राफेल
रक्षा सौदे के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से विवाद को शांत हो जाना
चाहिए था, पर लगता है कि ऐसा होगा नहीं। इसकी वजह इस मामले की राजनीतिक प्रकृति
है। अदालत ने इस सौदे पर उठाए गए प्रक्रियात्मक सवालों का जवाब देते हुए कहा है कि
उसे कोई दोष नजर नहीं आया। अब जो सवाल हैं, उनकी प्रकृति राजनीतिक है। अदालती
फैसले का एक पहलू सीएजी की रिपोर्ट से जुड़ा हुआ था, जो शुक्रवार की शाम से ही चर्चा
में था। वह यह कि क्या सीएजी रिपोर्ट में कीमत का विवरण है और क्या यह रिपोर्ट
लोकलेखा समिति ने देखी है। शनिवार को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ
में हलफनामा दाखिल करके कहा कि इसके पहले दाखिल हलफनामे में केवल उस प्रक्रिया को
बताया गया है कि इस प्रकार की सूचनाओं की प्रक्रिया क्या है।
अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है। ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है। उम्मीद है कि सोमवार को अदालत इस मामले में कोई निर्देश देगी, पर खबरें यह भी हैं कि सुप्रीम कोर्ट में सर्दियों की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं और अब 2 जनवरी के बाद ही इस मामले में कुछ हो पाएगा। जो भी है सोमवार को स्थिति कुछ स्पष्ट होगी। उधर लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि हम सीएजी और अटॉर्नी जनरल को बुलाकर जवाब तलब करेंगे।
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अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है। ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है। उम्मीद है कि सोमवार को अदालत इस मामले में कोई निर्देश देगी, पर खबरें यह भी हैं कि सुप्रीम कोर्ट में सर्दियों की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं और अब 2 जनवरी के बाद ही इस मामले में कुछ हो पाएगा। जो भी है सोमवार को स्थिति कुछ स्पष्ट होगी। उधर लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि हम सीएजी और अटॉर्नी जनरल को बुलाकर जवाब तलब करेंगे।
स्वाभाविक रूप से कांग्रेस
की दिलचस्पी इसकी राजनीति में है, पर इसके जोखिम भी हैं। वह इसे अदालत में नहीं ले
गई थी, पर उसे उम्मीद थी कि अदालत से कुछ बातें निकलेंगी, जो विवाद को जारी रखने
में मददगार होंगी। पर अदालत ने इस खरीद की प्रक्रिया को साफ-सुथरा माना और अपनी देखरेख
में जाँच की संभावना को खारिज कर दिया। अदालत ने यह भी कहा है कि हम कार्यपालिका
के निर्णयों की बहुत गहराई तक जाकर समीक्षा नहीं करना चाहेंगे, खासकर राष्ट्रीय
सुरक्षा के मामलों में। अदालत ने खरीद की निर्णय-प्रक्रिया, मूल्य-निर्धारण और
भारतीय ऑफसेट-पार्टनर तीनों मसलों पर विचार किया है। इनमें से दो मामलों में सरकार
को क्लीन चिट दी है। उसने सरकार से कीमत से जुड़ा विवरण भी माँगा। सरकार ने हिचक
के साथ सीलबंद लिफाफे में विवरण अदालत को सौंपा। अदालत ने यह भी कहा कि हमने
बारीकी से मूल्य-सम्बद्ध विवरणों का भी अध्ययन किया है।
कांग्रेस
पार्टी की शिकायत अब कीमत पर है। अदालत ने माना कि सरकार ने कीमत का विवरण संसद को
भी नहीं दिया है। यह भी लिखा कि यह विवरण सीएजी को दिया गया है, जिसकी परीक्षा
लोकलेखा समिति ने भी की है। इसी बात को सरकार ने दूसरे हलफनामे में स्पष्ट किया
है। इसका मतलब है कि लोकलेखा समिति को इसे देखने का मौका मिलेगा। यह रिपोर्ट संसद
के इसी सत्र में पेश होने की उम्मीद थी। पिछले महीने मीडिया में खबरें थीं कि
रिपोर्ट रक्षा-मंत्रालय के पास उसकी टिप्पणी के लिए भेजी गई है। शुक्रवार की शाम
केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी इससे जुड़े सवाल पर कोई जवाब नहीं दिया था।
कांग्रेस
संयुक्त संसदीय समिति गठित करके इसकी जाँच की माँग कर रही है। राहुल गांधी बार-बार
कह रहे हैं ‘घोटाला-घोटाला’ और ‘चौकीदार चोर
है।’ यह संवेदनशील मसला है, तथ्यों की पुष्टि होने के पहले वे
ऐसे निष्कर्षों पर कैसे पहुँच सकते हैं? राष्ट्रीय हितों के
साथ-साथ उनपर व्यवस्था की साख को बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है। रक्षा-मामलों में
इसके पहले भी आरोप लगते रहे हैं। इनकी जाँच-प्रक्रिया लंबी और दुरूह है। यह बात
कांग्रेस अच्छी तरह समझती है। उसकी दिलचस्पी लोकसभा चुनाव तक इस मामले को खबर में
बनाए रखने की है। अदालत के फैसले से उसकी इस कोशिश को धक्का लगा है।
बेशक रिलायंस समूह को मिले ऑफसेट अधिकार और क्रोनी कैपिटलिज्म
जैसे सवाल बदस्तूर हैं, पर आरोपों की हवा अब निकल चुकी है। उनमें अब वह दम नहीं
बचा, जितनी हवा बाँधी गई थी। पिछले साल दिसम्बर में राहुल गांधी ने राफेल को लेकर आरोप लगाने शुरू किए थे। जवाब में पहले
अरुण जेटली ने पंद्रह सवाल राहुल से पूछे थे। इस मामले को अदालत में ले जाने से
कुछ बातें स्पष्ट जरूर हुईं हैं। अदालत ने कीमतों के बारे में कोई राय जरूर व्यक्त
की है, पर उस सवाल से मुँह भी नहीं फेरा है।
यदि
निर्णय-प्रक्रिया में दोष नहीं है, तो मूल्य-निर्धारण में दोष क्यों है? दोष है तो किसलिए और
दो सरकारों के बीच समझौते में लाभ किसे मिला? घोटाला है तो क्या
घोटाला है? अदालत के फैसले का मतलब क्या है? इस साल दौरान सितम्बर में सुप्रीम कोर्ट में एक
वकील ने याचिका दायर की थी। उसके बाद एक और याचिका दायर की गई। फिर आम आदमी पार्टी
के सांसद संजय सिंह की और फिर प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा की
याचिकाएं सामने आईं।
कांग्रेस
की इच्छा अदालत जाने की नहीं थी। उसे अनुमान था कि अदालत में जाने से इसका
राजनीतिकरण रुक जाएगा। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने उन्हीं दिनों इस
मामले की पीआईएल को बीजेपी स्पांसर्ड बताया था। पी चिदंबरम ने कहा था कि इस मामले
के लिए अदालत नहीं, संसद का मंच बेहतर है। कांग्रेस की शुरू से इसकी जेपीसी जाँच हो।
इस जाँच के चलते रहने पर ही इसका राजनीतिक लाभ मिल सकता है। प्रशांत भूषण और उनके
साथी सीबीआई के पास जाँच के लिए ही गए थे। बाद में उन्होंने भी पीआईएल दायर की। कुछ
लोगों को उम्मीद थी कि शायद अदालत से कोई ऐसी बात निकले, जिससे सरकार अर्दब में आए,
पर ऐसा नहीं हुआ। अदालत ने कहा कि ख़रीद प्रक्रिया को लेकर किसी तरह के संदेह का
कोई आधार नहीं है।
कांग्रेस
भले ही इस मामले को अब भी उठाती रहेगी, पर इस मोड़ पर बीजेपी को सहारा मिला है। कांग्रेस
को इसे अब कोई और मोड़ देना होगा। इतना तय है कि अब नरेन्द्र मोदी के भाषणों में राफेल
भी एक बड़ा मुद्दा होगा। कांग्रेस पार्टी पर पहले से आरोप है कि वह एनडीए सरकार को
बदनाम करने के लिए रक्षा सौदों के फर्जी घोटालों के आरोप लगाती रही है। करगिल
युद्ध के बाद एनडीए सरकार ने कफन खरीद की थी,
जिसमें घोटाले का आरोप लगा था। इसे
लेकर भी कांग्रेस ने घोटालों का प्रचार किया। उसमें निशाना जॉर्ज फर्नांडिस बने
थे।
यूपीए
के कार्यकाल में सन 2009 में सीबीआई ने उस मामले में आरोप पत्र दायर किए और
दिसम्बर 2013 में आरोप खारिज हो गए। इसी तरह सन 2006 में बराक मिसाइल घोटाले की
खबरें आईं। उस मामले में कुछ गिरफ्तारियाँ भी हुईं और फिर सात साल की तफतीश के बाद
सीबीआई ने मान लिया कि कोई घोटाला नहीं हुआ। इसके बाद यूपीए सरकार ने खुद फिर बराक
मिसाइलों की खरीद का फैसला किया।
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