Thursday, February 7, 2019

दिल्ली में आप-कांग्रेस और भाजपा

दिल्ली में पिछले कुछ महीनों से आम आदमी पार्टी कांग्रेस पर दबाव बना रही है कि बीजेपी को हराना है, जो हमारे साथ गठबंधन करना होगा। हाल में हरियाणा के जींद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी रणदीप सिंह सुरजेवाला के तीसरे स्थान पर रहने के बाद अरविंद केजरीवाल ने इस बात को फिर दोहराया। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस अगर दिल्ली की सातों सीटें जीतने की गारंटी दे, तो हम सभी सीटें छोड़ने को तैयार हैं। सवाल है कि ऐसी गारंटी कौन दे सकता है? हो सकता है कि आम आदमी पार्टी ऐसी गारंटी देने की स्थिति में हो, पर कांग्रेस के सामने केवल बीजेपी को हराने का मसला ही नहीं है। 

कांग्रेस को उत्तर भारत में अपनी स्थिति को बेहतर बनाना है, तो उसे अपनी स्वतंत्र राजनीति को भी मजबूत करना होगा। उत्तर प्रदेश में नब्बे के दशक में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के सामने हथियार डाल दिए थे और मान लिया था कि बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में एकमात्र सहारा सपा ही है। उस रणनीति के कारण यूपी में वह अपनी जमीन पूरी तरह खो चुकी है। दिल्ली में अभी उसकी स्थिति इतनी खराब नहीं है। दूसरे उसे भविष्य में खड़े रहना है, तो सबसे पहले आम आदमी पार्टी को किनारे करना होगा। क्योंकि बीजेपी के खिलाफ दो मोर्चे बनाने पर हर हाल में फायदा बीजेपी को होगा। भले ही आज फायदा न मिले, पर दीर्घकालीन लाभ अकेले खड़े रहने में ही है। 

Wednesday, February 6, 2019

सीबीआई और पुलिस का राजनीतिकरण

http://inextepaper.jagran.com/2013528/Agra-Hindi-ePaper,-Agra-Hindi-Newspaper-–-InextLive/06-02-19#page/8/1
सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता के पुलिस-कमिश्नर राजीव कुमार की गिरफ्तारी रोकने के बावजूद सीबीआई की पूछताछ से उन्हें बरी नहीं किया है. यह पूछताछ होगी. इस मामले में किसी की जीत या हार नहीं हुई है. टकराव फौरी तौर पर टल गया है, पर उसके बुनियादी कारण अपनी जगह कायम हैं. राजनीतिक मसलों में सीबीआई के इस्तेमाल का आरोप देश में पहली बार नहीं लगा है, और लगता नहीं कि केन्द्र की कोई भी सरकार इसे बंधन-मुक्त करेगी. उधर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद राज्य सरकारें पुलिस-सुधार को तैयार नहीं हैं. वे पुलिस का इस्तेमाल अपने तरीके से करना चाहती हैं. राजनीतिकरण इधर भी है और उधर भी.
राजीव कुमार के घर पर छापामारी के समय और तौर-तरीके के कारण विवाद खड़ा हुआ है. सीबीआई जानना चाहती है कि विशेष जाँच दल के प्रमुख के रूप में उन्होंने सारदा घोटाले की क्या जाँच की और उनके पास कौन से दस्तावेज हैं. इस जानकारी को हासिल करने कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए और उसमें अड़ंगे लगाना गलत है, पर देखना होगा कि सीबीआई का तरीका क्या न्याय संगत था? क्या उसने वे सारी प्रक्रियाएं पूरी कर ली थीं, जो इस स्तर के अफसर से पूछताछ के लिए होनी चाहिए? इन बातों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पूरी सुनवाई के बाद ही आएगा.
केन्द्र और ममता बनर्जी दोनों इस मामले का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं. बीजेपी बंगाल में प्रवेश करके ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें हासिल करने की कोशिश में है, वहीं ममता बनर्जी खुद को बीजेपी-विरोधी मुहिम की नेता के रूप में स्थापित कर रहीं हैं. हाल में उनकी सरकार ने बीजेपी को बंगाल में रथ-यात्राएं निकालने से रोका है. बीजेपी बंगाल के ग्रामीण इलाकों में प्रवेश कर रही है. तृणमूल-विरोधी सीपीएम के कार्यकर्ता बीजेपी में शामिल होते जा रहे हैं.
संघीय-व्यवस्था में केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच इस प्रकार का विवाद अशोभनीय है. देश की जिन कुछ महत्वपूर्ण संस्थाओं को जनता की जानकारी के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया है, उनमें सीबीआई भी है. इसके पीछे राष्ट्रीय सुरक्षा और मामलों की संवेदनशीलता को मुख्य कारण बताया जाता है, पर जैसे ही इस संस्था को स्वायत्त बनाने और सरकारी नियंत्रण से बाहर रखने की बात होती है, सभी सरकारें हाथ खींच लेती हैं.

Sunday, February 3, 2019

सीमांत किसान और मध्यवर्ग का बजट

http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-02-03
इसमें दो राय नहीं कि मोदी सरकार का चुनावी साल का बजट लोक-लुभावन बातों से भरपूर है, पर इसके पीछे सामाजिक-दृष्टि भी है। इस बजट से तीन तबके सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। एक सीमांत किसान, दूसरे असंगठित क्षेत्र के श्रमिक और तीसरे वेतन भोगी वर्ग। छोटे किसानों और मध्यवर्ग के लिए की गई घोषणाओं पर करीब एक लाख करोड़ रुपये (जीडीपी करीब 0.5 फीसदी) के खर्च की घोषणा सरकार ने की है, पर राजकोषीय अनुशासन बिगड़ा नहीं है। इस सरकार की उपलब्धि है, टैक्स-जीडीपी अनुपात को 2013-14 के 10.1 फीसदी से बढ़ाकर 11.9 फीसदी तक पहुंचाना। यानी कि कर-अनुपालन में प्रगति हुई है। आयकर चुकता करने वालों की तादाद से और जीएसटी में क्रमशः होती जा रही बढ़ोत्तरी से यह बात साबित हो रही है।

सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों को आय समर्थन के लिए करीब 75,000 करोड़ रुपये की योजना की घोषणा की है। यह धनराशि कृषि उपज के मूल्य में कमी की भरपाई करेगी। सरकार का यह कदम कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दिशा में एक कदम है। तेलंगाना में यह कार्यक्रम पहले से चल रहा है। केन्द्र सरकार इसका श्रेय चाहती है, तो इसमें गलत क्या है? दूसरी कल्याण योजना है असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए पेंशन। कल्याण योजनाओं के लिए संसाधन मौजूदा कार्यक्रमों में कमी करके उपलब्ध कराए गए हैं। यह भी सच है कि आयकर-दाताओं के सबसे निचले स्लैब को राहत देने से राजनीतिक लाभ मिलेगा। इस लिहाज से यह बजट विरोधी-दलों को खटक रहा है। अंतरिम बजट में बड़े नीतिगत फैसले को लेकर उनकी आपत्ति है, पर पहली बार अंतरिम बजट में बड़ी घोषणाएं नहीं हुईं हैं।

Saturday, February 2, 2019

असमंजस से घिरी कांग्रेस की मंदिर-राजनीति

सही या गलत, पर राम मंदिर का मसला उत्तर प्रदेश समेत उत्तर के ज्यादातर राज्यों में वोटर के एक बड़े तबके को प्रभावित करेगा। इस बात को राजनीतिक दलों से बेहतर कोई नहीं जानता। हिन्दू समाज के जातीय अंतर्विरोधों के जवाब में बीजेपी का यह कार्ड काम करता है। चूंकि मंदिर बना नहीं है और कानूनी प्रक्रिया की गति को देखते हुए लगता नहीं कि लोकसभा चुनाव के पहले इस दिशा में कोई बड़ी गतिविधि हो पाएगी। इसलिए मंदिर के दोनों तरफ खड़े राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से वोटर को भरमाने की कोशिश में लगे हैं।
कांग्रेस की कोशिश राम मंदिर को लेकर बीजेपी को घेरने और उसके अंतर्विरोधों को उजागर करने की है, पर वह अपनी नीति को साफ-साफ बताने से बचती रही है। अभी जनवरी में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि राम मंदिर का मसला अभी कोर्ट में है,  पर 2019 के चुनाव में नौकरी, किसानों से जुड़े मुद्दे पर अहम होंगे। उनका आशय यह था कि मंदिर कोई मसला नहीं है। पर वे इस मसले से पूरी तरह कन्नी काटने को तैयार भी नहीं हैं। इस मामले में उन्होंने विस्तार से कभी कुछ नहीं कहा।
हिन्दू छवि भी चाहिए
हाल में पाँच राज्यों में हुए चुनावों के दौरान उन्होंने अपनी हिन्दू-छवि को कुछ ज्यादा उजागर किया, पर मंदिर के निर्माण को लेकर सुस्पष्ट राय व्यक्त नहीं की। मंदिर ही नहीं मस्जिद के पुनर्निर्माण का वादा भी तत्कालीन सरकार ने किया था। उसके बारे में भी पार्टी ने साफ-साफ शब्दों में कुछ नहीं कहा। कांग्रेस पार्टी अदालत के फैसले को मानने की बात कहती है, पर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्बल ने अदालती फैसला विलंब से करने की जो प्रार्थना की थी, उसे लेकर पार्टी पर फैसले में अड़ंगा लगाने का आरोप जरूर लगता है। कांग्रेस पार्टी का यह असमंजस आज से नहीं अस्सी के दशक से चल रहा है। 

बजट में सपने हैं, जुमले और जोश भी!


नरेन्द्र मोदी को सपनों का सौदागर कहा जा सकता है और उनके विरोधियों की भाषा में जुमलेबाज़ भी। उनका अंतरिम बजट पूरे बजट पर भी भारी है। वैसा ही लुभावना और उम्मीदों से भरा, जैसा सन 2014 में उनका पहला बजट था। इसमें गाँवों और किसानों के लिए तोहफों की भरमार है और साथ ही तीन करोड़ आय करदाताओं के लिए खुशखबरी है। कामगारों के लिए पेंशन है। उन सभी वर्गों का इसमें ध्यान रखा गया है, जो जनमत तैयार करते हैं। यानी की कुल मिलाकर पूरा राजनीतिक मसाला है। इसे आप राजनीतिक और चुनावोन्मुखी बजट कहें, तो आपको ऐसा कहने का पूरा हक है, पर आज की राजनीति में क्या यह बात अजूबा है? वोट के लिए ही तो सारा खेल चल रहा है। ऐसा भी नहीं कि इन घोषणाओं से खजाना खाली हो जाएगा, बल्कि अर्थ-व्यवस्था बेहतरी का इशारा कर रही है। इस अंतरिम बजट में सरकार ने सन 2030 तक की तस्वीर भी खींची है। यह वैसा ही बजट है, जैसा चुनाव के पहले होना चाहिए।

इस तस्वीर का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है पाँच साल में पाँच ट्रिलियन और आठ साल में दस ट्रिलियन की अर्थ-व्यवस्था बनना। इस वक्त हमारी अर्थ-व्यवस्था करीब ढाई ट्रिलियन डॉलर की है। अगले 11 साल में भारत के रूपांतरण का जो सपना यह सरकार दिखा रही है, वह भले ही बहुत सुहाना न हो, पर असम्भव भी नहीं है। 

उड़ानें भरता बजट


http://inextepaper.jagran.com/2007752/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/02-02-19#page/8/1
मोदी सरकार का अंतिम बजट वैसा ही लुभावना और उम्मीदों से भरा है, जैसा सन 2014 में इस सरकार का पहला बजट था. इसमें गाँवों और किसानों के लिए तोहफों की भरमार है और साथ ही तीन करोड़ आय करदाताओं के लिए खुशखबरी है. कामगारों के लिए पेंशन है. उन सभी वर्गों का इसमें ध्यान रखा गया है, जो जनमत तैयार करते हैं. ऐसा भी नहीं कि इन घोषणाओं से खजाना खाली हो जाएगा, बल्कि अर्थ-व्यवस्था बेहतरी का इशारा कर रही है.

दो हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों सालाना छह हजार रुपये की मदद देने की जो घोषणा की गई है, उसे सार्वभौमिक न्यूनतम आय कार्यक्रम की शुरूआत मान सकते हैं. बेशक यह चुनाव से जुड़ा है, पर इस अधिकार से सरकार को वंचित नहीं कर सकते. अलबत्ता पूछ सकते हैं कि इसे लागू कैसे करेंगे? व्यावहारिक रूप से इन्हें लागू करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. बल्कि आने वाले वर्षों में ये स्कीमें और ज्यादा बड़े आकार में सामने आएंगी, क्योंकि अर्थ-व्यवस्था इन्हें सफलता से लागू करने की स्थिति में है.

पिछले साल जिस तरह से आयुष्मान भारत कार्यक्रम की घोषणा की गई थी, उसी तरह यह एक नई अवधारणा है, जो समय के साथ विकसित होगी. किसान सम्मान निधि से करीब 12 करोड़ छोटे किसानों का भला होगा. इन्हीं परिवारों को उज्ज्वला, सौभाग्य और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का लाभ मिलेगा. यह स्कीम 1 दिसम्बर 2018 से लागू हो रही है. यानी कि इसकी पहली किस्त चुनाव के पहले किसानों को मिल भी जाएगी. 

Saturday, January 26, 2019

भारतीय गणतंत्र की विडंबनाएं


इस साल हम अपना सत्तरवाँ गणतंत्र दिवस मनाएंगे. सत्तर साल कुछ भी नहीं होते. पश्चिमी देशों में आधुनिक लोकतंत्र के प्रयोग पिछले ढाई सौ साल से ज्यादा समय से हो रहे हैं, फिर भी जनता संतुष्ट नहीं है. पिछले नवम्बर से फ्रांस में पीली कुर्ती आंदोलनचल रहा है. फ्रांस में ही नहीं इटली, बेल्जियम और यूरोप के दूसरे देशों में जनता बेचैन है. हम जो कुछ भी करते हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है. हमारे चुनाव दुनिया के सबसे बड़े चुनाव होते हैं, पर चुनाव हमारी समस्या है और समाधान भी.
ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को भारत की आजादी को लेकर संदेह था. उन्होंने कहा था, ‘धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों में सत्ता चली जाएगी. सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्त्वहीन व्यक्ति होंगे. वे जबान से मीठे और दिल से नासमझ होंगे. सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़ मरेंगे और भारत राजनैतिक तू-तू-मैं-मैं में खो जाएगा.’
चर्चिल को ही नहीं सन 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था कि इस देश की व्यवस्था दस साल से ज्यादा चलने वाली नहीं है. टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा. ऐसा नहीं हुआ, पर सपनों का वैसा संसार भी नहीं बसा जैसा गांधी-नेहरू ने कहा था. हम विफल नहीं हैं, पर सफल भी नहीं हैं. इस सफलता या विफलता का श्रेय काफी श्रेय हमारी राजनीति को जाता है और राजनीति की सफलता या विफलता में हमारा भी हाथ है.

Monday, January 21, 2019

‘आप’ की अग्निपरीक्षा होगी अब

क्या दिल्ली और पंजाब में 'आप' का अस्तित्व दाँव पर है?- नज़रिया

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए

पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले देश की राजनीति में नरेन्द्र मोदी के 'भव्य-भारत की कहानी' और उसके समांतर आम आदमी पार्टी 'नई राजनीति के स्वप्न' लेकर सामने आई थी.
दोनों की अग्नि-परीक्षा अब इस साल लोकसभा चुनावों में होगी. दोनों की रणनीतियाँ इसबार बदली हुई होंगी.
ज़्यादा बड़ी परीक्षा 'आप' की है, जिसका मुक़ाबला बीजेपी के अलावा कांग्रेस से भी है. दिल्ली और पंजाब तक सीमित होने के कारण उसका अस्तित्व भी दाँव पर है.
आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने पिछले रविवार को बरनाला से पंजाब में पार्टी के लोकसभा चुनाव अभियान की शुरूआत की है. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी राज्य की सभी 13 सीटों पर अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ेगी.

पार्टी का फोकस बदला
हाल में हुई पार्टी की कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों में फ़ैसला किया गया कि 2014 की तरह इस बार हम सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ेंगे.
पार्टी का फोकस अभी सिर्फ़ 33 सीटों पर है (दिल्ली में 7, पंजाब में 13, हरियाणा में10, गोवा में 2 और चंडीगढ़ में एक ). ज्यादातर जगहों पर उसका बीजेपी के अलावा कांग्रेस से भी मुक़ाबला है.
कुछ महीने पहले तक पार्टी कोशिश कर रही थी कि किसी तरह से कांग्रेस के साथ समझौता हो जाए, पर अब नहीं लगता कि समझौता होगा. दूसरी तरफ़ वह बीजेपी-विरोधी महागठबंधन के साथ भी है, जो अभी अवधारणा है, स्थूल गठबंधन नहीं.


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Monday, January 14, 2019

बसपा-सपा ने क्यों की कांग्रेस से किनाराकशी?


http://inextepaper.jagran.com/1980169/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/14-01-19#page/8/1
बसपा और सपा के गठबंधन की घोषणा करते हुए शनिवार को मायावती ने सिर उठाकर कहा कि कांग्रेस को शामिल न करने के बारे में आप कोई सवाल पूछें उससे पहले ही हम बता देते हैं कि देश की तमाम समस्याओं के लिए बीजेपी के साथ कांग्रेस भी जिम्मेदार है. यह भी कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने पर वोट ट्रांसफर भी नहीं होता. हमारा 1996 का और सपा का 2017 का यह अनुभव है. इस स्पष्टीकरण के बाद यह संशय कायम है कि ये दोनों दल कांग्रेस से दूरी क्यों बना रहे हैं?

किसी ने अखिलेश से पूछा कि क्या आप प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती का समर्थन करेंगे? उन्होंने अपनी हामी भरी और मायावती मुस्कराईं. मायावती ने कहा कि यह गठबंधन 2019 के चुनाव से आगे जाएगा. कांग्रेस को शामिल करने से गठबंधन का वोट बढ़ता, पर फसल का बँटवारा होता. दोनों के हिस्से दस-दस सीटें कम पड़तीं. त्रिशंकु संसद बनने की स्थिति में उनकी मोल-भाव की ताकत कम हो जाती. दोनों को अपनी मिली-जुली ताकत का एहसास है. उनकी दिलचस्पी चुनावोत्तर परिदृश्य में है. कांग्रेस के साथ जाएंगे, तो उसके दबाव में रहना होगा. हमारी मदद से वह 15-20 सीटें ज्यादा ले जाएगी. ताकत उसकी बढ़ेगी, हमारी कम हो जाएगी.

Sunday, January 13, 2019

गठबंधन राजनीति के नए दौर का आग़ाज़


उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा के गठबंधन की घोषणा के साथ सन 2019 की महागठबंधन राजनीति ने एक बड़ा मोड़ ले लिया है। इस सिलसिले में लखनऊ में हुए संवाददाता सम्मेलन की दो-तीन बातें गौर करने लायक हैं, जो गठबंधन राजनीति को लेकर कुछ बुनियादी सवाल खड़े करती हैं। इस संवाददाता सम्मेलन में मायावती ने कहा कि बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस भी तमाम खराबियों के लिए जिम्मेदार है। दूसरे यह कि जरूरत पड़ी तो अखिलेश यादव प्रधानमंत्री पद पर मायावती का समर्थन करेंगे। तीसरे इस गठबंधन में हालांकि कांग्रेस के लिए अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ी गईं हैं, पर शेष दो सीटों के बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है कि वे किसे दी जाएंगी। एक अनुमान है कि राष्ट्रीय लोकदल को ये सीटें दी जा सकती हैं, पर क्या वह इतनी सीटों से संतुष्ट होगा?

अगले लोकसभा चुनाव में यूपी, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र के अलावा दक्षिण के पाँचों राज्यों में गठबंधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। ज्यादातर राज्यों में तस्वीर अभी तक साफ नहीं है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश पहला राज्य है, जहाँ गठबंधन की योजना सामने आई है। देखना यह है कि यह गठबंधन क्या के चंद्रशेखर राव द्वारा प्रस्तावित फेडरल फ्रंट का हिस्सा बनेगा, जिसे ममता बनर्जी और नवीन पटनायक का समर्थन हासिल है। सीटों की संख्या के लिहाज से यूपी में सबसे बड़ा मुकाबला है।

Saturday, January 12, 2019

गेमचेंजर भले न हो, नैरेटिव चेंजर तो है

आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने वाला संविधान संशोधन विधेयक संसद में जितनी तेजी से पास हुआ, उसकी कल्पना तीन दिन पहले किसी को नहीं थी। कांग्रेस समेत दूसरे विरोधी दलों ने इस आरक्षण को लेकर सरकार की आलोचना की, पर इसे पास करने में मदद भी की। यह विधेयक कुछ उसी अंदाज में पास हुआ, जैसे अगस्त 2013 में खाद्य सुरक्षा विधेयक पास हुआ था। लेफ्ट से राइट तक के पक्षियों-विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी जैसे अपना बच्चा हो। आलोचना की भी तो ईर्ष्या भाव से, जैसे दुश्मन ले गया जलेबी का थाल। तकरीबन हरेक दल ने इसे ‘चुनाव सुरक्षा विधेयक’ मानकर ही अपने विचार व्यक्त किए।
तकरीबन वैसा ही यह 124 वाँ संविधान संशोधन ‘चुनाव आरक्षण विधेयक’ साबित हुआ। भारतीय राजनीति किस कदर गरीबों की हितैषी है, इसका पता ऐसे मौकों पर लगता है। चुनाव करीब हों, तो खासतौर से। राज्यसभा में जब यह विधेयक पास हो रहा था केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने विरोधियों पर तंज मारा, आप इसे लाने के समय पर सवाल उठा रहे हैं, तो मैं बता दूं कि क्रिकेट में छक्‍का स्‍लॉग ओवर में लगता है। आपको इसी पर परेशानी है तो ये पहला छक्‍का नहीं है। और भी छक्‍के आने वाले हैं।
क्या कहानी बदलेगी?
इस छक्केबाजी से क्या राजनीति की कहानी बदलेगी? क्या बीजेपी की आस्तीन में कुछ और नाटकीय घोषणाएं छिपी हैं? सच यह है कि भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा विधेयक 2014 के चुनाव में कांग्रेस को कुछ दे नहीं पाए, बल्कि पार्टी को इतिहास की सबसे बड़ी हार हाथ लगी। कांग्रेस उस दौर में विलेन और मोदी नए नैरेटिव के नायक बनकर उभरे थे। पर इसबार कहानी बदली हुई है। इसीलिए सवाल है कि मोदी सरकार के वायदों पर जनता भरोसा करेगी भी या नहीं?  पार्टी की राजनीतिक दिशा का संकेत इस आरक्षण विधेयक से जरूर मिला है। पर रविशंकर प्रसाद ने जिन शेष छक्कों की बात कही है, उन्हें लेकर अभी कयास हैं।

Friday, January 11, 2019

क्या आरक्षण बीजेपी की नैया पार लगाएगा?

http://epaper.navodayatimes.in/1976127/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/10/1
मोदी सरकार ने चुनाव के ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पास करके राजनीतिक धमाका किया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि सवर्ण हिन्दू जातियों के बीच पार्टी का जनाधार हाल में कमजोर हो रहा था। पिछले दिनों अजा-जजा एक्ट में संशोधन के कारण यह वर्ग पार्टी से नाराज था। मध्य प्रदेश में इसका असर खासतौर से देखने को मिला। एक नया दल सपाक्स खड़ा हो गया। वोट फॉर नोटा का नारा दिया गया। आंदोलन की गूँज उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में भी सुनी गई। सवाल है कि क्या सरकार का यह फैसला इसी रोष को कम करने लिए है या कुछ और है? सरकार इस बहाने क्या आरक्षण पर बहस को शुरू करना चाहती है? लाख टके का सवाल यह है कि क्या इससे भाजपा के पक्ष में लहरें पैदा होंगी?

Monday, January 7, 2019

राफेल से जुड़े वाजिब सवाल



दुनिया में रक्षा-उपकरणों का सबसे बड़ा आयातक भारत है. हमारी साठ फीसदी से ज्यादा रक्षा-सामग्री विदेशी है. स्वदेशी रक्षा-उद्योग के पिछड़ने की जिम्मेदारी राजनीति पर भी है. सार्वजनिक रक्षा-उद्योगों ने निजी क्षेत्र को दबाकर रखा. सरकारी नीतियों ने इस इजारेदारी को बढ़ावा दिया. सन 1962 में चीनी हमले के बाद से देश का रक्षा-व्यय बढ़ा और आयात भी. नौसेना ने स्वदेशी तकनीक का रास्ता पकड़ा, पर वायुसेना ने विदेशी विमानों को पसंद किया. इस वजह से एचएफ-24 मरुत विमान का कार्यक्रम फेल हुआ. हम इंजन के विकास पर निवेश नहीं कर पाए.  
राजनीतिक शोर नहीं होता, तो शायद हम राफेल पर भी बात नहीं करते. चुनाव करीब हैं, इसलिए यह शोर है. अरुण जेटली ने कहा है कि कांग्रेस उस घोटाले को गढ़ रही है, जो हुआ ही नहीं. शायद कांग्रेस को लगता है कि जितना मामले को उछालेंगे, लोगों को लगेगा कि कुछ न कुछ बात जरूर है. जरूरी है कि इसकी राजनीति से बाहर निकलकर इसे समझा जाए.

Sunday, January 6, 2019

राजनीतिक फुटबॉल बना राफेल

कांग्रेस पार्टी कह रही है कि राफेल मामले में घोटाला हुआ है और सरकार कह रही है कि कांग्रेस ‘घोटाले को गढ़ने का काम’ कर रही है। ऐसा घोटाला, जो हुआ ही नहीं। यह मामला रोचक हो गया है। शायद राफेल प्रकरण पर कांग्रेस की काफी उम्मीदें टिकी हैं। पर क्या उसे सफलता मिलेगी? शुक्रवार को रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने गोपनीयता का हवाला देते हुए कुछ बातों की सफाई भी दी है। फिर भी लगता नहीं कि कांग्रेस इन स्पष्टीकरणों से संतुष्ट है या होगी। संदेह जितना घना होगा, उतना उसे लाभ मिलेगा। उधर निर्मला सीतारमण ने कहा कि बोफोर्स के कारण कांग्रेस सरकार चुनाव हारी थी और देशहित में हुए राफेल सौदे के कारण बीजेपी फिर से जीत कर आएगी। क्या यह मामला केवल चुनाव जीतने या हारने का है? देश की सुरक्षा पर भी राजनीति!  
राहुल गांधी का कहना है कि इस मसले का ‘की पॉइंट’ है एचएएल के बजाय अम्बानी की फर्म को ऑफसेट ठेका मिलना। उन्हें बताना चाहिए कि यह ‘की पॉइंट’ क्यों है? क्या एचएएल ऑफसेट की लाइन में था? या अम्बानी को विमान बनाने का लाइसेंस मिल गया है? क्या दोनों के बीच प्रतियोगिता थी? सवाल यह भी है कि रिलायंस को क्या मिला? 30,000 करोड़ का या छह-सात सौ करोड़ का ऑफसेट ठेका? जैसा कि बुधवार को वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संसद में बताया था। मिला भी तो किसने दिया? सरकार ने या विमान कम्पनी दासो ने?

Saturday, January 5, 2019

कांग्रेस के इम्तिहान का साल



इस हफ्ते संसद में और संसद के बाहर राहुल गांधी के तीखे तेवरों को देखने से लगता है कि कांग्रेस पार्टी का आत्मविश्वास लौट रहा है। उसके समर्थकों और कार्यकर्ताओं के भीतर आशा का संचार हुआ है। इसे आत्मविश्वास कह सकते हैं या आत्मविश्वास प्रकट करने की रणनीति भी कह सकते हैं, क्योंकि पार्टी को वोटर के समर्थन के पहले पार्टी-कार्यकर्ता के विश्वास की जरूरत भी है। छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सत्ता पर वापसी ने न केवल आत्मविश्वास बढ़ाया है, बल्कि संसाधनों का रास्ता भी खोला है। पर लोकसभा-चुनाव केवल सत्ता में वापसी के लिहाज से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को परिभाषित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सवाल है कि कांग्रेस के पास दीर्घकालीन राजनीति की कोई समझ है या केवल राजकुमार को सिंहासन पर बैठाने की मनोकामना लेकर वह आगे बढ़ रही है?
इस साल लोकसभा के अलावा आठ विधानसभाओं के चुनाव भी होने वाले हैं। इनमें आंध्र, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में खासतौर से कांग्रेस की दिलचस्पी है। पार्टी चाहती है कि सन 2019 का वर्ष उसकी राजनीति को निर्णायक मोड़ दे। यह असम्भव भी नहीं है, तमाम किन्तु-परन्तुओं के बावजूद।

Wednesday, January 2, 2019

सेमी-फाइनल साल के सियासी-पेचोख़म


http://epaper.dainiktribuneonline.com/1957951/Dainik-Tribune-(Lehrein)/DM-30-December-2018#page/1/2
भारतीय राजनीति के नज़रिए से 2018 सेमी-फाइनल वर्ष था। फाइनल के पहले का साल। पाँच साल की जिस चक्रीय-व्यवस्था से हमारा लोकतंत्र चलता है, उसमें हर साल और हर दिन का अपना महत्व है। पूरे साल का आकलन करें, तो पाएंगे कि यह कांग्रेस के उभार और बीजेपी के बढ़ते पराभव का साल था। फिर भी न तो यह कांग्रेस को पूरी विजय देकर गया और न बीजेपी को निर्णायक पराजय। काफी संशय बाकी हैं। गारंटी नहीं कि फाइनल वर्ष कैसा होगा। कौन अर्श पर होगा और कौन फर्श पर।

इस साल नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए और कुछ महत्वपूर्ण उपचुनाव हुए, जिनसे 2019 के राजनीतिक फॉर्मूलों की तस्वीर साफ हुई। राज्यसभा के चुनावों ने उच्च सदन में कांग्रेस के बचे-खुचे वर्चस्व को खत्म कर दिया। सदन के उप-सभापति के चुनाव में विरोधी दलों की एकता को एक बड़े झटके का सामना करना पड़ा। राजनीतिक गतिविधियों के बीच न्यायपालिका के कुछ प्रसंगों ने इस साल ध्यान खींचा। हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति, ट्रिपल तलाक, आधार की अनिवार्यता, समलैंगिकता  को अपराध के बाहर करना, जज लोया, अयोध्या में मंदिर और राफेल विमान सौदे से जुड़े मामलों के कारण न्यायपालिका पूरे साल खबरों में रही। असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर अदालत में और उसके बाहर भी गहमागहमी रही और अभी चलेगी।

Monday, December 31, 2018

उम्मीदों और अंदेशों से घिरा साल

http://inextepaper.jagran.com/1959798/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/31-12-18#page/8/1
राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस की आंशिक वापसी और बीजेपी के आंशिक पराभव का साल था. न तो यह कांग्रेस को पूरी विजय देकर गया और न बीजेपी को स्थायी पराजय. अलबत्ता इस साल जो भी हुआ, उसे 2019 के संकेतक के रूप में देखा जा रहा है. हमारे जीवन पर राजनीति हावी है, इसलिए हम सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर ध्यान कम दे पाते हैं. यह साल गोरक्षा के नाम पर हुई बर्बरता और ‘मीटू आंदोलन’ के लिए याद रखा जाएगा. दोनों बातें हमारे अंतर्विरोधों पर रोशनी डालती हैं. यौन-शोषण की काफी कहानियाँ झूठी होती हैं, पर ज्यादा बड़ा सच है कि काफी कहानियाँ सामने नहीं आतीं. इस आंदोलन ने स्त्रियों को साहस दिया है.

हाल के वर्षों में हमारी अदालतों ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले किए, जिनके सामाजिक निहितार्थ हैं. पिछले साल ‘प्राइवेसी’ को व्यक्ति का मौलिक अधिकार माना गया. दया मृत्यु के अधिकार को लेकर एक और फैसला हुआ था, जिसने जीवन के बुनियादी सवालों को छुआ. इस साल हादिया मामले में जीवन साथी को चुनने के अधिकार पर महत्वपूर्ण आया. धारा 377 के बारे में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, इतने साल तक समान अधिकार से वंचित करने के लिए समाज को एलजीबीटी समुदाय से माफी माँगनी चाहिए. 

Sunday, December 30, 2018

2019 की राजनीतिक प्रस्तावना

गुजर रहा साल 2018 भारतीय राजनीति के दृष्टिकोण से सेमी-फाइनल वर्ष था। अब हम फाइनल वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। अगला साल कुछ बातों को स्थायी रूप से परिभाषित करेगा। राजनीतिक स्थिरता आई तो देश आर्थिक स्थिरता की राह भी पकड़ेगा। जीडीपी की दरें धीरे-धीरे सुधर रहीं हैं, पर बैंकों की हालत खराब होने से पूँजी निवेश की स्थिति अच्छी नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के सात बैंकों में सरकार पुनर्पूंजीकरण बांड के जरिए 28,615 करोड़ रुपये की पूंजी डाल रही है। इस तरह वे रिजर्व बैंक की त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) रूपरेखा से बाहर निकलेंगे और फिर से कर्ज बांटने लायक हो जाएंगे।
चुनाव की वजह से सरकार को लोकलुभावन कार्यक्रमों के लिए धनराशि चाहिए। राजस्व घाटा अनुमान से ज्यादा होने वाला है। जीएसटी संग्रह अनुमान से 40 फीसदी कम है। इसमें छूट देने से और कमी आएगी। केंद्र सरकार लोकसभा चुनावों से पहले किसानों के कल्याण के लिए कुछ बड़ी योजनाओं का ऐलान करेगी। हालांकि वह कर्ज माफी और सीधे किसानों के खाते में रकम डालने जैसी योजनाओं के पक्ष में नहीं हैं, पर खर्चे बढ़ेंगे। राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों के बीच संतुलन बैठाने की चुनौती सरकार के सामने है। 

Saturday, December 29, 2018

गठबंधन का महा-गणित


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देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केन्द्र में उसका पहला तजुरबा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अबतक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। तीसरे मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ (और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब बीजेपी के खिलाफ है। फिलहाल सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो?  

पिछले तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है। वह है गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन का। इस वक्त गैर-भाजपा महागठबंधन और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे दोनों की बातें सुनाई पड़ रहीं हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की सम्भावनाएं इस वक्त तलाशी जा रहीं हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियाँ भी बढ़ रहीं हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाना लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही विसंगतियाँ सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो, जैसाकि हाल में लोजपा ने किया।  

Monday, December 24, 2018

राजनीतिक अखाड़े में कर्ज-माफी

इस बारे में दो राय नहीं हैं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दशा खराब है, यह भी सच है कि बड़ी संख्या में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है, पर यह भी सच है कि इन समस्याओं का कोई जादुई समाधान किसी ने पेश नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि इस संकट के कारण कई तरह के हैं। खेती के संसाधन महंगे हुए हैं, फसल के दाम सही नहीं मिलते, विपणन, भंडारण, परिवहन जैसी तमाम समस्याएं हैं। मौसम की मार हो तो किसान का मददगार कोई नहीं, सिंचाई के लिए पानी नहीं, बीज और खाद की जरूरत पूरी नहीं होती।

नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद से खासतौर से समस्या बढ़ी है। अचानक नीतियों में बदलाव आया। कई तरह की सब्सिडी खत्म हुई, विदेशी कम्पनियों का आगमन हुआ, खेती पर न तो पर्याप्त पूँजी निवेश हुआ और तेज तकनीकी रूपांतरण। वामपंथी अर्थशास्त्री सारा देश वैश्वीकरण के मत्थे मारते हैं, वहीं वैश्वीकरण समर्थक मानते हैं कि देश में आर्थिक सुधार का काम अधूरा है। देश का तीन चौथाई इलाका खेती से जुड़ा हुआ था। स्वाभाविक रूप से इन बातों से ग्रामीण जीवन प्रभावित हुआ। राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में अचानक खेती की हिस्सेदारी कम होने लगी। ऐसे में किसानों की आत्महत्या की खबरें मिलने लगीं। 

Sunday, December 23, 2018

कश्मीर पर राजनीतिक आमराय बने


फारूक अब्दुल्ला ने कहा है कि यदि हमारी पार्टी राज्य में सत्तारूढ़ हुई, तो 30 दिन के भीतर हम क्षेत्रीय स्वायत्तता सुनिश्चित कर देंगे. नेशनल कांफ्रेंस की पिछली सरकार ने राज्य में जम्मू, लद्दाख और घाटी को अलग-अलग स्वायत्त क्षेत्र बनाने की पहल की थी. क्या यह कश्मीर समस्या का समाधान होगा? पता नहीं इस पेशकश पर कश्मीर और देश की राजनीति का दृष्टिकोण क्या है, पर हमारी ढुलमुल राजनीति का फायदा अलगाववादी उठाते हैं. जम्मू और लद्दाख के नागरिक भारत के साथ पूरी तरह जुड़े हुए हैं, पर घाटी में काफी लोग अलगाववादियों के बहकावे में हैं.

कश्मीर में जब भी कोई घटना होती है, देश के लोगों के मन में सवाल उठने लगते हैं. हाल में पुलवामा के उग्र भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षाबलों को गोली चलानी पड़ी, जिसमें सात नागरिकों की मौत हो गई. मुठभेड़ में एक जवान भी शहीद हुआ और तीन उग्रवादी भी मारे गए. इस घटना पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा, हमारी माँग है कि संरा सुरक्षा परिषद जनमत-संग्रह की प्रतिबद्धता को पूरा करे. पाकिस्तानी आजकल बात-बात पर यह माँग करते हैं. पर सच यह है कि सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर अंतिम विमर्श पचास के दशक में कभी हुआ था. उसके बाद से वहाँ यह सवाल उठा ही नहीं.

Saturday, December 22, 2018

कर्ज-माफी का राजनीतिक जादू

उत्तर भारत के तीन राज्यों में बनी कांग्रेस सरकारों ने किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणाएं की हैं। उधर भाजपा शासित गुजरात में 6.22 लाख बकाएदारों के बिजली-बिल और असम में आठ लाख किसानों के कर्ज माफ कर दिए गए हैं। इसके पहले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब और कर्नाटक में किसानों के कर्ज माफ किए गए। अचानक ऐसा लग रहा है कि कर्ज-माफी ही किसानों की समस्या का समाधान है। गुजरात और असम सरकार के फैसलों के जवाब में राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि कांग्रेस गुजरात और असम के मुख्यमंत्रियों को गहरी नींद से जगाने में कामयाब रही है, लेकिन प्रधानमंत्री अभी भी सो रहे हैं। हम उन्हें भी जगाएंगे।
मोदीजी भी सोए नहीं हैं, पहले से जागे हुए हैं। उनकी पार्टी ने घोषणा की है कि यदि हम ओडिशा में सत्ता में आए तो किसानों का कर्ज माफ कर देंगे। राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एक तरफ उनके नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा है कि कृषि-क्षेत्र की बदहाली का इलाज कर्ज-माफी नहीं है, वहीं उनकी पार्टी कर्ज-माफी के हथियार का इस्तेमाल राजनीतिक मैदान में कर रही है।

Tuesday, December 18, 2018

राजनीतिक दलदल में ‘राफेल’


राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विवाद बजाय खत्म होने के बढ़ गया है. अदालती फैसले के एक पैराग्राफ को लेकर कांग्रेस पार्टी ने सरकार पर नए आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं. इससे मूल विवाद के अलावा कुछ नए आरोप और जुड़ गए हैं. शुक्रवार को अदालत ने जो फैसला सुनाया था, उससे सरकारी पक्ष मजबूत हो गया था, पर फैसले की भाषा के कारण लगता है कि यह विवाद अभी तबतक चलेगा, जबतक सुप्रीम कोर्ट उसे और स्पष्ट न करे.

शनिवार को सरकार ने हलफनामा दाखिल करके कहा कि सरकार ने सीलबंद लिफाफों में अदालत को जानकारी दी थी, उसमें यह नहीं लिखा गया था कि इस मामले में सीएजी रिपोर्ट आ गई है और उसे लोकलेखा समिति (पीएसी) को दिखा दिया गया है. सरकार ने केवल यह बताया था कि इस प्रकार के सौदों की जानकारी संसद के सामने लाने की प्रक्रिया क्या है. अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है. ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है.

Sunday, December 16, 2018

फैसले और उसकी भाषा पर भ्रम

राफेल रक्षा सौदे के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से विवाद को शांत हो जाना चाहिए था, पर लगता है कि ऐसा होगा नहीं। इसकी वजह इस मामले की राजनीतिक प्रकृति है। अदालत ने इस सौदे पर उठाए गए प्रक्रियात्मक सवालों का जवाब देते हुए कहा है कि उसे कोई दोष नजर नहीं आया। अब जो सवाल हैं, उनकी प्रकृति राजनीतिक है। अदालती फैसले का एक पहलू सीएजी की रिपोर्ट से जुड़ा हुआ था, जो शुक्रवार की शाम से ही चर्चा में था। वह यह कि क्या सीएजी रिपोर्ट में कीमत का विवरण है और क्या यह रिपोर्ट लोकलेखा समिति ने देखी है। शनिवार को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में हलफनामा दाखिल करके कहा कि इसके पहले दाखिल हलफनामे में केवल उस प्रक्रिया को बताया गया है कि इस प्रकार की सूचनाओं की प्रक्रिया क्या है। 

अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है। ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है। उम्मीद है कि सोमवार को अदालत इस मामले में कोई निर्देश देगी, पर खबरें यह भी हैं कि सुप्रीम कोर्ट में सर्दियों की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं और अब 2 जनवरी के बाद ही इस मामले में कुछ हो पाएगा। जो भी है सोमवार को स्थिति कुछ स्पष्ट होगी। उधर लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि हम सीएजी और अटॉर्नी जनरल को बुलाकर जवाब तलब करेंगे। 

Saturday, December 15, 2018

राहुल की परीक्षा तो अब शुरू होगी!

सन 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी खुशखबरी इन तीन राज्यों में मिली सफलता के रूप में सामने आई है। नरेन्द्र मोदी ने पता नहीं कितनी गंभीरता से कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही थी, पर लगने लगा था कि कहीं यह बात सच न हो जाए। इस सफलता के साथ कांग्रेस यह मानकर चल सकती है कि उसका वजूद फिलहाल कायम है और वह चाहे तो उसका पुनरुद्धार भी संभव है। उधर 2014 के बाद से बीजेपी अपराजेय लगने लगी थी। इन तीन राज्यों को चुनाव से बीजेपी की वह छवि भी टूटी है।
हालांकि इस साल कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बीजेपी को अपनी कमजोर होती हैसियत का पता लग गया था, पर उस चुनाव में कांग्रेस को भी सफलता नहीं मिली थी। पर उत्तर के तीन राज्यों में इसबार बीजेपी को जो झटका लगा है, उसका श्रेय कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी को दिया जा सकता है। इस साल के शुरू में कांग्रेस की उपस्थिति केवल पंजाब, कर्नाटक, मिजोरम और पुदुच्चेरी में थी। इन चुनावों में उसने मिजोरम खोया है, पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को हासिल भी किया है।  
राहुल के नेतृत्व की सफलता का यह पहला चरण है। यह पूरी सफलता नहीं है। कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है। राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं। यह सफलता एक प्रकार के संधिकाल की सूचक है। वह न शिखर पर है और न अपने पराभव से पूरी तरह उबर पाई है। राहुल गांधी का राजनीतिक जीवन इस कांग्रेसी डोर से जुड़ी पतंग का है। फिलहाल यह ऊपर उठती नजर आ रही है, और शायद कुछ ऊँचाई और पकड़ेगी। पर कितनी? इस ऊँचाई के साथ जुड़े सवालों के जवाब लोकसभा चुनाव में मिलेंगे, पर कुछ जवाब फौरन मिलने जा रहे हैं। इन्हीं तीनों राज्यों में।

कांग्रेस के सामने खड़ी चुनौतियाँ

जीत के फौरन बाद तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन को लेकर पैदा हुआ असमंजस कुछ सवाल खड़े करता है. कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है. राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं. ऐसा कैसे होगा? क्या इसे उस राजनीति का नमूना मानें? तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नाम को लेकर पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए. समर्थन में नारेबाजी अनोखी बात नहीं है, पर यहाँ तो नौबत आगज़नी, वाहनों की तोड़फोड़ और सड़क जाम तक आ गई. प्रत्याशियों को अपने-अपने समर्थकों को समझाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ा. कार्यकर्ताओं तक की बात भी नहीं है. लगता है कि नेतृत्व ने भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है.
इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक संभव है असमंजस दूर हो गए हों, पर अब जो सवाल सामने आएंगे, वे दूसरे असमंजसों को जन्म देंगे. सरकार का गठन असंतोषों का बड़ा कारण बनता है, यहाँ भी बनेगा. नेताओं के व्यक्तिगत रिश्ते, परिवार से नजदीकी, प्रशासनिक अनुभव, कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, पार्टी के कोष में योगदान कर पाने और 2019 के लोकसभा चुनाव का अपने इलाके में बेहतर संचालन कर पाने की क्षमता वगैरह की अब परीक्षा होगी. 
कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में सकल वोट प्रतिशत के मामले में बीजेपी और कांग्रेस की लगभग बराबरी है. लोकसभा चुनाव में एक या दो फीसदी वोट की गिरावट से ही कहानी कुछ से कुछ हो सकती है. यदि वे सरकार के गठन के साथ ही अराजक व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, तो उनकी छवि खराब होगी. 

Wednesday, December 12, 2018

बीजेपी की उतरती कलई


इन चुनाव परिणामों का बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए एक ही संदेश है. वक्त है अब भी बदल जाओ. पर फटकार बीजेपी के नाम है. उत्तर के तीनों राज्यों में उसकी कलई उतर गई है. दक्षिण और पूर्वोत्तर में भी कुछ मिला नहीं. उसने खोया ही खोया है. बेशक छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीनों में एंटी-इनकम्बैंसी थी, पर पार्टी ने बचने के लिए जिस हिन्दुत्व का सहारा लिया, वह कत्तई कारगर साबित नहीं हुआ. संघ का कुशल-कारगर संगठन और अमित शाह की शतरंजी-योजनाएं फेल हो गईं.

सबसे बड़ी और शर्मनाक हार छत्तीसगढ़ में हुई, जो बीजेपी का आदर्श राज्य हुआ करता था. उसकी तरह 5 साल की एंटी इनकम्बैंसी मध्य प्रदेश में भी थी, पर शिवराज सिंह चौहान को श्रेय जाता है कि उन्होंने शर्मनाक हार को बचाकर उसे काँटे की टक्कर बनाया. दोनों पार्टियों का वोट प्रतिशत तकरीबन बराबर है. रमन सिंह और वसुंधरा राजे ऐसा करने में विफल रहे. छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों राज्यों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में आठ-आठ फीसदी की गिरावट आई है.

Sunday, December 9, 2018

इस जनादेश से उभरेगी नई तस्वीर


भारत में चुनावी ओपीनियन और एक्ज़िट पोल बजाय संजीदगी के मज़ाक का विषय ज्यादा बनते हैं। अलबत्ता लोग एक्ज़िट पोल को ज्यादा महत्व देते हैं। इन्हें काफी सोच-विचारकर पेश किया जाता है और इनके प्रस्तोता ज्यादातर बातों के ऊँच-नीच को समझ चुके होते हैं। थोड़ी बहुत ज़मीन से जानकारी भी मिल जाती है। फिर भी इन पोल को अटकलों से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। वजह है इनके निष्कर्षों का जबर्दस्त अंतर। कुल मिलाकर ये आमराय बनाने की कोशिश जैसे लगते हैं, इसीलिए कुछ मीडिया हाउस पोल ऑफ पोल्स यानी इनका औसत पेश करते हैं। एक और विकल्प है, एक के बजाय दो एजेंसियों का एक्ज़िट पोल। यानी कि एक पर भरोसा नहीं, तो दूसरा भी पेश है। यह बात उनके असमंजस को बढ़ाती है, कम नहीं करती।

शुक्रवार की शाम पाँच राज्यों में मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद चैनल-महफिलों के निष्कर्षों का निष्कर्ष है कि राजस्थान में कांग्रेस को बहुमत मिलना चाहिए, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में काँटे की लड़ाई है और तेलंगाना में टीआरएस का पलड़ा भारी है। मिजोरम को लेकर किसी को ज्यादा चिंता नहीं है। कुछ ने तो वहाँ एक्ज़िट पोल भी नहीं कराया। बहरहाल अब 11 दिसम्बर को परिणाम बताएंगे कि देश की राजनीति किस दिशा में जाने वाली है। इनके सहारे बड़ी तस्वीर देखने की कोशिश की जा सकती है।

Tuesday, December 4, 2018

किसानों का दर्द और जीडीपी के आँकड़े


दो तरह की खबरों को एकसाथ पढ़ें, तो समझ में आता है कि लोकसभा चुनाव करीब आ गए हैं. नीति आयोग और सांख्यिकी मंत्रालय ने राष्ट्रीय विकास दर के नए आँकड़े जारी किए हैं. इन आँकड़ों की प्रासंगिकता पर बहस चल ही रही थी कि दिल्ली में हुई दो दिन की किसान रैली ने देश का ध्यान खींच लिया. दोनों परिघटनाओं की पृष्ठभूमि अलग-अलग है, पर ठिकाना एक ही है. दोनों को लोकसभा चुनाव की प्रस्तावना मानना चाहिए.

संसद के शीत-सत्र की तारीखें आ चुकी हैं. किसानों का मसला उठेगा, पर इससे केवल माहौल बनेगा. नीतिगत बदलाव की अब आशा नहीं है. इसके बाद बजट सत्र केवल नाम के लिए होगा. जहाँ तक किसानों से जुड़े दो निजी विधेयकों का प्रश्न है, यह माँग हमारी परम्परा से मेल नहीं खाती. ऐसे कानून बनने हैं, तो विधेयक सरकार को लाने होंगे, वैसे ही जैसे लोकपाल विधेयक लाया था. यों उसका हश्र क्या हुआ, आप बेहतर जानते हैं.

Sunday, December 2, 2018

किसानों के दर्द की सियासत


दिल्ली में हुई दो दिन की किसान रैली ने किसानों की बदहाली को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाने में सफलता जरूर हासिल की, पर राजनीतिक दलों के नेताओं की उपस्थिति और उनके वक्तव्यों के कारण यह रैली महागठबंधन की चुनाव रैली में तब्दील हो गई। रैली का स्वर था कि किसानों का भला करना है, तो सरकार को बदलो। खेती-किसानी की समस्या पर केन्द्रित यह आयोजन एक तरह से विरोधी दलों की एकता की रैली साबित हुआ। सवाल अपनी जगह फिर भी कायम है कि विरोधी एकता क्या किसानों की समस्या का स्थायी समाधान है? सवाल यह भी है कि मंदिर की राजनीति के मुकाबले इस राजनीति में क्या खोट है? राजनीति में सवाल-दर-सवाल है, जवाब किसी के पास नहीं। 

किसानों की समस्याओं का समाधान सरकारें बदलने से निकलता, तो अबतक निकल चुका होता। ये समस्याएं आज की नहीं हैं। रैली का उद्देश्य किसानों के दर्द को उभारना था, जिसमें उसे सफलता मिली। किसानों के पक्ष में दबाव बना और तमाम बातें देश के सामने आईं। रैली में राहुल गांधी, शरद पवार, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल, फारुक़ अब्दुल्ला, शरद यादव और योगेन्द्र यादव वगैरह के भाषण हुए। ज्यादातर वक्ताओं का निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर था। बीजेपी की भागीदारी थी नहीं इसलिए जो कुछ भी कहा गया, वह एकतरफा था। 

दिल्ली के द्वार पर किसानों की गुहार


पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर किसानों के आंदोलन में गोली चलने से छह व्यक्तियों की मौत के बाद देशभर में खेती-किसानी को लेकर शुरू हुई बहस  दिल्ली में कल और आज हो रही किसान रैली के साथ राष्ट्रीय-पटल पर आ गई है। तीस साल पहले अक्तूबर 1988 में भारतीय किसान यूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने बोट क्लब पर जो विरोध प्रदर्शन किया था, वह ऐतिहासिक था। दिल्ली वालों को अबतक उसकी याद है। दिल्ली में लम्बे अरसे के बाद इतनी बड़ी तादाद में किसान अपनी परेशानी बयान करने के लिए जमा हुए हैं। दो महीने पहले 2 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के रास्ते से हजारों किसानों ने दिल्ली में प्रवेश का प्रयास किया था, पर दिल्ली पुलिस ने उन्हें रोक दिया। दोनों पक्षों में टकराव हुआ, जिसमें बीस के आसपास लोग घायल हुए थे।

यह रैली कुछ विडंबनाओं की तरफ ध्यान खींचती है। हाल के वर्षों में मध्य प्रदेश में कृषि की विकास दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा रही है, फिर भी वहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद बढ़ी है। पिछले साल रिकॉर्ड फसल के बावजूद किसानों का संकट बढ़ा, क्योंकि दाम गिर गए। खेती अच्छी हो तब भी किसान रोता है, क्योंकि दाम नहीं मिलता। खराब हो तो रोना ही है। कई बार नौबत आती है, जब किसान अपने टमाटर, प्याज, मूली, गोभी से लेकर अनार तक नष्ट करने को मजबूर होते हैं।

Saturday, December 1, 2018

‘मंदिर शरणम गच्छामि’ का जाप भटकाएगा राहुल को


पिछले साल हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस पार्टी ने बीजेपी के जवाब में अपने हिन्दुत्व या हिन्दू तत्व का आविष्कार कर लिया है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव के पहले उनके कैलाश-मानसरोवर दौरे का प्रचार हुआ। उसके पहले कर्नाटक-विधानसभा के चुनाव के दौरान वे मंदिरों और मठों में गए। गुजरात में तो इसकी शुरुआत ही की थी। चुनाव प्रचार के दौरान वे जिन प्रसिद्ध मंदिरों में दर्शन के लिए गए उनकी तस्वीरें प्रचार के लिए जारी की गईं। पोस्टर और बैनर लगाए गए।

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव पूरा होने के बाद अब तेलंगाना और राजस्थान की बारी है। प्रचार की शुरुआत में ही राजस्थान के पुष्कर तीर्थ में उनके गोत्र का सवाल उठा। खुद राहुल गांधी ने अपने गोत्र की जानकारी दी। पूजा कराने वाले पुजारी ने बताया कि उन्होंने अपने गोत्र का नाम दत्तात्रेय बताया। इस जानकारी को उनके विरोधियों ने पकड़ा और सोशल मीडिया पर सवालों की झड़ी लग गई। उनके दादा के नाम और धर्म को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या उन्होंने धर्म-परिवर्तन किया था? क्या उनका विवाह हिन्दू पद्धति से हुआ था वगैरह। इन व्यक्तिगत बातों का कोई मतलब नहीं होता, पर सार्वजनिक जीवन में उतरे व्यक्ति के जीवन की हर बात महत्वपूर्ण होती है।

Wednesday, November 28, 2018

चुनावी दौर में मंदिर का शोर

अयोध्या में राम मंदिर बनाने की माँग फिर से सुनाई पड़ रही है. रविवार को विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या की धर्मसभा में आंदोलन को जारी रखने का संकल्प किया. शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भी अयोध्या आए और उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के पास मंदिर बनाने का पूरा अधिकार है. ऐसा नहीं करेगी तो यह सरकार दोबारा नहीं बनेगी, लेकिन राम मंदिर जरूर बनेगा. ठाकरे की दिलचस्पी अपने वोटर में है. उन्होंने सरकार से मंदिर निर्माण की तारीख पूछी है.  
उधर नागपुर की हुंकार सभा में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हमारे धैर्य का समय बीता जा रहा है. एक साल पहले तक मैं कहता था, धैर्य रखो, आज मैं कह रहा हूँ कि अब आंदोलन निर्णायक हो.उन्होंने सरकार से कहा कि वह सोचे कि मंदिर कैसे बनाया जा सकता है. संघ के एक राष्ट्रीय नेता इंद्रेश कुमार ने मंगलवार को एक गोष्ठी में सुप्रीम कोर्ट पर भी तीखी टिप्पणी कर दी. उन्होंने कहा कि सरकार कानून बनाने जा रही है. चुनाव की आदर्श आचरण संहिता लागू है, इसलिए घोषणा नहीं की है. साथ में उनका कहना है कि सरकार कानून बनाने का प्रस्ताव लाए, तो संभव है कि सुप्रीम कोर्ट उसे स्टे कर दे. हो सकता है आदेश लाने के खिलाफ कोई सिरफिरा सुप्रीम कोर्ट जाएगा, तो आज का चीफ जस्टिस उसे स्टे भी कर सकता है. बीजेपी और संघ के नेता सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं. उधर विहिप नेता कह रहे हैं, अब याचना नहीं, रण होगा. निर्मोही अखाड़े के महंत रामजी दास ने कहा, मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा महाकुंभ के दौरान की जाएगी.

Sunday, November 25, 2018

पाकिस्तान का आर्थिक संकट और कट्टरपंथी आँधियाँ

पाकिस्तान इस वक्त दो किस्म की आत्यंतिक परिस्थितियों से गुज़र रहा है। एक तरफ आर्थिक संकट है और दूसरी तरफ कट्टरपंथी सांप्रदायिक दबाव है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जब ‘तौहीन-ए-रिसालत’ यानी ईश-निंदा के एक मामले में ईसाई महिला आसिया बीबी को बरी किया, तो देश में आंदोलन की लहर दौड़ पड़ी थी। आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार को झुकना पड़ा। दूसरी तरफ उसे विदेशी कर्जों के भुगतान को सही समय से करने के लिए कम से कम 6 अरब डॉलर के कर्ज की जरूरत है। जरूरत इससे बड़ी रकम की है, पर सऊदी अरब, चीन और कुछ दूसरे मित्र देशों से मिले आश्वासनों के बाद उसे 6 अरब के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा है।

गुजरे हफ्ते आईएमएफ का एक दल पाकिस्तान आया, जिसने अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रतिनिधियों और संसद सदस्यों से भी मुलाकात की और उन्हें काफी कड़वी दवाई का नुस्खा बनाकर दिया है। इस टीम के नेता हैरल्ड फिंगर ने पाकिस्तानी नेतृत्व से कहा कि आपको कड़े फैसले करने होंगे और संरचनात्मक बदलाव के बड़े कार्यक्रम पर चलना होगा। संसद को बड़े फैसले करने होंगे। इमरान खान की पीटीआई सरकार जोड़-तोड़ करके बनी है। इतना ही नहीं नवाज़ शरीफ के खिलाफ मुहिम चलाकर उन्होंने सदाशयता की संभावनाएं नहीं छोड़ी हैं। अब उन्हें बार-बार अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं और यह भी कहना पड़ रहा है, ''यू-टर्न न लेने वाला कामयाब लीडर नहीं होता है। जो यू-टर्न लेना नहीं जानता, उससे बड़ा बेवक़ूफ़ लीडर कोई नहीं होता।''