मोदी सरकार ने चुनाव के ठीक पहले ‘आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों’ के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पास करके राजनीतिक धमाका
किया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि सवर्ण हिन्दू जातियों के बीच पार्टी का
जनाधार हाल में कमजोर हो रहा था। पिछले दिनों अजा-जजा एक्ट में संशोधन के कारण यह
वर्ग पार्टी से नाराज था। मध्य प्रदेश में इसका असर खासतौर से देखने को मिला। एक
नया दल सपाक्स खड़ा हो गया। ‘वोट फॉर नोटा’ का नारा दिया गया। आंदोलन
की गूँज उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में भी सुनी गई। सवाल है कि क्या सरकार का यह
फैसला इसी रोष को कम करने लिए है या कुछ और है? सरकार इस बहाने क्या आरक्षण
पर बहस को शुरू करना चाहती है? लाख टके का सवाल यह है कि क्या इससे भाजपा के पक्ष में लहरें
पैदा होंगी?
कहना मुश्किल है कि यह फैसला लागू हो भी पाएगा या नहीं,
पर राजनीतिक लिहाज से यह पेशकश आकर्षक जरूर है। तकरीबन हरेक पार्टी ने इसे समर्थन
दिया है। हालांकि मोदी विरोधी मानते हैं कि यह चुनावी चाल है, पर वे इसका विरोध
करने की स्थिति में नहीं हैं। सवाल है कि क्या यह चाल बीजेपी की नैया पार कराने
में मददगार होगी? हाँ, राफेल के हवाई हमलों से घिरी भाजपा को कुछ देर के
लिए राहत जरूर मिली है। फिलहाल वह राजनीतिक बहस को अपनी तरफ खींचने में कामयाब हुई
है। साथ ही आरक्षण के सवाल को जातीय घेराबंदी के बाहर निकालने में भी उसे सफलता
मिली है। यह एक नयापन है, जो इस चुनाव में विमर्श का बिन्दु बन सकता है।
इस आरक्षण की राह में कुछ कानूनी दिक्कतें भी हैं, इसलिए सरकार ने संविधान
संशोधन का रास्ता पकड़ा है। कुछ विधि-विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे अदालत की मंजूरी
नहीं मिलेगी। यह राय सन 1992 के इन्द्रा साहनी वाले मामले के कारण है। उस केस में
नौ जजों के संविधान पीठ ने माना था कि देश में ‘आर्थिक पिछड़ापन’ आरक्षण का आधार नहीं हो सकता। आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए संविधान
के अनुच्छेद 15 और 16 में बदलाव की जरूरत इसीलिए महसूस की गई।
संविधान संशोधन क्यों?
संविधान का अनुच्छेद 15 सभी नागरिकों को
समानता का अधिकार देता है। आरक्षण से समानता के इस अधिकार का हनन होता है। इसलिए अनुच्छेद
15 (4) और 15 (5) में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित
जाति और जनजाति के लिए विशेष उपबंध हैं। पर यहां ‘आर्थिक पिछड़ेपन’ का उल्लेख नहीं है। इन
दोनों अनुच्छेदों में ‘आर्थिक पिछड़ेपन’ को जोड़ा गया है। हम
जिस जातीय आरक्षण को देख रहे हैं, उसके लिए भी संविधान में संशोधन करना पड़ा था। जातीय
आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी जब मद्रास राज्य बनाम
चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद 1951
में संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई।
इन अनुच्छेदों में समानता के सिद्धांत के
अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों
और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं। इसी संशोधन के तहत संविधान में
नौवीं अनुसूची जोड़ी गई थी, ताकि सुधार से जुड़े नियमों को न्यायिक समीक्षा से
बचाया जा सके। संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। साथ ही
अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी
गई।
सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई थी।
इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की
अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण
आधार जाति है। पर संविधान में ‘जाति’ शब्द से बचा
गया है। ओबीसी जाति नहीं वर्ग है। पर यह भी सच है कि ज्यादातर अदालती फैसलों में
जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दु है।
50 फीसदी की बाधा
इस आरक्षण के रास्ते में दूसरी बाधा है इसका 50 फीसदी की
सीमा से ज्यादा होना। इन्द्रा साहनी मामले में अदालत ने यह सीमा निर्धारित की थी।
पर सरकार का कहना है कि यह सीमा 15(4) और 16(4) के अंतर्गत सामाजिक रूप से पिछड़े
वर्गों के लिए है। चूंकि इस संविधान संशोधन के कारण एक नया आर्थिक वर्ग तैयार हुआ
है, जिसका टकराव शेष 50 फीसदी से नहीं है, इसलिए इस संशोधन को सांविधानिक बाधा पार
करने में दिक्कत नहीं होगी।
सरकार का कहना है कि देश में लम्बे अरसे से आर्थिक आधार
पर आरक्षण की माँग की जा रही है। संसद में 21 निजी विधेयक इस आशय के लाए जा चुके
हैं और राजनीतिक स्तर पर तकरीबन आमराय है कि आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए भी
शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण होना चाहिए। इस नए आरक्षण का लाभ लेने के
लिए व्यक्ति की आय सीमा आठ लाख रुपये सालाना और पाँच एकड़ कृषि योग्य जमीन तथा कुछ
दूसरे मापदंड हैं। ये मापदंड ओबीसी के क्रीमीलेयर के बराबर हैं।
पहले भी कोशिशें हुई हैं
सन 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण
का प्रस्ताव किया था, पर इन्द्रा साहनी केस में संविधान पीठ ने कहा था कि देश में
आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण सम्भव नहीं है। अब यदि यह मामला न्यायिक
समीक्षा के लिए जाएगा, तो कम से कम दो सवालों पर अदालत को फैसला करना होगा। एक,
क्या अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन के संविधान के मौलिक ढाँचे के अनुरूप है? दूसरे यह कि क्या 50 फीसदी की सीमा पार की
जा सकती है?
अतीत में राज्य सरकारों ने भी आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने की
कोशिशें की थीं। केरल में वाममोर्चे की सरकार ने सन 2008 में कुछ कोर्सों में
प्रवेश के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण की पेशकश की थी। ऐसी ही पेशकश 2008 में
राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने और 2016 में गुजरात की बीजेपी सरकार ने की थीं।
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार इस विचार की समर्थक थी।
संघ का क्या कहना है?
भारतीय जनता पार्टी की राजनीति आरक्षणवादी नहीं है। अलबत्ता वह आरक्षण का
विरोध भी नहीं करती, पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इशारा करता रहता है कि इस विषय पर
पुनर्विचार होना चाहिए। जनवरी 2017 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में संघ के अखिल भारतीय प्रचार
प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा कि आरक्षण व्यवस्था खत्म होनी चाहिए। उसके पहले सितंबर
2015 में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी ऐसी बातें कहीं थीं। बिहार चुनाव सिर पर
होने के कारण तब पार्टी ने इन बातों से पल्ला झाड़ लिया था। मोहन भागवत ने संघ के
मुखपत्र 'पांचजन्य' और 'ऑर्गनाइज़र' को दिए इंटरव्यू में
कहा था, आरक्षण की ज़रूरत और उसकी समय सीमा पर एक समिति बनाई जानी चाहिए। उन्होंने
यह भी कहा था कि आरक्षण पर राजनीति हो रही है और इसका दुरुपयोग किया जा रहा है। भाजपा
ही नहीं सन 2014 के चुनावों के ठीक पहले कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव जनार्दन
द्विवेदी ने ऐसा ही बयान दिया था, जिसकी सफाई में सोनिया गांधी को बयान जारी करना पड़ा।
राजनीतिक औजार
आरक्षण आसान राजनीतिक औजार है, जिसका फायदा हरेक दल
उठाना चाहता है। इससे जुड़ी ज्यादातर घोषणाएं चुनावों के ठीक पहले होती हैं। इस
साल अप्रैल-मई में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव के पहले खबरें थीं कि सिद्धरमैया सरकार
राज्य में पिछड़ों और दलितों के आरक्षण को 50 फीसदी से बढ़ाकर 70 फीसदी करना चाहती
है। हालांकि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता, पर उन्होंने कहा कि हम इसे 70 फीसदी करेंगे।
ऐसा तमिलनाडु में हुआ भी है, पर इसके लिए संविधान में 76 वां संशोधन करके उसे नौवीं
अनुसूची में रखा गया, ताकि अदालत
में चुनौती नहीं दी जा सके।
मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को
रद्द करने के साथ यह भी स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा
जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के
अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें नए वर्गों
को भी पहचानना चाहिए। अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के
तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी।
कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन
पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता। कई जगह गाँव का निवासी
होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। ओबीसी आरक्षण
में ऐसा है। जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत
काल तक पिछड़ा रहेगा? पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन
से कभी उबरेगा? इस दृष्टि से मलाईदार परत की अवधारणा बनी है।
सबल वर्गों की माँग
हाल के वर्षों में उन सामाजिक वर्गों ने
आरक्षण की माँग की है, जो पहले से मजबूत हैं। तमाम राजनीतिक दल ऐसे खड़े होते जा
रहे हैं जो किसी एक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। हरियाणा के जाट-आंदोलन की
प्रतिक्रिया देश के दूसरे इलाकों में हुई। राजस्थान के राजपूतों ने भी इसकी माँग
की। उनके संगठन श्री राजपूत करणी सेना का कहना है कि राजस्थान के अलावा दिल्ली, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
और उत्तराखंड में भी आंदोलन करेंगे।
राजस्थान में वसुंधरा राजे से पहले वाली अशोक
गहलोत सरकार ने ओबीसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कृषक राजपूत वर्ग को आरक्षण देने
का निर्णय किया था। गुजरात के पाटीदार आंदोलन ने देश में आरक्षण को लेकर एक नई बहस
छेड़ी। हाल में महाराष्ट्र में देवेन्द्र फड़नबीस की सरकार ने मराठों को 16 फीसदी
आरक्षण देने का फैसला किया है। अगले साल महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव होने वाले
हैं। उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण
की मांग की है। वहाँ विधानसभा में पहले ही पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने का
प्रस्ताव पेश हो चुका है।
सबसे बड़ी बात यह है आर्थिक रूप से समर्थ
समुदाय आरक्षण की माँग कर रहे हैं। राजस्थान में गुज्जर, आंध्र में कापू,
गुजरात में पाटीदार और महाराष्ट्र में मराठा प्रभावशाली जातियाँ हैं। हरियाणा के
जाट आंदोलन के समांतर आंध्र में कापू आंदोलन है। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का
कहना है कि मैं कापू समुदाय को आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध हूं। इसके लिए एक
न्यायिक आयोग भी गठित किया जा चुका है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (13-01-2019) को "उत्तरायणी-लोहड़ी" (चर्चा अंक-3215) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
उत्तरायणी-लोहड़ी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'