सन 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस के लिए सबसे
बड़ी खुशखबरी इन तीन राज्यों में मिली सफलता के रूप में सामने आई है। नरेन्द्र
मोदी ने पता नहीं कितनी गंभीरता से ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात कही
थी, पर लगने लगा था कि कहीं यह बात सच न हो जाए। इस सफलता के साथ कांग्रेस यह
मानकर चल सकती है कि उसका वजूद फिलहाल कायम है और वह चाहे तो उसका पुनरुद्धार भी
संभव है। उधर 2014 के बाद से बीजेपी अपराजेय लगने लगी थी। इन तीन राज्यों को चुनाव
से बीजेपी की वह छवि भी टूटी है।
हालांकि इस साल कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बीजेपी को
अपनी कमजोर होती हैसियत का पता लग गया था, पर उस चुनाव में कांग्रेस को भी सफलता
नहीं मिली थी। पर उत्तर के तीन राज्यों में इसबार बीजेपी को जो झटका लगा है, उसका
श्रेय कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी को दिया जा सकता है। इस साल के शुरू में
कांग्रेस की उपस्थिति केवल पंजाब, कर्नाटक, मिजोरम और पुदुच्चेरी में थी। इन
चुनावों में उसने मिजोरम खोया है, पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को हासिल
भी किया है।
राहुल के नेतृत्व की सफलता का यह पहला चरण है। यह पूरी
सफलता नहीं है। कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है।
राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं। यह सफलता एक
प्रकार के संधिकाल की सूचक है। वह न शिखर पर है और न अपने पराभव से पूरी तरह उबर पाई है। राहुल गांधी का राजनीतिक जीवन इस कांग्रेसी डोर से जुड़ी पतंग का है।
फिलहाल यह ऊपर उठती नजर आ रही है, और शायद कुछ ऊँचाई और पकड़ेगी। पर कितनी? इस ऊँचाई के साथ जुड़े
सवालों के जवाब लोकसभा चुनाव में मिलेंगे, पर कुछ जवाब फौरन मिलने जा रहे हैं।
इन्हीं तीनों राज्यों में।
पहली परीक्षा
जीत के फौरन बाद तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन
को लेकर पैदा हुए असमंजस से कुछ नए सवाल खड़े हुए हैं। शिखर पर पार्टी नेतृत्व अभी
किसी दृढ़ निश्चय पर पहुँचा हुआ नहीं लगता है। नेतृत्व की पिछली पीढ़ी पीछे जा रही
है और नई पीढ़ी सामने आ रही है। इस रूपांतरण के भी अंतर्विरोध हैं। जैसे बीजेपी के
भीतर मोदी विरोधी नेताओं की एक कतार है, वैसी ही कतार कांग्रेस के भीतर भी हो सकती
है। और नहीं है, तो भविष्य में खड़ी हो सकती है। पार्टी सामने से कितनी भी
एकताबद्ध नजर आए, सच यह भी है कि सन
2014 के चुनाव की पराजय के बाद से कई बार राहुल गांधी के फैसलों को लेकर दबे-छिपे
टिप्पणियाँ की गईं हैं।
राहुल
गांधी आजीवन नेता बने रहेंगे। पर अंदरूनी तौर पर वे कितने मजबूत हैं (या वैचारिक
रूप से स्पष्ट हैं) अभी कहना मुश्किल है। वर्तमान दौर उनकी पहली बड़ी परीक्षा का है।
ज़ाहिर है केन्द्रीय नेतृत्व पर कई तरह के दबाव हैं। चार-पाँच साल से लगातार हार
का सामना कर रही पार्टी ने पंजाब के बाद इन तीन राज्यों में जीत का मुँह देखा है।
कार्यकर्ताओं की उम्मीदें भी बढ़ी हुईं हैं और उनके सब्र का बाँध टूट रहा है। तीनों
राज्यों में मुख्यमंत्रियों
के नाम को लेकर पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए। नौबत आगज़नी, वाहनों की तोड़फोड़ और सड़क जाम तक आ गई।
इन
पंक्तियों के प्रकाशित होने तक काफी असमंजस दूर हो चुके होंगे, पर अब जो सवाल
सामने आएंगे, वे दूसरे असमंजसों को जन्म देंगे। सरकार का गठन असंतोषों का बड़ा
कारण बनता है, यहाँ भी बनेगा। नेताओं के व्यक्तिगत रिश्ते, परिवार से नजदीकी,
प्रशासनिक अनुभव, कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, पार्टी के कोष में योगदान कर पाने और
2019 के लोकसभा चुनाव का अपने इलाके में बेहतर संचालन कर पाने की क्षमता वगैरह की
अब परीक्षा होगी।
अभिनव प्रयोग
उधर
राहुल गांधी कुछ अभिनव प्रयोग कर रहे हैं, जिनके परिणाम क्या होंगे, पता नहीं।
मसलन उन्होंने इंटरनेट आधारित 'शक्ति एप' के जरिए कार्यकर्ताओं से राय लेना शुरू किया है। पिछले
दो-तीन दिन से रिकॉर्डेड मैसेज के जरिए कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित करके उनकी
राय ली गई है। इस डिजिटल विचार-संकलन का विश्लेषण कौन कर रहा है और इसके आधार पर
फैसले किस तरह हो रहे हैं, पता नहीं। इस सिलसिले में 2014 के चुनाव का जिक्र करना
जरूरी है। पिछले लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि आम आदमी पार्टी
की तर्ज पर प्रत्याशियों के चयन के लिए कार्यकर्ताओं की राय ली जाएगी। अमेरिकी
राष्ट्रपति के चुनावों की प्राइमरीज की पद्धति पर कुछ चुनींदा क्षेत्रों में
प्रयोगात्मक तौर पर यह व्यवस्था शुरू की गई। इसका परिणाम था नए किस्म की
सिर-फुटौवल। अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ता एक-दूसरे से भिड़ गए। तकरीबन वैसा ही अब
फिर हो रहा है।
सन 2019 के चुनाव के लिए ये राज्य कांग्रेस की आधार-भूमि
बनेंगे। यह आसान काम नहीं है, इसमें जोखिम है। जरा सी चूक होने पर कहानी पलट भी
सकती है। अगले चार महीनों का परिदृश्य भविष्य की कहानी लिखेगा। बीजेपी अब जवाबी
हमले करेगी। उसने अपने अनुषंगी संगठनों की बैठकें बुलाईं हैं। इनमें किसान और
श्रमिक संगठनों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण हैं।
सरकारें चलाने की चुनौती
तीनों राज्यों में ग्रामीण-असंतोष और बेरोजगारी को
कांग्रेस ने जोरदार तरीके से उठाया था। राज्य कर्मचारियों, शिक्षकों और स्वास्थ्य
कार्यकर्ताओं के सवाल भी उठाए गए। अब इन वर्गों को खुश करने की जिम्मेदारी इन
सरकारों के पास आई है। पार्टी कह सकती है कि उसके पास जादू की छड़ी नहीं है और
समाधान होने में कुछ समय लगेगा, पर लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। कांग्रेस ने कुछ
मामलों में फौरन कार्रवाई करने का वचन दिया है। तीनों राज्यों में किसानों के
कर्जों की माफी का वचन है। राहुल गांधी का वह बयान वायरल हुआ है, जिसमें उन्होंने
कहा है कि दस दिन में किसानों के कर्जे माफ नहीं तो मुख्यमंत्री साफ।
किसानों की कर्ज-माफी और अनाज का लाभकारी समर्थन मूल्य
फौरी तौर पर सफलता के कांग्रेसी मंत्र हैं, पर दोनों मसले सरकारों को फंदे में
फँसाने वाले हैं। मसलन हाल में जिन सरकारों ने कर्ज-माफी की योजनाएं बनाईं हैं,
उनके सामने कई तरह की चुनौतियाँ सामने आईं। सबसे बड़ी चुनौती वित्तीय-व्यवस्था की
है। दूसरी चुनौती यह तय करने की है कि किसके, कितने और किस संस्था से जुड़े कर्जे
माफ हों। मसलन उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र ने कर्जों की सीमा तय की है।
यह भी कि किस कोटि के किसान कर्ज-माफी के पात्र होंगे।
इन सब बातों को तय करने में महीनों लगेंगे। दस दिन में
सिर्फ घोषणा की जा सकती है। लोकसभा चुनाव के पहले कर्ज-माफी आसान नहीं है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने किसानों को धान का समर्थन मूल्य 2500 रुपये प्रति
क्विंटल देने का वादा किया है, जबकि 2013 के चुनाव में बीजेपी ने 2100 रुपये का
वादा किया था, जो पूरा नहीं हो पाया। कांग्रेस सरकार को 2500 रुपये देने के लिए
करीब 3750 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था करनी होगी। ऐसे ही तमाम सवाल मध्य प्रदेश
और राजस्थान में भी हैं, जहाँ विधानसभा में विपक्ष काफी मजबूत है। इन चुनौतियों का
सामना तभी हो पाएगा, जब कांग्रेस अंदरूनी चुनौतियों से पार पाएगी।
तीन सवाल
कांग्रेस और राहुल से जुड़े तीन मसलों पर ध्यान देने की
जरूरत है। एक, व्यक्तिगत रूप से वे कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में किस तरह की भूमिका
अदा करते हैं। दूसरे, उनकी अध्यक्षता में उनकी पार्टी और खासतौर से संगठन की दिशा
क्या होगी। और तीसरे, वे अपने साथ किन ताकतों को जोड़ने में सफल होंगे। क्या वे प्रस्तावित
महागठबंधन के नेता के रूप में खुद को तैयार कर पाएंगे? या महागठबंधन से जुड़े क्षत्रपों के पिछलग्गू
बनेंगे?
तीनों राज्यों में कांग्रेस पार्टी का वोट-शेयर बढ़ा है।
खासतौर से छत्तीसगढ़ में उसने बीजेपी को काफी पीछे धकेल दिया है, पर कहा नहीं जा
सकता कि 2019 में वोट-प्रतिशत यही रहेगा। उस चुनाव में मसले दूसरे होंगे। साथ ही
अगले चार महीनों में कांग्रेस सरकार की दशा-दिशा भी माहौल को प्रभावित करेगी। इतनी
बड़ी सफलता के बावजूद उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस की स्थिति कमजोर है।
दोनों राज्यों से लोकसभा की 120 सीटें आती हैं। कांग्रेस इन दोनों राज्यों में
महागठबंधन का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ेगी। गठबंधन का नियम है कि जितना बड़ा गठबंधन
होगा, उतनी ही सीटें दूसरे दलों को देनी होंगी। कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या उसका
अपना संगठन है।
आखिरी सवाल विचारधारा का है। केवल नकारात्मक वोट ही
अंतिम लक्ष्य नहीं है। वोटर के पास आप क्या विचार लेकर जा रहे हैं। केवल धर्म और
जाति ही विचारधारा नहीं है। कांग्रेस की आर्थिक-नीतियाँ तकरीबन वही हैं, जो बीजेपी
की हैं। पर हाल के वर्षों में कॉरपोरेट हाउसों पर हमले बोलकर और किसानों के कर्जों
की माफी और सब्सिडी बढ़ाने की माँगों से लगता है कि वे किसी स्पष्ट विचार पर नहीं
हैं। ईवीएम को लेकर उनकी धारणा अस्पष्ट है। अगले कुछ साल अर्थव्यवस्था के लिए
महत्वपूर्ण साबित होंगे। तेज संवृद्धि दर हासिल करने और सामाजिक कल्याण के
कार्यक्रमों को तेज करने के अपने सूत्रों को उन्हें स्पष्ट करना होगा। क्या गठबंधन
की सरकारें तेज संवृद्धि के लिए जरूरी राजनीतिक स्थिरता पैदा कर पाएंगी? टूजी जैसे हालात गठबंधन की देन थे।
भविष्य में कांग्रेस का गठबंधन धर्म क्या होगा?
ऐसे बहुत से सवालों का जवाब राहुल को देना होगा।
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