इन
चुनाव परिणामों का बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए एक ही संदेश है. वक्त है अब भी
बदल जाओ. पर फटकार बीजेपी के नाम है. उत्तर के तीनों राज्यों में उसकी कलई उतर गई
है. दक्षिण और पूर्वोत्तर में भी कुछ मिला नहीं. उसने खोया ही खोया है. बेशक
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीनों में एंटी-इनकम्बैंसी थी, पर पार्टी ने
बचने के लिए जिस हिन्दुत्व का सहारा लिया, वह कत्तई कारगर साबित नहीं हुआ. संघ का कुशल-कारगर
संगठन और अमित शाह की शतरंजी-योजनाएं फेल हो गईं.
सबसे
बड़ी और शर्मनाक हार छत्तीसगढ़ में हुई, जो बीजेपी का आदर्श राज्य हुआ करता था. उसकी
तरह 5 साल की एंटी इनकम्बैंसी मध्य प्रदेश में भी थी, पर शिवराज सिंह चौहान को श्रेय
जाता है कि उन्होंने शर्मनाक हार को बचाकर उसे काँटे की टक्कर बनाया. दोनों
पार्टियों का वोट प्रतिशत तकरीबन बराबर है. रमन सिंह और वसुंधरा राजे ऐसा करने में
विफल रहे. छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों राज्यों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में
आठ-आठ फीसदी की गिरावट आई है.
सबसे
बड़ा सवाल है कि क्या ये परिणाम 2019 की झलक भी पेश कर रहे हैं? कुछ विश्लेषक पहले से कह रहे हैं कि तीनों
जगह बीजेपी हार को भी केन्द्र-विरोधी जनादेश नहीं माना
जाएगा. क्यों नहीं माना जाएगा? जनता का कितना गुस्सा राज्य सरकार के और कितना केन्द्र के खिलाफ था इसका
हिसाब कैसे निकाला जाएगा? जनता की नाराजगी में जीएसटी और नोटबंदी का भी हिस्सा है. गहराई तक
बैठे भ्रष्टाचार और बेरोजगारी की भूमिका भी है. इन सब बातों के लिए केन्द्रीय
नेतृत्व जिम्मेदार है. दूसरे पार्टी इस समय बुरी तरह व्यक्ति-केन्द्रित है.
सामान्य स्थिति होती, तो यह राज्य सरकारों की हार थी, पर अब तो ‘मोदी नाम केवलम’ है. इस बीच कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो ये परिणाम
कमोबेश 2019 के नम्बरों को प्रभावित करेंगे. कम से कम इन तीन राज्यों की 65 में से
आधी या ज्यादा लोकसभा सीटें बीजेपी के हाथ से गईं. 2014 में उसे यहाँ 62 सीटें
मिलीं थीं.
ऐसा
नहीं कि बीजेपी को इस बात का इलहाम नहीं था. उसके पास कोर्स करेक्शन का वक्त है.
शायद वह गाँव और किसान-केन्द्रित योजनाओं की घोषणा करे. पार्टी अब जो अंतर्मंथन
करेगी पता नहीं उसकी दिशा क्या होगी. इतना तय है कि उसके ‘उग्र हिन्दुत्व’ ने
फायदा
कम, नुकसान ज्यादा पहुँचाया है. मंदिर
और गाय एक छोटे तबके को प्रभावित करते हैं, पर अच्छे प्रशासन का यह विकल्प नहीं
है. लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जिताने वालों में नौजवानों और महिलाओं की भूमिका
काफी बड़ी थी. शायद पार्टी ने उस तबके को भुला दिया है. वह अलोकप्रियता की शिकार
हो रही है.
पर
यह चुनाव कांग्रेस की जीत भी नहीं है. और न राहुल गांधी का उदय. यह परिणाम तो आना
ही था. बहरहाल उसका खुशी मनाना वाजिब है. लम्बे अर्से बाद उसने सफलता का स्वाद चखा
है. उसे छत्तीसगढ़ में भारी और राजस्थान में काम भर की सफलता मिली है. मध्य प्रदेश
में भी उसकी सरकार बनेगी. लोकसभा चुनाव के पहले तीन राज्यों में सरकार बनना
राजनीतिक और ‘आर्थिक’ दृष्टि से भी लाभकारी होगा. तीनों
राज्यों में अन्य दलों और निर्दलीयों की उपस्थिति बढ़ी है. छत्तीसगढ़ में 15 साल की
और राजस्थान में पाँच साल की एंटी इनकम्बैंसी थी. तीनों सरकारों को हराने में जनता
की नाराजगी ने काम किया. पार्टी की परम्परा के अनुसार अब राहुल गांधी के कसीदे
पढ़े जाएंगे. पार्टी की डूबती नैया को किनारा मिल गया है. पर यात्रा खत्म नहीं, अब
शुरू होगी.
अब तेलंगाना
और मिजोरम में कांग्रेस को मिली विफलता की तरफ भी ध्यान दें. तेलंगाना में टीआरएस
को जो सफलता मिली है, उसकी भविष्यवाणी किसी एक्ज़िट पोल ने नहीं की थी. कांग्रेस
का तेदेपा के साथ गठबंधन पूरी तरह विफल रहा. यह गठबंधन दक्षिण में महागठबंधन की
धुरी बनने जा रहा है. उधर पूर्वोत्तर में कांग्रेस का अंतिम गढ़ मिजोरम ध्वस्त हो
गया.
कुल
मिलाकर कहें तो यह संधिकाल है. मोदी की जलवा उतार पर है और तमाम रंग-रोगन के
बावजूद राहुल का जलवा कायम नहीं है. जनता असमंजस में है. मध्य प्रदेश की तरह.
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