राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विवाद बजाय खत्म होने के बढ़ गया है. अदालती फैसले के एक पैराग्राफ को लेकर कांग्रेस पार्टी ने सरकार पर नए आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं. इससे मूल विवाद के अलावा कुछ नए आरोप और जुड़ गए हैं. शुक्रवार को अदालत ने जो फैसला सुनाया था, उससे सरकारी पक्ष मजबूत हो गया था, पर फैसले की भाषा के कारण लगता है कि यह विवाद अभी तबतक चलेगा, जबतक सुप्रीम कोर्ट उसे और स्पष्ट न करे.
शनिवार को सरकार ने हलफनामा दाखिल करके कहा कि सरकार ने सीलबंद लिफाफों में अदालत को जानकारी दी थी, उसमें यह नहीं लिखा गया था कि इस मामले में सीएजी रिपोर्ट आ गई है और उसे लोकलेखा समिति (पीएसी) को दिखा दिया गया है. सरकार ने केवल यह बताया था कि इस प्रकार के सौदों की जानकारी संसद के सामने लाने की प्रक्रिया क्या है. अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है. ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है.
कांग्रेस पार्टी ने इस मामले में सरकार पर जानबूझकर गलत जानकारी देने का आरोप लगाकर इसे दूसरा मोड़ दे दिया है. इस नए विवाद के कारण सोमवार को भी संसद के दोनों सदनों में नारेबाजी होती रही और तख्तियों पर नारे लगाकर सदस्य उन्हें कैमरों को दिखाते रहे. स्वाभाविक है कि इससे संसद का सामान्य कार्य प्रभावित होता है. सुप्रीम कोर्ट में शीतकालीन अवकाश होने के कारण यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार के हलफनामे पर उसका निर्णय क्या होगा. यानी कि इस वजह से यह भ्रम अभी कुछ समय तक जारी रहेगा. दोनों पक्ष इस फैसले के निहितार्थों की अपनी-अपनी व्याख्या करते रहेंगे. बेहतर होता कि दोनों पक्ष इस विषय पर अदालत के स्पष्टीकरण का इंतजार करें. पर लगता है कि राजनीतिक कारणों से कोई भी रुकना नहीं चाहता.
अदालत ने यह भी कहा कि हम कार्यपालिका के निर्णयों की बहुत गहराई तक जाकर समीक्षा नहीं करना चाहेंगे, खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में. अदालत ने माना कि सरकार ने कीमत का विवरण संसद को भी नहीं दिया है. पर यह विवरण सीएजी को दिया गया है, जिसकी परीक्षा लोकलेखा समिति ने भी की है. यह बात तथ्यों से मेल नहीं खाती है. वस्तुतः सीएजी रिपोर्ट अभी पेश नहीं हुई है. संसदीय व्यवस्था के अनुसार यह पेश होगी, और इसके गोपनीय अंश को सम्पादित करके सम्पादित अंश को सार्वजनिक भी किया जाएगा. यानी कि सरकार कोई काम छिपाकर नहीं कर सकती. उसके बाद ही इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए.
इस सौदे पर उठाए गए प्रक्रियात्मक सवालों पर अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि हमें कोई दोष नजर नहीं आया. सौदा करते समय 2013 में तय की गई रक्षा खरीद प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन किया गया. समझौता होने से पहले इस पर मंत्रिमंडल की सुरक्षा समिति (सीसीएस) की मंजूरी भी ली गई. अब जो सवाल हैं, उनकी प्रकृति राजनीतिक है. इसकी चर्चा संसद में होनी चाहिए.
बेशक कांग्रेस की दिलचस्पी इसकी राजनीति में है, और बीजेपी भी इसके राजनीतिक लाभ को ही उठाना चाहेगी. पर इसके जोखिम भी हैं. शुरूआत से ही कांग्रेस इसे अदालत में नहीं ले जाना चाहती थी. उसकी जो भी वजह रही हो, पर उसे यह उम्मीद थी कि इन जनहित याचिकाओं से कुछ बातें निकलेंगी, जो उसके लिए मददगार होंगी. पर अदालत ने इस खरीद की प्रक्रिया को साफ-सुथरा माना और अपनी देखरेख में जाँच की संभावना को खारिज कर दिया.
कांग्रेस संयुक्त संसदीय समिति गठित करके इसकी जाँच की माँग कर रही है. राहुल गांधी बार-बार कह रहे हैं ‘घोटाला-घोटाला’ और ‘चौकीदार चोर है.’ यह संवेदनशील मसला है, तथ्यों की पुष्टि होने के पहले वे ऐसे निष्कर्षों पर कैसे पहुँच सकते हैं? राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ लोकतांत्रिक-व्यवस्था की साख की रक्षा की जिम्मेदारी कांग्रेस की भी है. रक्षा-मामलों की जाँच-प्रक्रिया लंबी और दुरूह है. यह बात कांग्रेस अच्छी तरह समझती है. उसकी दिलचस्पी लोकसभा चुनाव तक इस मामले को खबर में बनाए रखने की है. इसपर किसी न किसी तरह की जाँच के चलते रहने पर ही इसका राजनीतिक लाभ मिल सकता है.
अदालती फैसले से कांग्रेस की कोशिशों को धक्का लगा है और बीजेपी को सहारा. कांग्रेस को इसे अब कोई और मोड़ देना होगा. वह संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की जाँच चाहती है. अतीत में जेपीसी जाँचों से कुछ निकला नहीं है. केवल मसलों का राजनीतिकरण हुआ है. अपने मौके पर बीजेपी ने भी इस प्रकार के राजनीतिकरण का लाभ लिया है. अब अदालत के इस फैसले का लाभ भी बीजेपी उठाएगी. नरेन्द्र मोदी की चुनाव-रैलियों में राफेल महत्वपूर्ण विषय होगा.
यह राजनीतिक नफे-नुकसान का मामला नहीं राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है. पर लगता नहीं कि राजनीति की दिलचस्पी नैतिकता और पवित्रता में है. हमें यह भी देखना चाहिए कि इस सौदे में ऐसी क्या बात थी कि अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा. इसकी कीमत और प्रक्रिया की जाँच के लिए सीएजी, पीएसी और संसद जैसी सांविधानिक संस्थाएं मौजूद हैं. राजनीतिक हितों के लिए न्याय-तंत्र का सहारा लेना भी अनुचित है.
शनिवार को सरकार ने हलफनामा दाखिल करके कहा कि सरकार ने सीलबंद लिफाफों में अदालत को जानकारी दी थी, उसमें यह नहीं लिखा गया था कि इस मामले में सीएजी रिपोर्ट आ गई है और उसे लोकलेखा समिति (पीएसी) को दिखा दिया गया है. सरकार ने केवल यह बताया था कि इस प्रकार के सौदों की जानकारी संसद के सामने लाने की प्रक्रिया क्या है. अदालती फैसले की भाषा से लगता है कि यह प्रक्रिया पूरी हो गई है. ऐसा नहीं है और सीएजी रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं हुई है.
कांग्रेस पार्टी ने इस मामले में सरकार पर जानबूझकर गलत जानकारी देने का आरोप लगाकर इसे दूसरा मोड़ दे दिया है. इस नए विवाद के कारण सोमवार को भी संसद के दोनों सदनों में नारेबाजी होती रही और तख्तियों पर नारे लगाकर सदस्य उन्हें कैमरों को दिखाते रहे. स्वाभाविक है कि इससे संसद का सामान्य कार्य प्रभावित होता है. सुप्रीम कोर्ट में शीतकालीन अवकाश होने के कारण यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार के हलफनामे पर उसका निर्णय क्या होगा. यानी कि इस वजह से यह भ्रम अभी कुछ समय तक जारी रहेगा. दोनों पक्ष इस फैसले के निहितार्थों की अपनी-अपनी व्याख्या करते रहेंगे. बेहतर होता कि दोनों पक्ष इस विषय पर अदालत के स्पष्टीकरण का इंतजार करें. पर लगता है कि राजनीतिक कारणों से कोई भी रुकना नहीं चाहता.
शुक्रवार को अदालत ने जो फैसला सुनाया है उसमें विमान खरीद की निर्णय-प्रक्रिया, मूल्य-निर्धारण और भारतीय ऑफसेट-पार्टनर तीनों मसलों पर विचार किया है और अपना फैसला सुनाया है. इनमें से निर्णय प्रक्रिया और ऑफसेट पार्टनर वाले दो मामलों में उसने सरकार को क्लीन चिट दी है. कीमत के बारे में हालांकि उसने स्पष्ट किया है कि यह अदालत के क्षेत्राधिकार से बाहर है, पर चूंकि उसने कीमत से जुड़ा विवरण भी सरकार से माँगा था, इसलिए उसे भी स्पष्ट किया है. सरकार ने हिचक के साथ सीलबंद लिफाफे में विवरण अदालत को सौंपा. अदालत ने कहा कि हमने बारीकी से मूल्य-सम्बद्ध विवरणों का भी अध्ययन किया है.
अदालत ने यह भी कहा कि हम कार्यपालिका के निर्णयों की बहुत गहराई तक जाकर समीक्षा नहीं करना चाहेंगे, खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में. अदालत ने माना कि सरकार ने कीमत का विवरण संसद को भी नहीं दिया है. पर यह विवरण सीएजी को दिया गया है, जिसकी परीक्षा लोकलेखा समिति ने भी की है. यह बात तथ्यों से मेल नहीं खाती है. वस्तुतः सीएजी रिपोर्ट अभी पेश नहीं हुई है. संसदीय व्यवस्था के अनुसार यह पेश होगी, और इसके गोपनीय अंश को सम्पादित करके सम्पादित अंश को सार्वजनिक भी किया जाएगा. यानी कि सरकार कोई काम छिपाकर नहीं कर सकती. उसके बाद ही इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए.
इस सौदे पर उठाए गए प्रक्रियात्मक सवालों पर अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि हमें कोई दोष नजर नहीं आया. सौदा करते समय 2013 में तय की गई रक्षा खरीद प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन किया गया. समझौता होने से पहले इस पर मंत्रिमंडल की सुरक्षा समिति (सीसीएस) की मंजूरी भी ली गई. अब जो सवाल हैं, उनकी प्रकृति राजनीतिक है. इसकी चर्चा संसद में होनी चाहिए.
बेशक कांग्रेस की दिलचस्पी इसकी राजनीति में है, और बीजेपी भी इसके राजनीतिक लाभ को ही उठाना चाहेगी. पर इसके जोखिम भी हैं. शुरूआत से ही कांग्रेस इसे अदालत में नहीं ले जाना चाहती थी. उसकी जो भी वजह रही हो, पर उसे यह उम्मीद थी कि इन जनहित याचिकाओं से कुछ बातें निकलेंगी, जो उसके लिए मददगार होंगी. पर अदालत ने इस खरीद की प्रक्रिया को साफ-सुथरा माना और अपनी देखरेख में जाँच की संभावना को खारिज कर दिया.
कांग्रेस संयुक्त संसदीय समिति गठित करके इसकी जाँच की माँग कर रही है. राहुल गांधी बार-बार कह रहे हैं ‘घोटाला-घोटाला’ और ‘चौकीदार चोर है.’ यह संवेदनशील मसला है, तथ्यों की पुष्टि होने के पहले वे ऐसे निष्कर्षों पर कैसे पहुँच सकते हैं? राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ लोकतांत्रिक-व्यवस्था की साख की रक्षा की जिम्मेदारी कांग्रेस की भी है. रक्षा-मामलों की जाँच-प्रक्रिया लंबी और दुरूह है. यह बात कांग्रेस अच्छी तरह समझती है. उसकी दिलचस्पी लोकसभा चुनाव तक इस मामले को खबर में बनाए रखने की है. इसपर किसी न किसी तरह की जाँच के चलते रहने पर ही इसका राजनीतिक लाभ मिल सकता है.
अदालती फैसले से कांग्रेस की कोशिशों को धक्का लगा है और बीजेपी को सहारा. कांग्रेस को इसे अब कोई और मोड़ देना होगा. वह संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की जाँच चाहती है. अतीत में जेपीसी जाँचों से कुछ निकला नहीं है. केवल मसलों का राजनीतिकरण हुआ है. अपने मौके पर बीजेपी ने भी इस प्रकार के राजनीतिकरण का लाभ लिया है. अब अदालत के इस फैसले का लाभ भी बीजेपी उठाएगी. नरेन्द्र मोदी की चुनाव-रैलियों में राफेल महत्वपूर्ण विषय होगा.
यह राजनीतिक नफे-नुकसान का मामला नहीं राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है. पर लगता नहीं कि राजनीति की दिलचस्पी नैतिकता और पवित्रता में है. हमें यह भी देखना चाहिए कि इस सौदे में ऐसी क्या बात थी कि अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा. इसकी कीमत और प्रक्रिया की जाँच के लिए सीएजी, पीएसी और संसद जैसी सांविधानिक संस्थाएं मौजूद हैं. राजनीतिक हितों के लिए न्याय-तंत्र का सहारा लेना भी अनुचित है.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-12-2018) को "ज्ञान न कोई दान" (चर्चा अंक-3190) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
राफेल सौदा अनिल अंबानी ने नेशनल हेराल्ड पर किया 5000 करोड़ मानहानि का केस !!
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