारी नहीं होंगे। बड़ी संख्या में लोग कम्प्यूटर कंसोल के पीछे बैठकर काम करेंगे। यह उपन्यास आने वाले दौर के युद्ध के सामाजिक-आर्थिक और तकनीकी पहलुओं को उजागर करता है। लेखक बताते हैं कि भावी युद्ध दो ऐसे ठिकानों पर लड़े जाएंगे, जहाँ आज तक कभी लड़ाई नहीं हुई। ये जगहें हैं स्पेस और सायबर स्पेस।
इज़रायली हमले
इसी साल की बात है शनिवार 4 मई को इराली सेना ने गज़ा पट्टी में हमस के ठिकानों पर जबर्दस्त हमले किए। हाल के वर्षों में इतने बड़े हमले इज़रायल ने पहली बार किए थे। हालांकि लड़ाई ज्यादा नहीं बढ़ी, महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन इज़रायली हमलों में दूसरे ठिकानों के अलावा हमस के सायबर केन्द्र को निशाना बनाया गया। हाल में हमस ने सायबर-स्पेस पर हमले बोले थे।

Sunday, September 22, 2019

वित्तमंत्री की ‘बिगबैंग’ घोषणा का अर्थ


वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को कंपनी कर में कटौती की घोषणा करके अपने समर्थकों को ही नहीं विरोधियों को भी चौंकाया है. देश में कॉरपोरेट टैक्स की दर 30 से घटाकर 22 फीसदी की जा रही है और सन 2023 से पहले उत्पादन शुरू करने वाली नई कंपनियों की दर 15 फीसदी. यह प्रभावी दर अब 25.17 फीसदी होगी, जिसमें अधिभार व उपकर शामिल होंगे. इसके अलावा इस तरह की कंपनियों को न्यूनतम वैकल्पिक कर (एमएटी) का भुगतान करने की जरूरत नहीं होगी. इस खबर के स्वागत में शुक्रवार को देश के शेयर बाजारों में जबरदस्त उछाल दर्ज किया गया. बीएसई का सेंसेक्स 1921.15 अंक या 5.32 फीसदी तेजी के साथ 38,014.62 पर बंद हुआ. नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी 569.40 अंकों या 5.32 फीसदी की तेजी के साथ 11,274.20 पर बंद हुआ. यह एक दशक से अधिक का सबसे बड़ा एकदिनी उछाल है.   
वित्तमंत्री की इस घोषणा से रातोंरात अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं आएगा. कॉरपोरेट टैक्स में कमी का असर देखने के लिए तो हमें कम से कम एक-दो साल का इंतजार करना पड़ेगा, पर यह सिर्फ संयोग नहीं है कि यह घोषणा अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में होने वाली हाउडी मोदी रैली के ठीक पहले की गई है. इस रैली में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और अमेरिका के अनेक सांसद भी आने वाले हैं. आर्थिक सुधारों की यह घोषणा केवल भारत के उद्योग और व्यापार जगत के लिए ही संदेश नहीं है, बल्कि वैश्विक कारोबारियों के लिए भी इसमें एक संदेश है.

'हाउडी मोदी' रैली के संदेश


रविवार को अमेरिका में ह्यूस्टन शहर के एनआरजी स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण सुनने के लिए 50,000 से ज्यादा लोग आने वाले हैं। इनमें से ज्यादातर भारतीय मूल को अमेरिकी होंगे, जिनका संपर्क भारत के साथ बना हुआ है। यह रैली कई मायनों में असाधारण है। इसके पाँच साल पहले न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर में उनकी जो रैली हुई थी, वह भी असाधारण थी, पर इसबार की रैली में आने वाले लोगों की संख्या पिछली रैली से तिगुनी या उससे भी ज्यादा होने वाली है। रैली का हाइप बहुत ज्यादा है। इसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और अनेक अमेरिकी राजनेता शिरकत करने वाले हैं।

हालांकि भारत में होने वाली मोदी की रैलियाँ प्रसिद्ध हैं, पर उनकी जैसी लोकप्रियता प्रवासी भारतीयों के बीच है उसका जवाब नहीं। अमेरिकी रैलियों के अलावा नवंबर 2015 में लंदन के वैम्बले स्टेडियम में हुई रैली भी इस बात की गवाही देती है। विदेश में मोदी कहीं भी जाते हैं तो लोग उनसे हाथ मिलाने, साथ में फोटो खिंचवाने और सेल्फी लेने को आतुर होते हैं। ऐसी लोकप्रियता आज के दौर में विश्व के बिरले राजनेताओं की है। शायद इसके पीछे भारत की विशालता और उसका बढ़ता महत्व भी है, पर पिछले पाँच वर्ष में मोदी ने लोकप्रियता के जो झंडे गाड़े हैं, उनका जवाब नहीं। यह सब तब है, जब उनके खिलाफ नफरती अभियान कम जहरीला नहीं है।

Saturday, September 21, 2019

कश्मीर अब रास्ता क्या है?


जम्मू कश्मीर में पाबंदियों को लगे 47-48 दिन हो गए हैं और लगता नहीं कि निर्बाध आवागमन और इंटरनेट जैसी संचार सुविधाएं जल्द वापस होंगी। सरकार पहले दिन से दावा कर रही है कि हालात सामान्य हैं, और विरोधी भी पहले ही दिन से कह रहे हैं कि सामान्य नहीं हैं। उनकी माँग है कि सारे प्रतिबंध हटाए जाएं और जिन लोगों को हिरासत में लिया गया है, उन्हें छोड़ा जाए। एक तबका है, जो प्रतिबंधों को उचित मानता है और जिसकी नजर में सरकार की रीति-नीति सही है। दूसरा इसके ठीक उलट है। मीडिया कवरेज दो विपरीत तस्वीरें पेश कर रही है। बड़ी संख्या में भारतीय पत्रकार सरकारी सूत्रों के हवाले हैं, दूसरी तरफ ज्यादातर विदेशी पत्रकारों को सरकारी दावों में छिद्र ही छिद्र नजर आते हैं। ऐसे विवरणों की कमी हैं, जिन्हें निष्पक्ष कहा जा सके। पत्रकार भी पोलराइज़्ड हैं।
इस एकतरफा दृष्टिकोण के पीछे तमाम कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण राजनीतिक है। दूसरा है असमंजस। इस समस्या को काफी लोग दो कालखंड में देखते हैं। सन 2014 के पहले और उसके बाद। देश के भीतर ही नहीं वैश्विक मंच पर भी यही बात लागू होती है। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और  इकोनॉमिस्ट से लेकर फॉरेन पॉलिसी जैसे जर्नल नरेंद्र मोदी के आगमन के पहले से ही उनके आलोचक हैं। सरकार कहती है कि हम बड़ी हिंसा को टालने के लिए धीरे-धीरे ही प्रतिबंधों को हटाएंगे, तो उसे देखने वाले अपने चश्मे से देखते हैं। विदेशी मीडिया कवरेज को लेकर भारतीय नागरिकों का बड़ा तबका नाराज है।
आवेशों की आँधियाँ
माहौल लगातार तनावपूर्ण है। कोई यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि हालात को कैसे ठीक किया जाए और आगे का रास्ता क्या है। इस वक्त दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। एक, अगले महीने जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बनना है। उससे पहले का प्रक्रियाएं कैसे पूरी होंगी। और दूसरी बात है कि इसके आगे क्या? कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान यह तो नहीं है, तो फिर आगे क्या? भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में आवेशों के तूफान चलते ही रहते है। कोई नई बात नहीं है। भावनाओं के इन बवंडरों के केंद्र में कश्मीर है। विभाजन का यह अनसुलझा सवाल, दोनों देशों के सामान्य रिश्तों में भी बाधक है।
सवाल है कि 72 साल में इस समस्या का समाधान क्यों नहीं हो पाया? अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद तमाम एकबारगी बड़ी संख्या में लोगों ने समर्थन किया, पर जैसाकि होता है, इस फैसले के विरोधियों ने भी कुछ देर से ही सही मोर्चा संभाल लिया है। भारतीय जनता का बहुमत 370 को हटाने के पक्ष में नजर आता है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि इसे बनाए रखने के पक्षधर यह नहीं बता पाते हैं कि यह अनुच्छेद इतना ही महत्वपूर्ण था, तब कश्मीर में अशांति क्यों पैदा हुई?
 पिछले 72 साल में वहाँ हालात लगातार बिगड़े ही हैं। सन 1947 में पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर में जिस किस्म के अत्याचार किए थे, उन्हें देखते हुए पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति नहीं होनी चाहिए थी। सन 1965 में जब अयूब खां ने हजारों रज़ाकारों को ट्रेनिंग देकर कश्मीर में भेजा, तो उन्हें विश्वास था कि कश्मीरी जनता उन्हें हाथों हाथ लेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। सन 1971 की लड़ाई में भी नहीं हुआ। पिछले 72 साल में क्या हुआ, जो आज हालात बदले हुए नजर आते हैं? ऐसा केवल दिल्ली में बीजेपी की सरकार के कारण नहीं हुआ है। पत्थर मार आंदोलन तो 2010 में शुरू हो गया था।

Wednesday, September 18, 2019

सिविल कोड पर बहस से हम भागते क्यों हैं?


पिछले शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद समान नागरिक संहिता का सवाल एकबार फिर से खबरों में है. अदालत ने कहा है कि देश में समान नागरिक संहिता बनाने की कोशिश नहीं की गई. संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक तत्व में इस उम्मीद से अनुच्छेद 44 जोड़ा था कि सरकार देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करेगी, लेकिन हुआ कुछ नहीं. देश में सभी तरह के व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करने की माँग लंबे अरसे से चल रही है, पर इस दिशा में प्रगति नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह देश की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता है, जिसे छेड़ने का साहस सरकारों में नहीं है.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने अपने पिछले दौर में तीन तलाक के साथ-साथ इस विषय को भी उठाया था. इस सिलसिले में 21 वें विधि आयोग को अध्ययन करके अपनी संस्तुति देने के लिए कहा गया था. आयोग ने करीब दो साल के अध्ययन के बाद अगस्त 2018 में बजाय विस्तृत रिपोर्ट देने के एक परामर्श पत्र दिया, जिसमें कहा गया कि इस स्तर पर देश में समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही कोई इसकी मांग कर रहा है. आयोग की नजर में इसकी कोई माँग नहीं कर रहा है, तब अदालत माँग क्यों कर रही है?  

Monday, September 16, 2019

अफ़ग़ान शांति-वार्ता के अंतर्विरोध


अस्सी के दशक में जब अफ़ग़ान मुज़ाहिदीन रूसी सेना के खिलाफ लड़ रहे थे, तब अमेरिका उनके पीछे था। अमेरिका के डिक्लैसिफाइडखुफिया दस्तावेजों के अनुसार 11 सितंबर 2001 के अल कायदा हमले के कई बरस पहले बिल क्लिंटन प्रशासन का तालिबान के साथ राब्ता था। वहाँ अंतरराष्ट्रीय सहयोग से नई सरकार बनने के बाद सन 2004 और 2011 में भी तालिबान के साथ बातचीत हुई थी। सन 2013 में तालिबान ने कतर में दफ्तर खोला। चूंकि उन्होंने निर्वासित सरकार के रूप में खुद को पेश किया था, इसलिए काबुल सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया। इस संवाद में पाकिस्तान की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन 2015 में पाकिस्तान की कोशिशों से अफगान सरकार और तालिबान के बीच आमने-सामने की बात हुई। उन्हीं दिनों खबर आई कि तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर की मौत तो दो साल पहले हो चुकी है। इस तथ्य को तालिबान और पाकिस्तान दोनों ने छिपाकर रखा था। सन 2018 में ईद के मौके पर तीन दिन का युद्धविराम भी हुआ। सितंबर 2018 में अमेरिका ने ज़लमय खलीलज़ाद को तालिबान के साथ बातचीत के लिए अपना दूत नियुक्त किया। उनके साथ दोहा में कई दौर की बातचीत के बाद समझौते के हालात बने ही थे कि बातचीत टूट गई। क्या यह टूटी डोर फिर से जुड़ेगी?


फिलहाल अमेरिका और तालिबान के बीच एक अरसे से चल रही शांति-वार्ता एक झटके में टूट गई है, पर यह भी लगता है कि संभावनाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुईं हैं। बातचीत का टूटना भी एक अस्थायी प्रक्रिया है। उम्मीद है कि इस दिशा में प्रगति किसी न किसी दिशा में जरूर होगी। राष्ट्रपति ट्रंप के सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन की अचानक बर्खास्तगी से संकेत यही मिलता है कि विदेशमंत्री पॉम्पियो जो कह रहे हैं, वह ज्यादा विश्वसनीय है। यों भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों के पास विकल्प ज्यादा नहीं हैं और इस लड़ाई को लंबा चलाना किसी के भी हित में नहीं है। अफगान समस्या के समाधान के साथ अनेक क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान भी जुड़े हैं।
अफ़ग़ानिस्तान के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद ने उससे पहले सोमवार 2 सितंबर को तालिबान के साथ 'सैद्धांतिक तौर' पर एक शांति समझौता होने का एलान किया था। प्रस्तावित समझौते के तहत अमेरिका अगले 20 हफ़्तों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान से अपने 5,400 सैनिकों को वापस लेने वाला था। अमेरिका और तालिबान के बीच क़तर में अब तक नौ दौर की शांति-वार्ता हो चुकी है। प्रस्तावित समझौते में प्रावधान था कि अमेरिकी सैनिकों की विदाई के बदले में तालिबान सुनिश्चित करता कि अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले के लिए नहीं किया जाएगा।
कितनी मौतें?
अफ़ग़ानिस्तान में सन 2001 में अमेरिका के नेतृत्व में शुरू हुए सैनिक अभियान के बाद से अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की सेना के करीब साढ़े तीन हजार सैनिकों की जान जा चुकी है। इनमें 2300 अमेरिकी हैं। आम लोगों, चरमपंथियों और सुरक्षाबलों की मौत की संख्या का अंदाज़ा लगाना कठिन है। अलबत्ता इस साल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ 32,000 से ज़्यादा आम लोगों की मौत हुई है। वहीं ब्राउन यूनिवर्सिटी के वॉटसन इंस्टीट्यूट का कहना है कि वहाँ 58,000 सुरक्षाकर्मी और 42,000 विद्रोही मारे गए हैं।

Sunday, September 15, 2019

सिविल कोड को क्यों बिसराया?


सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिए गए एक फैसले में कहा कि देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए पिछले 63 साल में कोई प्रयास नहीं किया गया है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में कई बार कहा है। अदालत ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने भाग 4 में नीति निर्देशक तत्वों का विवरण देते हुए अनुच्छेद 44 के माध्यम से उम्मीद जताई थी कि देश के सभी हिस्सों में समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रयास किए जाएंगे। हालांकि हिन्दू पर्सनल लॉ को 1956 में कानून की शक्ल दी गई, लेकिन उसके बाद समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए।
शाहबानो और सरला मुदगल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में समान संहिता की सिफारिशों के बाद भी कुछ नहीं हुआ। अदालत की इस टिप्पणी के बाद फिर से कुछ संवदेनशील मामलों पर देश में बहस शुरू होगी, जिनका संबंध धार्मिक मान्यताओं से है, और जो आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार को इससे नैतिक और राजनीतिक सहारा भी मिलेगा, जो इस सिलसिले में लगातार प्रयत्नशील है।

Friday, September 13, 2019

अस्पताल, बैंक और शहर सब हमलावरों के निशाने पर


सायबर खतरे-2
सायबर हमले को डिनायल ऑफ सर्विस अटैक (डॉस अटैक) कहा जाता है। इसमें हमलावर उपभोक्ता की मशीन या उसके नेटवर्क को अस्थायी या स्थायी रूप से निष्क्रिय कर देता है। इतना ही नहीं उस मशीन या सर्वर पर तमाम निरर्थक चीजें भर दी जाती हैं, ताकि सिस्टम ओवरलोड हो जाए। इनपर नजर रखने वाले डिजिटल अटैक मैप के अनुसार ऐसे ज्यादातर हमले वित्तीय केंद्रों या संस्थाओं पर होते हैं।
दुनिया में काफी संस्थागत सायबर हमले चीन से हो रहे हैं। हांगकांग में चल रहे आंदोलन को भी चीनी हैकरों ने निशाना बनाया। अमेरिका और चीन के बीच कारोबारी संग्राम चल रहा है, जिसके केंद्र में चीन की टेलीकम्युनिकेशंस कंपनी ह्वावे का नाम भी है। उधर अमेरिका की कंपनियों पर एक के बाद एक सायबर हमले हो रहे हैं। मई के महीने में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सायबर हमलों को देखते हुए देश में सायबर आपातकाल की घोषणा भी कर दी है।
हांगकांग के आंदोलनकारी एलआईएचकेजी नामक जिस इंटरनेट प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर रहे हैं उसे पिछले हफ्ते हैक कर लिया गया। एलआईएचकेजी की कई सेवाएं ठप हो गईं। इसे फिर से सक्रिय करने में कई घंटे लगे। हाल में यह दूसरा मौका था, जब हांगकांग के प्रदर्शनकारियों से जुड़े नेट प्लेटफॉर्मों पर हमला किया गया। जून में मैसेजिंग सेवा टेलीग्राम ने कहा था कि चीन से जन्मे शक्तिशाली आक्रमण के कारण उसकी सेवाएं प्रभावित हुई थीं। हांगकांग की मुख्य कार्याधिकारी कैरी लाम ने हाल में कहा था, आंदोलन को हतोत्साहित करने के लिए हम नेट सेवाओं और चुनींदा एप्स को ठप कर सकते हैं। 
अखबार भी निशाने पर
दिसंबर 2018 में अमेरिका में कई अख़बारों के दफ़्तरों पर सायबर हमलों की खबरें आईं थीं। ट्रिब्यून पब्लिशिंग ग्रुप के कई प्रकाशनों पर सायबर हमले हुए जिससे द लॉस एंजेलस टाइम्स, शिकागो ट्रिब्यून, बाल्टीमोर सन और कुछ अन्य प्रकाशनों का वितरण प्रभावित हुआ। लॉस एंजेलस टाइम्स का कहना था, लग रहा है कि ये हमले अमेरिका से बाहर किसी दूसरे देश से किए गए। वॉल स्ट्रीट जरनल और न्यूयॉर्क टाइम्स के वेस्ट कोस्ट संस्करणों पर भी असर पड़ा जो लॉस एंजेलस में इस प्रिंटिंग प्रेस से छपते हैं। हमले के एक जानकार ने लॉस एंजेलस टाइम्स को बताया, हमें लगता है कि हमले का उद्देश्य बुनियादी ढाँचे, ख़ासतौर से सर्वर्स को निष्क्रिय करना था, ना कि सूचनाओं की चोरी करना।

Thursday, September 12, 2019

कितने तमाचे खाएगा पाकिस्तान?


संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के बयान से पाकिस्तान के मुँह पर जोर का तमाचा लहा है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद से भारतीय राजनय की दिलचस्पी इस मामले पर ठंडा पानी डालने और जम्मू कश्मीर में हालात सामान्य बनाने में है, वहीं पाकिस्तान की कोशिश है कि इसपर वितंडा खड़ा किया जाए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे उठाया जाए। उसका प्रयास है कि कश्मीर की घाटी में हालात सामान्य न होने पाएं। इसी कोशिश में उसने एक तरफ अपने जेहादी संगठनों को उकसाया है, वहीं अपने राजनयिकों को दुनिया की राजधानियों में भेजा है।
पाकिस्तान ने जिनीवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की बैठक में इस मामले को उठाकर जो कोशिश की थी वह बेकार साबित हुई है। एक दिन बाद ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के बयान से पाकिस्तान को निराश होना पड़ा है। गुटेरेश का कहना है कि जम्मू-कश्मीर का मसला भारत-पाकिस्तान आपस में बातचीत कर सुलझाएं। उन्होंने इस मसले पर मध्यस्थता करने से इनकार कर दिया है। अब इस महीने की 27 तारीख को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के भाषण होंगे। उसके बाद पाकिस्तान को हंगामा खड़ा करने का कोई बड़ा मौका नहीं मिलेगा। वह इसके बाद क्या करेगा?

Tuesday, September 10, 2019

आम आदमी पार्टी की बढ़ती मुश्किलें

लोकप्रिय चेहरों के बिना केजरीवाल कितना कमाल कर पाएंगे?: नज़रिया
अलका लांबाप्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
7 सितंबर 2019
दिल्ली के चांदनी चौक से विधायक अलका लांबा ने आम आदमी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस में शामिल हो गई हैं.

उन्होंने एक ट्वीट में अपने इस इस्तीफ़े की घोषणा की.

उनके इस्तीफ़े के कारण स्पष्ट हैं कि पिछले कई महीने से वो लगातार पार्टी से दूर हैं. उन्होंने राजीव गांधी के एक मसले पर भी अपनी असहमति दर्ज की थी.

उनकी बातों से यह भी समझ आता था कि वो कम से कम आम आदमी पार्टी से जुड़ी नहीं रह पाएंगी, फिर सवाल उठता है कि वो कहां जातीं, तो कांग्रेस पार्टी एक बेहतर विकल्प था, क्योंकि वो वहां से ही आई थीं.

Monday, September 9, 2019

शिक्षा और साक्षरता उपयोगी भी तो बने


आज हम विश्व साक्षरता दिवस मना रहे हैं. दुनियाभर में 52वां साक्षरता दिवस मनाया जा रहा है. हर साल इस दिन की एक थीम होती है. इस साल स्थानीय भाषाओं के संरक्षण के लिए थीम है साक्षरता और बहुभाषावाद. दिव्यांग बच्चों की स्पेशल एजुकेशन से जुड़े युनेस्को के सलमांका वक्तव्य के 25 वर्ष भी इस साल हो रहे हैं. यानी समावेशी शिक्षा, जिसमें समाज के सभी वर्गों को शामिल किया जा सके. शिक्षा, जो उम्मीदें जगाए है और एक नई दुनिया बनाने का रास्ता दिखाए. क्या हमारी शिक्षा यह काम कर रही है?  
भारत में साक्षरता के आंकड़े परेशान करने वाले हैं. सन 2011 की जनगणना के अनुसार सात या उससे ज्यादा वर्ष के व्यक्ति जो लिख और पढ़ सकते हैं, साक्षर माने जाते हैं. जो व्यक्ति केवल पढ़ सकता है, पर लिख नहीं सकता, वह भी साक्षर नहीं है. इस परिभाषा के अनुसार 2011 में देश की साक्षरता का प्रतिशत 74.04 था. इसमें भी साक्षर पुरुषों का औसत 82.14 और स्त्रियों का औसत 65.46 था.

Sunday, September 8, 2019

चंद्रयान ने हमारा हौसला बढ़ाया


चंद्रयान-2 का लैंडर विक्रम सफल और सुरक्षित तरीके से चंद्रमा पर उतर जाता तो शायद इस आलेख की शुरूआत दूसरे तरीके से होती, पर क्या इसका विषय बदलता? नहीं बदलता। यह अभियान विफल नहीं हुआ है। इसका एक हिस्सा गंतव्य तक नहीं पहुँचा, पर यह इस यात्रा का छोटा सा अंश था। मुख्य चंद्रयान तो चंद्रमा की परिक्रमा कर ही रहा है। वैज्ञानिक प्रवृत्ति जिज्ञासु होती है। अब हमें समझना होगा कि लैंडर क्यों नहीं उतरा। यह भी एक चुनौती है, पर अभियान की सबसे बड़ी सफलता है समूचे देश की भागीदारी।
पूरे देश ने रात भर जागकर जिस तरह से अपने अंतरिक्ष यान की प्रगति को देखा, वह है सफलता। इस अभियान ने पूरे देश को जगा दिया है। सफल तो हमें होना ही है। चंद्रमा की सतह को लेकर बहुत सी जानकारियां हमारे पास हैं। जिस हिस्से में लैंडर विक्रम पहुंचा, वहां पहले कोई नहीं गया। उसने अपनी अधूरी रह गई यात्रा में भी कुछ न कुछ जानकारियाँ भेजी हैं। ये जानकारियाँ आगे काम आएंगी। मिशन का सिर्फ पांच प्रतिशत-लैंडर विक्रम और प्रज्ञान रोवर-का नुकसान हुआ है। बाकी 95 प्रतिशत-चंद्रयान-2 ऑर्बिटर-अभी एक साल चंद्रमा की तस्वीरें भेजेगा।
कल्पना करें कि विक्रम लैंडर सही तरीके से उतर जाता, तो वह सफलता कितनी बड़ी होती। पहली बार में एक बेहद जटिल तकनीक के शत-प्रतिशत सफल होने की वह महत्वपूर्ण कहानी होती। इसरो अध्यक्ष के सिवन ने पहले ही कहा था कि इस अभियान के अंतिम 15 मिनट बहुत कठिन होंगे। प्रस्तावित 'सॉफ्ट लैंडिंग' दिलों की धड़कन थाम देने वाली होगी, क्योंकि इसरो ने ऐसा पहले कभी नहीं किया है। चंद्रयान-2 की मूल योजना में लैंडर और रोवर रूस से बनकर आने वाले थे, पर रूस का चीन के सहयोग से मंगल मिशन फोबोस ग्रंट विफल हो गया। रूस ने चंद्रयान-2 से हाथ खींच लिया, क्योंकि इसी तकनीक पर वह चंद्रयान के लैंडर का विकास कर रहा था। वह इसकी विफलता का अध्ययन करना चाहता था। इस वजह से इसरो पर लैंडर को विकसित करने की जिम्मेदारी भी आ गई। यह असाधारण काम था, जिसे इसरो ने तकरीबन पूरी तरह से सफल करके दिखाया।

Saturday, September 7, 2019

सुरक्षा परिषद क्यों नहीं करा पाई कश्मीर समस्या का समाधान?


अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बनने की रेस में शामिल रह चुके वरिष्ठ सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने पिछले हफ्ते कहा कि कश्मीर के हालात को लेकर उन्हें चिंता है। अमेरिकी मुसलमानों की संस्था इस्लामिक सोसायटी ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका के 56वें अधिवेशन में उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिकी सरकार को इस मसले के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव का समर्थन में खुलकर समर्थन करना चाहिए। हालांकि बर्न सैंडर्स की अमेरिकी राजनीति में कोई खास हैसियत नहीं है और यह भी लगता है कि वे मुसलमानों के बीच अपना वोट बैंक तैयार करने के लिए ऐसा बोल रहे हैं, पर उनकी दो बातें ऐसी हैं, जो अमेरिकी राजनीति की मुख्यधारा को अपील करती हैं।
इनमें से एक है कश्मीर में अमेरिकी मध्यस्थता या हस्तक्षेप का सुझाव और दूसरी कश्मीर समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करने की। पाकिस्तानी नेता भी बार-बार कहते हैं कि इस समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करना चाहिए। यानी कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए। आज सत्तर साल बाद हम यह बात क्यों सुन रहे हैं? सन 1949 में ही समस्या का समाधान क्यों नहीं हो गया? भारत इस मामले को सुरक्षा परिषद में संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत ले गया था। जो प्रस्ताव पास हुए थे, उनसे भारत की सहमति थी। वे बाध्यकारी भी नहीं थे। अलबत्ता दो बातों पर आज भी विचार करने की जरूरत है कि तब समाधान क्यों नहीं हुआ और इस मामले में सुरक्षा परिषद की भूमिका क्या रही है?
प्रस्ताव के बाद प्रस्ताव
सन 1948 से 1971 तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए हैं। इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए थे। उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी।

Friday, September 6, 2019

डिजिटल तकनीक तभी बढ़ेगी, जब सायबर अपराध रुकेंगे


सायबर खतरे-1
इसी हफ्ते की बात है दिल्ली पुलिस के एक जॉइंट कमिश्नर क्रेडिट कार्ड धोखाधड़ी के शिकार हो गए।  उनके क्रेडिट कार्ड से किसी ने करीब 28 हजार रुपये निकाल लिए। इस धोखाधड़ी की जाँच दिल्ली पुलिस की सायबर क्राइम यूनिट कर रही है। शायद अपराधी पकड़े जाएं। पिछले कुछ समय से सायबर अपराधियों की पकड़-धकड़ की खबरें आ भी रही हैं, पर सायबर अपराध भी हो रहे हैं।  
जैसे-जैसे कंप्यूटर और इंटरनेट का जीवन में इस्तेमाल बढ़ रहा है सायबर अपराध, सायबर जोखिम, सायबर हमला, सायबर लूट और सायबर शत्रु जैसे शब्द भी हमारे जीवन में प्रवेश करने लगे हैं। इसमें विस्मय की बात नहीं, क्योंकि आपराधिक मनोवृत्तियाँ नहीं बदलीं, उनके औजार बदले हैं। एक जमाने में घरों में सोना दुगना करने वाले आते थे। लोग जानते हैं कि सोना दुगना नहीं होता, पर कुछ लोग उनके झाँसे में आ जाते थे।
सावधानी हटी, दुर्घटना घटी
सायबर जोखिम मामूली अपराधों से अलग हैं, पर मूल कामना लूटने की ही है। यह सब कई सतह पर हो रहा है और सबके कारण अलग-अलग हैं। मसलन उपरोक्त पुलिस अधिकारी के साथ हुई धोखाधड़ी उनकी असावधानी के कारण हुई। घटना के एक दिन पहले उनके मोबाइल पर एक लिंक वाला मैसेज आया था, जिसमें कहा गया था कि कार्ड का क्रेडिट स्कोर बढ़ाने के लिए भेजे गए लिंक पर अपनी जानकारी अपडेट करें। वे ठगों के झाँसे में आ गए और लिंक पर जानकारी अपडेट करा दी। दूसरे ही दिन उनके रुपये निकल गए।

Tuesday, September 3, 2019

अमेज़न की आग: इंसानी नासमझी की दास्तान


अमेज़न के जंगलों में लगी आग ने संपूर्ण मानवजाति के नाम खतरे का संदेश भेजा है। यह आग केवल ब्राजील और उसके आसपास के देशों के लिए ही खतरे का संदेश लेकर नहीं आई है। संपूर्ण विश्व के लिए यह भारी चिंता की बात है।  ये जंगल दुनिया के पर्यावरण की रक्षा का काम करते हैं। इन जंगलों में लाखों किस्म की जैव और वनस्पति प्रजातियाँ हैं। अरबों-खरबों पेड़ यहां खड़े हैं। ये पेड़ दुनिया की कार्बन डाई ऑक्साइड को जज्ब करके ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे को कम करते हैं। दुनिया की 20 फीसदी ऑक्सीजन इन जंगलों से तैयार होती है। इसे पृथ्वी के फेफड़े की संज्ञा दी जाती है। समूचे दक्षिण अमेरिका की 50 फीसदी वर्ष इन जंगलों के सहारे है। अफसोस इस बात का है कि यह आग इंसान ने खुद लगाई है। उससे ज्यादा अफसोस इस बात का है कि हमारे मीडिया का ध्यान अब भी इस तरफ नहीं गया है। 
जंगलों की इस आग की तरफ दुनिया का ध्यान तब गया, जब ब्राजील के राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (आईएनईपी) ने जानकारी दी कि देश में जनवरी से अगस्त के बीच जंगलों में 75,336 आग की घटनाएं हुई हैं। अब ये घटनाएं 80,000 से ज्यादा हो चुकी हैं। आईएनईपी ने सन 2013 से ही उपग्रहों की मदद से जंगलों की आग का अध्ययन करना शुरू किया है। कई तरह के अनुमान हैं। पिछले एक दशक में ऐसी आग नहीं लगी से लेकर ऐसी आग कभी नहीं लगी तक।
यह आग इतनी जबर्दस्त है कि ब्राजील के शहरों में इन दिनों सूर्यास्त समय से कई घंटे पहले होने लगा है। देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। आग बुझाने के लिए सेना बुलाई गई है और वायुसेना के विमान भी आकाश से पानी गिरा रहे हैं। फ्रांस में हो रहे जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन में इस संकट पर खासतौर से विचार किया गया और इसके समाधान के लिए तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने की पेशकश की गई है।
पूरी दुनिया पर खतरा
आग सिर्फ ब्राजील के जंगलों में ही नहीं लगी है, बल्कि वेनेजुएला, बोलीविया, पेरू और पैराग्वे के जंगलों में भी लगी है। वेनेज़ुएला दूसरे नंबर पर है जहां आग की 2600 घटनाएं सामने आई हैं, जबकि 1700 घटनाओं के साथ बोलीविया तीसरे नंबर पर है। ब्राजील में आग की घटनाओं का सबसे अधिक प्रभाव उत्तरी इलाक़ों में पड़ा है। घटनाओं में रोराइमा में 141%, एक्रे में 138%, रोंडोनिया में 115% और अमेज़ोनास में 81% वृद्धि हुई है, जबकि दक्षिण में मोटो ग्रोसो डूो सूल में आग की घटनाएं 114% बढ़ी हैं।

Sunday, September 1, 2019

क्या हासिल होगा बैंकों के महाविलय से?


शुक्रवार की दोपहर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने राष्ट्रीयकृत बैंकों के विलय की घोषणा के लिए जो समय चुना था, वह सरकार की समझदारी को भी बताता है. इस प्रेस कांफ्रेंस के समाप्त होते ही खबरिया चैनलों के स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज थी कि इस वित्तवर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी की दर घटकर 5 फीसदी हो गई है. बैंकों के विलय की घोषणा ने जो सकारात्मक माहौल पैदा किया था, उसके कारण जीडीपी की खबर से लगने वाला धक्का, थोड़ा धीरे से लगा. बेशक मंदी की खबरें चिंताजनक हैं, पर सरकार यह संदेश देना चाहती है कि हम सावधान हैं और अर्थव्यवस्था की तस्वीर बदल कर रखेंगे. कई बार संकट के बीच से ही समाधान भी निकलते हैं.
वित्तमंत्री ने बैंकों के महाविलय की जो घोषणा की है, उससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या 18 से घटकर 12 रह जाएगी. वित्त मंत्री निर्मला पंजाब नेशनल बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया का अधिग्रहण करेगा. इसी तरह वहीं केनरा बैंक में सिंडीकेट बैंक का, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में आंध्रा बैंक और कॉर्पोरेशन बैंक तथा इंडियन बैंक में इलाहाबाद बैंक का विलय होगा. अब इन 10 बैंकों के विलय के बाद चार बैंक बन जाएंगे. बैंक ऑफ बड़ौदा और बैंक ऑफ इंडिया के रूप में दो बड़े बैंक पहले से हैं. इंडियन ओवरसीज बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और पंजाब एंड सिंध बैंक पहले की तरह काम करते रहेंगे क्योंकि ये मजबूत क्षेत्रीय बैंक हैं. बैंक-राष्ट्रीयकरण के पचास वर्ष बाद उन्हें लेकर यह सबसे बड़ा फैसला है.  

राहुल का कश्मीर कनफ्यूज़न


कांग्रेस और बीजेपी के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है। ज्यादातर सरकारी फैसलों के दूसरे पहलू पर रोशनी डालने की जिम्मेदारी कांग्रेस की है, क्योंकि वह सबसे बड़ा विरोधी दल है। पार्टी की जिम्मेदारी है कि वह अपने वृहत्तर दृष्टिकोण या नैरेटिव को राष्ट्रीय हित से जोड़े। उसे यह विवेचन करना होगा कि पिछले छह साल में उससे क्या गलतियाँ हुईं, जिनके कारण वह पिछड़ गई। केवल इतना कहने से काम नहीं चलेगा कि जनता की भावनाओं को भड़काकर बीजेपी उन्मादी माहौल तैयार कर रही है।
कांग्रेसी नैरेटिव के अंतर्विरोध कश्मीर में साफ नजर आते हैं। इस महीने का घटनाक्रम गवाही दे रहा है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का आदेश पास होने के 23 दिन बाद राहुल गांधी ने कश्मीर के सवाल पर महत्वपूर्ण ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने लिखा, सरकार के साथ हमारे कई मुद्दों को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन साफ है कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है। पाकिस्तान वहां हिंसा फैलाने के लिए आतंकियों का समर्थन कर रहा है। इसमें पाकिस्तान समेत किसी भी देश के दखल की जरूरत नहीं है।
राहुल गांधी का यह बयान स्वतः नहीं है, बल्कि पेशबंदी में है। यही इसका दोष है। इसके पीछे संयुक्त राष्ट्र को लिखे गए पाकिस्तानी ख़त का मजमून है, जिसमें पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि कश्मीर में हालात सामान्य होने के भारत के दावे झूठे हैं। इन दावों के समर्थन में राहुल गांधी के एक बयान का उल्लेख किया गया है, जिसमें राहुल ने माना कि 'कश्मीर में लोग मर रहे हैं' और वहां हालात सामान्य नहीं हैं। राहुल गांधी को अपने बयानों को फिर से पढ़ना चाहिए। क्या वे देश की जनता की मनोभावना का प्रतिनिधित्व करते हैं?