पाकिस्तान इस वक्त दो किस्म की आत्यंतिक परिस्थितियों से गुज़र रहा है। एक तरफ आर्थिक संकट है और दूसरी तरफ कट्टरपंथी सांप्रदायिक दबाव है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जब ‘तौहीन-ए-रिसालत’ यानी ईश-निंदा के एक मामले में ईसाई महिला आसिया बीबी को बरी किया, तो देश में आंदोलन की लहर दौड़ पड़ी थी। आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार को झुकना पड़ा। दूसरी तरफ उसे विदेशी कर्जों के भुगतान को सही समय से करने के लिए कम से कम 6 अरब डॉलर के कर्ज की जरूरत है। जरूरत इससे बड़ी रकम की है, पर सऊदी अरब, चीन और कुछ दूसरे मित्र देशों से मिले आश्वासनों के बाद उसे 6 अरब के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा है।
गुजरे हफ्ते आईएमएफ का एक दल पाकिस्तान आया, जिसने अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रतिनिधियों और संसद सदस्यों से भी मुलाकात की और उन्हें काफी कड़वी दवाई का नुस्खा बनाकर दिया है। इस टीम के नेता हैरल्ड फिंगर ने पाकिस्तानी नेतृत्व से कहा कि आपको कड़े फैसले करने होंगे और संरचनात्मक बदलाव के बड़े कार्यक्रम पर चलना होगा। संसद को बड़े फैसले करने होंगे। इमरान खान की पीटीआई सरकार जोड़-तोड़ करके बनी है। इतना ही नहीं नवाज़ शरीफ के खिलाफ मुहिम चलाकर उन्होंने सदाशयता की संभावनाएं नहीं छोड़ी हैं। अब उन्हें बार-बार अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं और यह भी कहना पड़ रहा है, ''यू-टर्न न लेने वाला कामयाब लीडर नहीं होता है। जो यू-टर्न लेना नहीं जानता, उससे बड़ा बेवक़ूफ़ लीडर कोई नहीं होता।'' परीक्षा की घड़ी
मुद्राकोष के कार्यक्रम को लागू करने के लिए संसद को कानूनों में दो प्रस्ताव फौरन करने होंगे। इनमें से पहला है स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान एक्ट-1956 में संशोधन और दूसरा नया सार्वजनिक वित्त प्रबंधन कानून। जिस तरह भारत ने वित्तीय अनुशासन के नियमों का पालन किया है, उसी तरह पाकिस्तान को भी उस रास्ते पर जाना होगा। बहरहाल पाकिस्तान को आईएमएफ का बेलआउट स्वीकार करने के साथ-साथ चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपैक) समझौते की गोपनीयता को भी खत्म करना होगा।
कई मायनों में यह पाकिस्तान की परीक्षा की घड़ी है, खासतौर से उसकी विदेश नीति की। हाल में इमरान खान की सऊदी अरब यात्रा के बाद कहा गया कि छह अरब की सहायता वहाँ से मिलेगी। साथ में यह भी कहा गया कि छह अरब की सहायता चीन देगा। सऊदी अरब के बाद इमरान खान चीन यात्रा पर गए। वहाँ जारी संयुक्त बयान में आर्थिक सहायता का कोई जिक्र नहीं था। चीन की तरफ से इतना जरूर कहा गया कि हम भी पकिस्तान की मदद करना चाहते हैं, पर इसके लिए हमें और ज्यादा बात करनी होगी।
चीन आर्थिक महाशक्ति बनना चाहता है। आर्थिक गतिविधियों को चलाने के लिए टकराव की राजनीति से बचने की जरूरत भी होती है। अमेरिका के साथ कई प्रकार के टकराव होते हुए भी चीन आर्थिक प्रश्नों पर सावधानी भरत रहा है। वह जापान और भारत के साथ भी आर्थिक सहयोग के रास्ते पर चल रहा है। देखना होगा कि पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति किस रास्ते पर जाना चाहती है।
13वाँ सहायता पैकेज
उम्मीद है कि आईएमएफ अपनी एक्सटेंडेड फंड फैसिलिटी (ईएफएफ) के तहत अगले तीन साल के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध कराएगा। यदि यह सहायता कार्यक्रम स्वीकार हो गया, तो अस्सी के दशक के बाद से यह पाकिस्तान का आईएमएफ से 13वाँ सहायता पैकेज होगा। पाकिस्तान के सामने बैलेंस ऑफ पेमेंट का संकट है। पिछले 10 साल में तीसरी बार ऐसी नौबत आई है।
सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एक रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते आयात की वजह से विदेशी भुगतान के कारण ऐसा हुआ है। इसमें चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपैक) को भी एक बड़ा कारण माना गया है। निर्यात कम हुआ है और दूसरे तरीकों से भी उम्मीद से कम धनराशि की आवक हुई। अर्थव्यवस्था पिछले कई वर्षों से मँझधार में है। जीडीपी की करीब 10 फीसदी राशि ही सरकार टैक्स के रूप में वसूल पाती है। देश में पाँच लाख से भी कम लोग आयकर रिटर्न फाइल करते हैं।
यह बात भी उठाई जा रही है कि क्या वजह है कि देश को बार-बार आईएमएफ की शरण में जाना पड़ता है? आईएमएफ के कार्यक्रम में दोष है या पाकिस्तान ने उसे लागू करने में कोई गलती की? रास्ता क्या है और क्या यह रास्ता कट्टरपंथी राजनीति से मेल खाएगा? इस सिलसिले में आर्थिक सलाहकार के रूप में आतिफ मियाँ की नियुक्ति और उन्हें हटाए जाने का प्रसंग ध्यान खींचता है। अर्थशास्त्री आतिफ मियाँ एमआईटी में पढ़े पाकिस्तानी अमेरिकी प्रोफेसर हैं। इमरान खान ने उन्हें आर्थिक सलाहकार परिषद में जगह दी थी। वे अहमदिया समुदाय से आते हैं। उनकी नियुक्ति की खबर आते ही देश में हड़कंप मच गया और इस्लामिक गुटों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। अंततः उन्हें हटना पड़ा।
आसिया बीबी प्रकरण
आसिया बीबी को निचली अदालतों ने मौत की सज़ा दी थी, पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं। इस फ़ैसले के बाद कट्टरपंथी तहरीक-ए-लब्बैक ने विरोध प्रदर्शन शुरू किए, जिनमें कई प्रकार के समूह जुड़ने लगे। प्रदर्शनों का सिलसिला देशभर में शुरू हो गया।
प्रदर्शनकारियों ने देश की सेना से बगावत करने की अपीलें कीं। इस घटनाक्रम का हमारे लिए भी सबक है। धार्मिक भावनाओं के राक्षस को भड़काने के दूरगामी दुष्परिणाम होंगे। पाकिस्तान समझ नहीं पा रहा है कि उसे किस रास्ते पर जाना चाहिए। प्रदर्शनकारियों ने न्यायिक प्रक्रिया पर उंगलियाँ उठानी शुरू कर दीं। उनका कहना था, जबतक सुप्रीम कोर्ट फ़ैसला नहीं बदलेगा, तबतक आंदोलन जारी रहेगा। इस अराजकता के बीच सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों को ‘वाजिब-उल-कत्ल’ क़रार दिया गया।
शुरू में सरकार ने कड़ा रुख अपनाया, पर बाद में इस बचाव का रास्ता निकालते हुए इस कट्टरपंथी समूह के साथ समझौता कर लिया। बीबीसी के इस्लामाबाद संवाददाता हारून रशीद के अनुसार, ‘ख़ुद को धार्मिक आंदोलनकारी बताने वाले 'तहरीक-ए-लब्बैक या रसूल अल्लाह' के संस्थापक खादिम हुसैन रिज़वी के बारे में कुछ साल पहले तक लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं थी।
साल 2017 में लाहौर की पीर मक्की मस्जिद के धार्मिक उपदेशक रहे 52 वर्षीय खादिम हुसैन रिज़वी ने असल शोहरत ईश-निंदा क़ानून में संशोधन के ख़िलाफ़ एक लंबी और सफल लड़ाई लड़कर हासिल की। इससे पहले 4 जनवरी 2011 को मारे गए पंजाब प्रांत के राज्यपाल सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज़ क़ादरी की मौत की सज़ा के मामले में भी खादिम हुसैन रिज़वी बहुत सक्रिय रहे थे।’
कट्टरपंथी हवाएं
ह्वीलचेयर पर चलने वाले खादिम हुसैन रिज़वी को बरेलवी राजनीति का नया चेहरा माना जाता है। तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान यानी टीएलपी का गठन 1 अगस्त 2015 को कराची में हुआ था, जो धीरे-धीरे राजनीति में प्रवेश करता चला गया। इसका मुख्य मक़सद पाकिस्तान को इस्लामिक राज्य बनाना है, जो शरियत-ए-मुहम्मदी के अनुसार चले। अब यह एक राजनीतिक दल है, जिसके सिंध की सूबाई असेंबली में दो सदस्य भी हैं।
पिछले साल नवंबर में चुनाव कानून में एक बदलाव के खिलाफ इस संगठन ने करीब तीन हफ्ते तक जबर्दस्त आंदोलन चलाया। आंदोलन के खिलाफ सरकार ने बड़ी कार्रवाई करने का फैसला किया, पर सेना के दबाव में कार्रवाई नहीं हुई और एक समझौता तब भी हुआ था। आंदोलन के परिणामस्वरूप केंद्रीय कानून मंत्री ज़ाहिद हमीद को इस्तीफा देना पड़ा था।
मौलाना समी-उल-हक की हत्या
इधर देश में तहरीक-ए-लब्बैक का आंदोलन चल रहा था कि शुक्रवार 2 नवंबर को तालिबान के 'गॉड फादर' कहे जाने वाले मौलाना समी-उल हक की हत्या की खबर आई। पाकिस्तान में हक को एक धार्मिक नेता के तौर पर जाना जाता है। वे कट्टरपंथी राजनीतिक पार्टी जमात उलेमा-ए-इस्लाम-समी (जेयूआई-एस) के प्रमुख थे और सांसद भी रह चुके हैं। जिस वक्त उनकी हत्या हुई, प्रधानमंत्री इमरान खान चीन के दौरे पर थे। समी-उल-हक इस्लामाबाद में हो रहे एक प्रदर्शन में हिस्सा लेने जा रहे थे, लेकिन रास्ते बंद होने की वजह से वापस आ गए। बताया यह भी जा रहा है कि जब वे इस्लामाबाद जा रहे थे, तब मोटर साइकिल पर सवार कुछ लोगों ने उनकी गाड़ी पर गोलियाँ चलाईं थीं।
रावलपिंडी लौटकर जब वे अपने कमरे में आराम कर रहे थे तो उनका ड्राइवर/गार्ड कुछ समय के लिए बाहर चला गया। जब ड्राइवर वापस लौटा तो उसने देखा कि मौलाना मर चुके थे और उनका शरीर और बिस्तर पूरी तरह खून से सना था। उस समय घर पर कोई भी मौजूद नहीं था। उनकी हत्या के निहितार्थ खोजे जा रहे हैं। इतना स्पष्ट है कि कई तालिबानी समूह उनका आदर करते थे। उनकी हत्या से अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे शांति-प्रयासों पर असर पड़ेगा।
समी-उल-हक मानते रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान पर विदेशी सेना ने कब्जा कर रखा है, उसे हटाया जाना चाहिए। उनकी हत्या की किसी ग्रुप ने जिम्मेदारी नहीं ली है। अनुमान है कि इन दिनों वे शांति-स्थापना के प्रयासों का समर्थन कर रहे थे। पाकिस्तानी पत्रकार जावेद चौधरी ने बताया कि वे तालिबान के साथ बातचीत कर रहे थे और हाल में काबुल गए थे और बातचीत में शामिल थे।
उनकी हत्या के अगले रोज ही अफगान संसद के निम्न सदन वोलेसी जिरगा में इसके निहितार्थ पर चर्चा हुई। इन खबरों के बीच एक खबर यह भी आई है कि शुक्रवार की रात समी-उल-हक की हत्या के एक घंटे बाद ही आईएसआई के पूर्व प्रमुख जनरल हमीद गुल के बेटे अब्दुल्ला गुल पर भी हमला हुआ था। अब्दुल्ला गुल इस्लामाबाद जा रहे थे। इस हत्या पर जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद ने भी दुःख जताया है। कुल मिलाकर इतना नजर आता है कि पाकिस्तानी समाज में असहमतियों के लिए जगह कम होती जा रही है।
फौज-परस्त व्यवस्था
पाकिस्तान को सिक्योरिटी स्टेट माना जाता है, यानी कि उसकी दृष्टि में सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। देश के सारे कार्यक्रम सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए होते हैं। पाकिस्तानी सुरक्षा के मायने हैं भारत से दुश्मनी। दोनों देशों के बीच कश्मीर सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है। हाल में खबरें हैं कि पाकिस्तानी आईएसआई ने कश्मीर के अलावा पंजाब और नक्सली इलाकों में हिंसक संघर्ष बढ़ाने का कार्यक्रम बनाया है।
पाकिस्तान के इस साल के बजट में खुफिया एजेंसी आईएसआई के एक ‘विशेष असाइनमेंट’ के लिए 4.3 अरब रुपये की व्यवस्था की गई है। इसपर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सांसद मियाँ रज़ा रब्बानी ने इतनी मोटी रकम सीनेट में सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि यह जानकारी बंद कमरे में दी जा सकती है। उन्हें जानकारी मिली या नहीं पता नहीं, अलबत्ता अनुमान लगाया जा सकता है कि आईएसआई के ‘स्पेशल असाइनमेंट’ क्या हो सकते हैं। जब देश आर्थिक संकट में डूबा है, तब आईएसआई किन विशेष अभियानों को अंजाम दे रही है?
गुजरे हफ्ते आईएमएफ का एक दल पाकिस्तान आया, जिसने अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रतिनिधियों और संसद सदस्यों से भी मुलाकात की और उन्हें काफी कड़वी दवाई का नुस्खा बनाकर दिया है। इस टीम के नेता हैरल्ड फिंगर ने पाकिस्तानी नेतृत्व से कहा कि आपको कड़े फैसले करने होंगे और संरचनात्मक बदलाव के बड़े कार्यक्रम पर चलना होगा। संसद को बड़े फैसले करने होंगे। इमरान खान की पीटीआई सरकार जोड़-तोड़ करके बनी है। इतना ही नहीं नवाज़ शरीफ के खिलाफ मुहिम चलाकर उन्होंने सदाशयता की संभावनाएं नहीं छोड़ी हैं। अब उन्हें बार-बार अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं और यह भी कहना पड़ रहा है, ''यू-टर्न न लेने वाला कामयाब लीडर नहीं होता है। जो यू-टर्न लेना नहीं जानता, उससे बड़ा बेवक़ूफ़ लीडर कोई नहीं होता।'' परीक्षा की घड़ी
मुद्राकोष के कार्यक्रम को लागू करने के लिए संसद को कानूनों में दो प्रस्ताव फौरन करने होंगे। इनमें से पहला है स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान एक्ट-1956 में संशोधन और दूसरा नया सार्वजनिक वित्त प्रबंधन कानून। जिस तरह भारत ने वित्तीय अनुशासन के नियमों का पालन किया है, उसी तरह पाकिस्तान को भी उस रास्ते पर जाना होगा। बहरहाल पाकिस्तान को आईएमएफ का बेलआउट स्वीकार करने के साथ-साथ चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपैक) समझौते की गोपनीयता को भी खत्म करना होगा।
कई मायनों में यह पाकिस्तान की परीक्षा की घड़ी है, खासतौर से उसकी विदेश नीति की। हाल में इमरान खान की सऊदी अरब यात्रा के बाद कहा गया कि छह अरब की सहायता वहाँ से मिलेगी। साथ में यह भी कहा गया कि छह अरब की सहायता चीन देगा। सऊदी अरब के बाद इमरान खान चीन यात्रा पर गए। वहाँ जारी संयुक्त बयान में आर्थिक सहायता का कोई जिक्र नहीं था। चीन की तरफ से इतना जरूर कहा गया कि हम भी पकिस्तान की मदद करना चाहते हैं, पर इसके लिए हमें और ज्यादा बात करनी होगी।
चीन आर्थिक महाशक्ति बनना चाहता है। आर्थिक गतिविधियों को चलाने के लिए टकराव की राजनीति से बचने की जरूरत भी होती है। अमेरिका के साथ कई प्रकार के टकराव होते हुए भी चीन आर्थिक प्रश्नों पर सावधानी भरत रहा है। वह जापान और भारत के साथ भी आर्थिक सहयोग के रास्ते पर चल रहा है। देखना होगा कि पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति किस रास्ते पर जाना चाहती है।
13वाँ सहायता पैकेज
उम्मीद है कि आईएमएफ अपनी एक्सटेंडेड फंड फैसिलिटी (ईएफएफ) के तहत अगले तीन साल के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध कराएगा। यदि यह सहायता कार्यक्रम स्वीकार हो गया, तो अस्सी के दशक के बाद से यह पाकिस्तान का आईएमएफ से 13वाँ सहायता पैकेज होगा। पाकिस्तान के सामने बैलेंस ऑफ पेमेंट का संकट है। पिछले 10 साल में तीसरी बार ऐसी नौबत आई है।
सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एक रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते आयात की वजह से विदेशी भुगतान के कारण ऐसा हुआ है। इसमें चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपैक) को भी एक बड़ा कारण माना गया है। निर्यात कम हुआ है और दूसरे तरीकों से भी उम्मीद से कम धनराशि की आवक हुई। अर्थव्यवस्था पिछले कई वर्षों से मँझधार में है। जीडीपी की करीब 10 फीसदी राशि ही सरकार टैक्स के रूप में वसूल पाती है। देश में पाँच लाख से भी कम लोग आयकर रिटर्न फाइल करते हैं।
यह बात भी उठाई जा रही है कि क्या वजह है कि देश को बार-बार आईएमएफ की शरण में जाना पड़ता है? आईएमएफ के कार्यक्रम में दोष है या पाकिस्तान ने उसे लागू करने में कोई गलती की? रास्ता क्या है और क्या यह रास्ता कट्टरपंथी राजनीति से मेल खाएगा? इस सिलसिले में आर्थिक सलाहकार के रूप में आतिफ मियाँ की नियुक्ति और उन्हें हटाए जाने का प्रसंग ध्यान खींचता है। अर्थशास्त्री आतिफ मियाँ एमआईटी में पढ़े पाकिस्तानी अमेरिकी प्रोफेसर हैं। इमरान खान ने उन्हें आर्थिक सलाहकार परिषद में जगह दी थी। वे अहमदिया समुदाय से आते हैं। उनकी नियुक्ति की खबर आते ही देश में हड़कंप मच गया और इस्लामिक गुटों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। अंततः उन्हें हटना पड़ा।
आसिया बीबी प्रकरण
आसिया बीबी को निचली अदालतों ने मौत की सज़ा दी थी, पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं। इस फ़ैसले के बाद कट्टरपंथी तहरीक-ए-लब्बैक ने विरोध प्रदर्शन शुरू किए, जिनमें कई प्रकार के समूह जुड़ने लगे। प्रदर्शनों का सिलसिला देशभर में शुरू हो गया।
प्रदर्शनकारियों ने देश की सेना से बगावत करने की अपीलें कीं। इस घटनाक्रम का हमारे लिए भी सबक है। धार्मिक भावनाओं के राक्षस को भड़काने के दूरगामी दुष्परिणाम होंगे। पाकिस्तान समझ नहीं पा रहा है कि उसे किस रास्ते पर जाना चाहिए। प्रदर्शनकारियों ने न्यायिक प्रक्रिया पर उंगलियाँ उठानी शुरू कर दीं। उनका कहना था, जबतक सुप्रीम कोर्ट फ़ैसला नहीं बदलेगा, तबतक आंदोलन जारी रहेगा। इस अराजकता के बीच सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों को ‘वाजिब-उल-कत्ल’ क़रार दिया गया।
शुरू में सरकार ने कड़ा रुख अपनाया, पर बाद में इस बचाव का रास्ता निकालते हुए इस कट्टरपंथी समूह के साथ समझौता कर लिया। बीबीसी के इस्लामाबाद संवाददाता हारून रशीद के अनुसार, ‘ख़ुद को धार्मिक आंदोलनकारी बताने वाले 'तहरीक-ए-लब्बैक या रसूल अल्लाह' के संस्थापक खादिम हुसैन रिज़वी के बारे में कुछ साल पहले तक लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं थी।
साल 2017 में लाहौर की पीर मक्की मस्जिद के धार्मिक उपदेशक रहे 52 वर्षीय खादिम हुसैन रिज़वी ने असल शोहरत ईश-निंदा क़ानून में संशोधन के ख़िलाफ़ एक लंबी और सफल लड़ाई लड़कर हासिल की। इससे पहले 4 जनवरी 2011 को मारे गए पंजाब प्रांत के राज्यपाल सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज़ क़ादरी की मौत की सज़ा के मामले में भी खादिम हुसैन रिज़वी बहुत सक्रिय रहे थे।’
कट्टरपंथी हवाएं
ह्वीलचेयर पर चलने वाले खादिम हुसैन रिज़वी को बरेलवी राजनीति का नया चेहरा माना जाता है। तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान यानी टीएलपी का गठन 1 अगस्त 2015 को कराची में हुआ था, जो धीरे-धीरे राजनीति में प्रवेश करता चला गया। इसका मुख्य मक़सद पाकिस्तान को इस्लामिक राज्य बनाना है, जो शरियत-ए-मुहम्मदी के अनुसार चले। अब यह एक राजनीतिक दल है, जिसके सिंध की सूबाई असेंबली में दो सदस्य भी हैं।
पिछले साल नवंबर में चुनाव कानून में एक बदलाव के खिलाफ इस संगठन ने करीब तीन हफ्ते तक जबर्दस्त आंदोलन चलाया। आंदोलन के खिलाफ सरकार ने बड़ी कार्रवाई करने का फैसला किया, पर सेना के दबाव में कार्रवाई नहीं हुई और एक समझौता तब भी हुआ था। आंदोलन के परिणामस्वरूप केंद्रीय कानून मंत्री ज़ाहिद हमीद को इस्तीफा देना पड़ा था।
मौलाना समी-उल-हक की हत्या
इधर देश में तहरीक-ए-लब्बैक का आंदोलन चल रहा था कि शुक्रवार 2 नवंबर को तालिबान के 'गॉड फादर' कहे जाने वाले मौलाना समी-उल हक की हत्या की खबर आई। पाकिस्तान में हक को एक धार्मिक नेता के तौर पर जाना जाता है। वे कट्टरपंथी राजनीतिक पार्टी जमात उलेमा-ए-इस्लाम-समी (जेयूआई-एस) के प्रमुख थे और सांसद भी रह चुके हैं। जिस वक्त उनकी हत्या हुई, प्रधानमंत्री इमरान खान चीन के दौरे पर थे। समी-उल-हक इस्लामाबाद में हो रहे एक प्रदर्शन में हिस्सा लेने जा रहे थे, लेकिन रास्ते बंद होने की वजह से वापस आ गए। बताया यह भी जा रहा है कि जब वे इस्लामाबाद जा रहे थे, तब मोटर साइकिल पर सवार कुछ लोगों ने उनकी गाड़ी पर गोलियाँ चलाईं थीं।
रावलपिंडी लौटकर जब वे अपने कमरे में आराम कर रहे थे तो उनका ड्राइवर/गार्ड कुछ समय के लिए बाहर चला गया। जब ड्राइवर वापस लौटा तो उसने देखा कि मौलाना मर चुके थे और उनका शरीर और बिस्तर पूरी तरह खून से सना था। उस समय घर पर कोई भी मौजूद नहीं था। उनकी हत्या के निहितार्थ खोजे जा रहे हैं। इतना स्पष्ट है कि कई तालिबानी समूह उनका आदर करते थे। उनकी हत्या से अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे शांति-प्रयासों पर असर पड़ेगा।
समी-उल-हक मानते रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान पर विदेशी सेना ने कब्जा कर रखा है, उसे हटाया जाना चाहिए। उनकी हत्या की किसी ग्रुप ने जिम्मेदारी नहीं ली है। अनुमान है कि इन दिनों वे शांति-स्थापना के प्रयासों का समर्थन कर रहे थे। पाकिस्तानी पत्रकार जावेद चौधरी ने बताया कि वे तालिबान के साथ बातचीत कर रहे थे और हाल में काबुल गए थे और बातचीत में शामिल थे।
उनकी हत्या के अगले रोज ही अफगान संसद के निम्न सदन वोलेसी जिरगा में इसके निहितार्थ पर चर्चा हुई। इन खबरों के बीच एक खबर यह भी आई है कि शुक्रवार की रात समी-उल-हक की हत्या के एक घंटे बाद ही आईएसआई के पूर्व प्रमुख जनरल हमीद गुल के बेटे अब्दुल्ला गुल पर भी हमला हुआ था। अब्दुल्ला गुल इस्लामाबाद जा रहे थे। इस हत्या पर जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद ने भी दुःख जताया है। कुल मिलाकर इतना नजर आता है कि पाकिस्तानी समाज में असहमतियों के लिए जगह कम होती जा रही है।
फौज-परस्त व्यवस्था
पाकिस्तान को सिक्योरिटी स्टेट माना जाता है, यानी कि उसकी दृष्टि में सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। देश के सारे कार्यक्रम सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए होते हैं। पाकिस्तानी सुरक्षा के मायने हैं भारत से दुश्मनी। दोनों देशों के बीच कश्मीर सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है। हाल में खबरें हैं कि पाकिस्तानी आईएसआई ने कश्मीर के अलावा पंजाब और नक्सली इलाकों में हिंसक संघर्ष बढ़ाने का कार्यक्रम बनाया है।
पाकिस्तान के इस साल के बजट में खुफिया एजेंसी आईएसआई के एक ‘विशेष असाइनमेंट’ के लिए 4.3 अरब रुपये की व्यवस्था की गई है। इसपर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सांसद मियाँ रज़ा रब्बानी ने इतनी मोटी रकम सीनेट में सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि यह जानकारी बंद कमरे में दी जा सकती है। उन्हें जानकारी मिली या नहीं पता नहीं, अलबत्ता अनुमान लगाया जा सकता है कि आईएसआई के ‘स्पेशल असाइनमेंट’ क्या हो सकते हैं। जब देश आर्थिक संकट में डूबा है, तब आईएसआई किन विशेष अभियानों को अंजाम दे रही है?
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (26-11-2018) को "प्रारब्ध है सोया हुआ" (चर्चा अंक-3167) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
जानकारियों से भरपूर आपका देख प्रमोद जी. धन्यवाद
ReplyDeleteबेहतरीन लेख !
ReplyDeleteबहुत खूब प्रमोद जी !
Hindi Panda
Nice Post, Love reading your blogs and amazing writing style.
ReplyDeleteDigi Patrika