भारतीय
राजनीति के नज़रिए से 2018 सेमी-फाइनल वर्ष था। फाइनल के पहले का साल। पाँच साल की
जिस चक्रीय-व्यवस्था से हमारा लोकतंत्र चलता है, उसमें हर साल और हर दिन का अपना
महत्व है। पूरे साल का आकलन करें, तो पाएंगे कि यह कांग्रेस के उभार और बीजेपी के
बढ़ते पराभव का साल था। फिर भी न तो यह कांग्रेस को पूरी विजय देकर गया और न
बीजेपी को निर्णायक पराजय। काफी संशय बाकी हैं। गारंटी नहीं कि फाइनल वर्ष कैसा
होगा। कौन अर्श पर होगा और कौन फर्श पर।
इस
साल नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए और कुछ महत्वपूर्ण उपचुनाव हुए, जिनसे 2019
के राजनीतिक फॉर्मूलों की तस्वीर साफ हुई। राज्यसभा के चुनावों ने उच्च सदन में
कांग्रेस के बचे-खुचे वर्चस्व को खत्म कर दिया। सदन के उप-सभापति के चुनाव में
विरोधी दलों की एकता को एक बड़े झटके का सामना करना पड़ा। राजनीतिक गतिविधियों के
बीच न्यायपालिका के कुछ प्रसंगों ने इस साल ध्यान खींचा। हाईकोर्ट जजों की
नियुक्ति, ट्रिपल तलाक, आधार की अनिवार्यता, समलैंगिकता को अपराध के बाहर करना, जज लोया, अयोध्या में
मंदिर और राफेल विमान सौदे से जुड़े मामलों के कारण न्यायपालिका पूरे साल खबरों
में रही। असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर अदालत में और उसके
बाहर भी गहमागहमी रही और अभी चलेगी।
भारतीय
न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ
महाभियोग भी इसी साल लाया गया। इसी साल देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट
के चार जजों ने प्रेस कांफ्रेंस करके न्यायपालिका के अंतर्विरोधों की और इशारा
किया। साल का अंत राफेल विमान सौदे के महत्वपूर्ण फैसले के साथ हो रहा है, जिसकी
तार्किक परिणति का इंतजार है।
फिर से खड़ी होती कांग्रेस
दिसम्बर
2017 में राहुल गांधी के अध्यक्ष पद पर चुनाव के बाद इस साल मार्च में कांग्रेस
महासमिति का 84 वां अधिवेशन हुआ, जो दो बातों से महत्वपूर्ण था। पार्टी में लम्बे
अरसे बाद नेतृत्व परिवर्तन हुआ। इस अधिवेशन में राहुल गांधी की अध्यक्षता की
पुष्टि हुई। दूसरे यह ऐसे दौर में हुआ, जब
पार्टी लड़खड़ाई हुई थी। इस महाधिवेशन के
साथ कांग्रेस ने एक नए दौर की तरफ कदम बढ़ाए। भले ही राहुल गांधी अध्यक्ष बन गए
हैं, पर पार्टी का नेतृत्व अब भी पूरी तरह नया नहीं हुआ है। राहुल की नई टीम शक्ल
ही ले रही है। साल के अंत में तीन राज्यों में कांग्रेस को मिली विजय के बाद
मुख्यमंत्रियों के चयन से यह बात समझ में आ रही है कि अभी पुरानी पीढ़ी का वर्चस्व
खत्म नहीं हुआ है।
पिछले
एक दशक से ज्यादा समय में राहुल गांधी के राजनीतिक विचारों में काफी बदलाव आया है।
शुरूआती दौर में वे कांग्रेस के भीतर लोकतांत्रिक फैसलों के हामी थे। पिछले लोकसभा
चुनाव के पहले और उन्होंने पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर 15 सीटों पर प्राइमरी योजना
लागू की। पर उसके उत्साहजनक परिणाम नहीं आए और योजना ठंडे बस्ते में चली गई।
पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि अत्यधिक लोकतंत्र से संगठन में फूट पड़ती
और पनपती है। यह भी विडंबना है।
इस
साल तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन के पहले उन्होंने इंटरनेट के ‘शक्ति एप’ के मार्फत पार्टी कार्यकर्ताओं की राय ली। इस राय का क्या हुआ और
फैसला किस आधार पर हुआ, इसका पता नहीं। राहुल कुछ अभिनव प्रयोग करना चाहते हैं, पर
क्या वे उस सिर-फुटौवल को रोक पाएंगे, जो तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नाम
तय करते वक्त दिखाई पड़ी?
कांग्रेस
महासमिति के अधिवेशन में राहुल ने कहा, मैं
स्वीकार करता हूँ कि कांग्रेस के नेतृत्व और पार्टी कार्यकर्ता के बीच एक दीवार
है। मेरी पहली प्राथमिकता इस अवरोध को तोड़ने की होगी। उनकी यह टिप्पणी निश्चित
रूप से सोनिया गांधी के नेतृत्व पर नहीं थी। पर इशारा किस तरफ था, यह भी स्पष्ट नहीं। पार्टी के लिए इस साल जून में एकबार असमंजस की
स्थिति तब पैदा हुई, जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
के कार्यक्रम में शामिल हुए। बावजूद इसके कि उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी तक ने
आपत्ति व्यक्त की थी।
‘चौकीदार चोर है’ का नारा
लोकसभा
चुनाव के पहले के इस अंतिम वर्ष में पार्टी ने चार महत्वपूर्ण चुनावों में सफलता
प्राप्त की है, जो सन 2019 की उसकी महत्वाकांक्षाओं की
बुनियाद बनेंगे। पहला चुनाव अप्रैल-मई में कर्नाटक में हुआ और नवम्बर-दिसम्बर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में। इनके अलावा मिजोरम और तेलंगाना में भी
चुनाव हुए। इन दोनों राज्यों में भी कांग्रेस की दिलचस्पी थी। पर दोनों में उसे
विफलता मिली। महासमिति में दिए गए बयानों और पास किए गए प्रस्तावों पर नजर डालें
तो नजर आता है कि पार्टी व्यक्तिगत रूप से नरेन्द्र मोदी पर हमलों को अपनी रणनीति
बनाएगी। राफेल मामले को उठाने के बाद राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ नारा दिया
है। महासमिति के अधिवेशन में सोनिया
गांधी ने ‘अहंकार
मुक्त भारत’ बनाने का आह्वान किया।
पिछले
साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के दिन बसपा नेता मायावती ने ईवीएम
में गड़बड़ी का आरोप लगाया था। आम आदमी पार्टी ने भी ईवीएम के खिलाफ मुहिम छेड़ी।
कांग्रेस ने ईवीएम को लेकर अपने संदेह जरूर व्यक्त किए, पर सीधे कोई बड़ा आरोप लगाने से खुद को अलग रखा। अलबत्ता महाधिवेशन
में पास किए गए राजनीतिक प्रस्ताव में ईवीएम के साथ छेड़छाड़ को भी मुद्दा बनाया
गया। पार्टी ने ईवीएम की जगह बैलट पेपर के पुराने तरीक़े को फिर से लागू करने की
माँग की। पर तीन राज्यों में कांग्रेस को मिली सफलता के बाद पार्टी ने ईवीएम की
शिकायत नहीं की।
महागठबंधन की राजनीति
कांग्रेस पार्टी ने मान लिया है कि अस्तित्व बचाना है,
तो दूसरे दलों के साथ समझौते करने पड़ेंगे। इस साल कर्नाटक में जब त्रिशंकु
विधानसभा चुनकर आ रही थी और कांग्रेस के हाथ से एक महत्वपूर्ण राज्य निकलने जा रहा
था, पार्टी ने जेडीएस का मुख्यमंत्री स्वीकार करके एक दाँव खेला था। इस चुनाव के
बाद गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के चुनावों में विरोधी दलों की एकता से कांग्रेस
उत्साहित है। पर हाल में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसने चुनाव-पूर्व
गठबंधन नहीं किए। पिछले साल गुजरात में भी उसने गठबंधन का सहारा नहीं लिया।
कांग्रेस उन्हीं राज्यों में गठबंधन कर रही है, जहाँ वह
अकेले बीजेपी का सामना करने की स्थिति में नहीं है। अभी औपचारिक महागठबंधन नहीं बना
है, पर 25 दल सिद्धांततः इस राय से सहमत हैं। सवाल है कि क्या कांग्रेस इस गठबंधन
का नेतृत्व करेगी या नेतृत्व का सवाल खुला रहेगा? पर ज्यादा बड़ा सवाल
यह है कि चुनाव-पूर्व महागठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बनेगा भी या नहीं? लगता है कि कांग्रेस अलग-अलग राज्यों में
अलग-अलग गठबंधनों की योजना पर चलेगी।
महागठबंधन की सबसे बड़ी बाधा है विरोधी दलों की संख्या
और वैचारिक भिन्नता। मसलन तेलंगाना की टीआरएस, ओडिशा की बीजद और आंध्र की वाईएसआर
कांग्रेस इसमें शामिल नहीं है। दूसरे प्रधानमंत्री पद पर बैठने के लिए अनेक नेताओं
की महत्वाकांक्षाएं काम कर रहीं हैं। टीएमसी के प्रवक्ता डेरेक ओ’ब्रायन पहले
ही कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री पद की अभिलाषा वह रखे, जिसके पास मुख्यमंत्री के
रूप में काम करने का अनुभव हो। शरद पवार ने सोनिया गांधी के नेतृत्व को अस्वीकार
करने के कारण ही राकांपा बनाई थी। फिर मायावती, चंद्रबाबू नायडू और के चंद्रशेखर
राव प्रकारांतर से कह चुके हैं कि हम भी प्रत्याशी हैं।
भाजपा का पराभव
इस साल बीजेपी ने अपने महान नेता अटल बिहारी वाजपेयी को
खोया। वे लम्बे अरसे से बिस्तरे पर थे और सार्वजनिक जीवन में उनकी कोई भूमिका नहीं
थी, पर उनका जाना पार्टी के एक बड़े रूपांतरण के प्रतीक के रूप में भी था। तकरीबन
चार साल के एकछत्र उत्थान के बाद पार्टी पराभव की और बढ़ चली है। मध्य प्रदेश,
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मिली पराजय से लगता है कि बीजेपी की लोकप्रियता का
ह्रास हो रहा है। कहना मुश्किल है कि इस अलोकप्रियता का कितना नुकसान लोकसभा चुनाव
में होगा। हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो दो
बातें नजर आ रहीं है। एक, बीजेपी ने पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत
में पैर पसारने की कोशिश की है। नगालैंड, त्रिपुरा और मेघालय में साल के शुरू में हुए
चुनाव में बीजेपी को आशातीत सफलता मिली। खासतौर से त्रिपुरा में उसकी जीत काफी
महत्वपूर्ण साबित हुई है।
पूर्वोत्तर
के सात में तीन राज्यों में बीजेपी ने अपनी उपस्थिति पहले से बना ली थी। शेष चार
में से तीन राज्यों में इस साल उसने जगह बनाई है। इसका काफी श्रेय सन 2016 के असम
विधानसभा चुनाव में मिली सफलता को जाता है। पार्टी ने अपनी दीर्घकालीन रणनीति के
तहत नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) का गठन किया, जिसमें पूर्वोत्तर के 15 दल शामिल हैं। इन दलों की संख्या बढ़ ही रही
है। यों इन राज्यों का राजनीतिक महत्व उतना नहीं है, जितना
उत्तर प्रदेश या बिहार का है। सातों राज्यों से कुल जमा लोकसभा की 24 सीटें हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 14 असम की हैं। सिक्किम को भी शामिल कर लें तो इन
आठ राज्यों में कुल 25 सीटें हैं। अलबत्ता यह इलाका बीजेपी को उत्तर भारत की
पार्टी के बजाय सारे भारत की पार्टी साबित करने में सहायक है।
बंगाल
में उसने कमोबेश सीपीएम को तीसरे स्थान पर धकेल दिया है। उसका सारा जोर इन दिनों
बंगाल में है। बंगाल की तरह उसने केरल में भी अपनी उपस्थिति बढ़ाई है। सबरीमाला
आंदोलन का लाभ उसे मिला है। संभावना है कि तमिलनाडु में रजनीकांत के साथ उसका
गठबंधन बने। चूंकि डीएमके और कांग्रेस का गठबंधन लगभग तय है, इसलिए सम्भव है कि
अद्रमुक और भाजपा करीब आएं। आंध्र में भी वाईएसआर कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन
सम्भव है।
...और उसकी रणनीति
तीन
राज्यों में बीजेपी की पराजय के पीछे ज्यादातर कारण नकारात्मक हैं। एक तो
एंटी-इनकंबैंसी, किसानों के आंदोलन और कर्ज-माफी का चारा। सवाल है कि बीजेपी अगले
चार महीनों में क्या कर लेगी? क्या
वह अपनी नकारात्मक इमेज को सुधारे सकेगी? पिछले
साल तक पेट्रोल की कीमतें आसमान पर थीं, अब उनमें लगातार गिरावट है। सरकार ने कई
तरह की सामाजिक योजनाएं तैयार कीं, जिनमें
उसे सफलता मिली है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है आयुष्मान भारत योजना। बिजली आपूर्ति, घरेलू गैस की उपलब्धता, सड़क
संचार और खुले में शौच से मुक्ति जैसे लक्ष्य सामान्य व्यक्ति को छूते हैं।
सरकार
ने रेलवे में भारी निवेश किया है, जिसका लाभ आने वाले वर्षों में देखने
को मिलेगा। राजमार्गों पर भारी निर्माण भी उनकी उपलब्धि है। सरकार की उपलब्धियों
में ई-नाम (इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चरल मार्केट), एफडीआई को खोलना (खासतौर से रक्षा और रेलवे में), जीएसटी, बिजली के क्षेत्र में सुधार, दिवालिया कानून बनाकर बैंकों के डूबे धन की वापसी की शुरुआत, व्यापार को आसान बनाना और छोटे कारोबारियों के लिए पूँजी की व्यवस्था
करना। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ-बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह उनकी उपलब्धि है।
सरकार
का अनुमान है कि पिछले साढ़े चार साल में आयुष्मान भारत, जन-धन, सौभाग्य, उज्ज्वला, मुद्रा और स्किल इंडिया जैसी योजनाओं से करीब 22 करोड़ परिवारों के
जीवन में बदलाव आया है। क्या यह बदलाव वोट के रूप में नजर आएगा? क्या
मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक के मुद्दे को लेकर सरकार का समर्थन करेंगी? बीजेपी का सारा जोर ग्रामीण इलाकों में जन-सम्पर्क और लोगों को
समझाने पर होगा कि आपके जीवन में बदलाव किस तरह आ रहा है और इसमें मोदी सरकार की
भूमिका क्या है।
कर्नाटक
विधानसभा चुनाव में हालांकि बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बनने में सफलता मिली, पर सरकार बनाने की जल्दबाजी में उसकी भद्द भी पिटी। पर कर्नाटक से
बीजेपी यह संदेश देने में कामयाब रही है कि उसके विरोधी मोदी के खिलाफ साजिश रच
रहे हैं। यह राजनीति है ‘मोदी बनाम सब।’ यह बात मोदी के महत्व को ही रेखांकित करती
है।
Box
राहुल गांधी की स्वीकार्यता
राहुल
गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद भी कांग्रेस के भीतर और बाहर भी राहुल गांधी की
स्वीकार्यता को लेकर सवाल हैं। पिछले साल के अंत में गुजरात विधानसभा चुनाव का
पहला दौर शुरू होने के डेढ़ दिन पहले मणिशंकर अय्यर ने नरेन्द्र मोदी को नीच बोल
दिया। इसपर राहुल गांधी ने उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया। इसके पहले सितंबर
2013 में राहुल गांधी मनमोहन सिंह सरकार के एक अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से फाड़कर
फेंक चुके थे। इन बातों से यह तो जाहिर हो चुका था कि पार्टी के भीतर उन्हें
चुनौती देने वाली कोई ताकत नहीं है, पर कांग्रेस को सहयोगी दलों की स्वीकृति भी
चाहिए।
कांग्रेस
पार्टी महागठबंधन की राजनीति को बढ़ावा दे रही है। उसे यकीन हो चुका है कि वह
अकेले नरेन्द्र मोदी की बीजेपी का सामना नहीं कर सकती। सवाल है कि क्या राहुल
गांधी महागठबंधन के सर्व-स्वीकृत नेता हो सकते है? इस साल मई में
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान एक संवाददाता सम्मेलन में जब राहुल गांधी ने कहा
कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनने वाले नहीं हैं, तब उनसे सवाल किया गया
कि क्या आप प्रधानमंत्री बनेंगे? इसपर राहुल ने कहा, यह निर्भर करता है। इसके
बाद सवाल क्या गया कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी, तब क्या आप
प्रधानमंत्री बनेंगे? इसपर उन्होंने कहा, क्यों नहीं? इस जवाब के
बाद मीडिया में यह सवाल उछला कि क्या कांग्रेस पार्टी उन्हें 2019 में
प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करेगी? सवाल यह भी था कि
गठबंधन की राजनीति में क्या सहयोगी दल भी इसके लिए तैयार होंगे?
रविवार 16 दिसम्बर को चेन्नई में हुए एक समारोह में डीएमके
अध्यक्ष एमके स्टैलिन ने राहुल को अगले प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया। इस
समारोह में सोनिया गांधी भी मौजूद थीं। स्टैलिन ने कहा, राहुल गांधी में पीएम मोदी
को हराने का माद्दा है। इस बयान के बाद इस सेमीफाइनल राजनीति का विमर्श रोचक मोड़
पर आ गया है। क्या स्टैलिन ने राहुल और सोनिया से पहले बात करके यह बयान दिया था
या योंही अनायास वे बोल गए? और क्या सहयोगी दल इसके लिए तैयार होंगे?
क्षेत्रीय क्षत्रपों के सपने
विरोधी-एकता
की अचानक पैदा हुई सरगर्मी के पीछे कयास है कि त्रिशंकु संसद आने वाली है। खिचड़ी-सम्भावनाओं
का पिटारा खुलते ही क्षेत्रीय क्षत्रपों की हरकतें बढ़ गईं है। उन्हें लगता है कि
बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो तीन तरह के परिदृश्य बनेंगे। एक, बीजेपी गठबंधन, कांग्रेस गठबंधन या किसी गैर-कांग्रेस
नेता को ताज पहनने का मौका मिले, जैसे एचडी देवेगौडा को मिला था। कांग्रेस
अगर पचास-साठ पर सिमट गई तो बागडोर क्षेत्रीय क्षत्रपों के हाथ में होगी। इस उम्मीद
ने हलचल पैदा कर दी है। क्षेत्रीय राजनीति को परिदृश्य अपने पक्ष में जाता नजर आने
लगा है।
चेन्नई में जब स्टैलिन ने राहुल की तारीफ की तो कोलकाता
में ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया काफी ठंडी रही। टीएमसी सूत्रों का कहना है कि हम स्टैलिन
के इस रुख से सहमत नहीं हैं। टीएमसी के एक नेता ने कहा, हमने पहले भी कहा है
कि प्रधानमंत्री का नाम चुनाव नतीजों के बाद ही तय किया जाएगा। यों ममता बनर्जी सन
2014 के लोकसभा चुनाव से कह रहीं हैं कि अब पोस्ट-पेड का जमाना है, प्रि-पेड़ का
नहीं। विरोधी दलों के कई नेता लोकसभा चुनाव में गठबंधन की ओर से किसी का नाम
प्रधानमंत्री पद के लिए पेश किए जाने के खिलाफ हैं। खबरें हैं कि सपा, तेदेपा, बसपा, तृणमूल और
राकांपा स्टैलिन की घोषणा से सहमत नहीं हैं।
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