बसपा और सपा के
गठबंधन की घोषणा करते हुए शनिवार को मायावती ने सिर उठाकर कहा कि कांग्रेस को
शामिल न करने के बारे में आप कोई सवाल पूछें उससे पहले ही हम बता देते हैं कि देश
की तमाम समस्याओं के लिए बीजेपी के साथ कांग्रेस भी जिम्मेदार है. यह भी कि
कांग्रेस के साथ गठबंधन करने पर वोट ट्रांसफर भी नहीं होता. हमारा 1996 का और सपा का 2017 का यह अनुभव है. इस स्पष्टीकरण
के बाद यह संशय कायम है कि ये दोनों दल कांग्रेस से दूरी क्यों बना रहे हैं?
किसी ने अखिलेश से
पूछा कि क्या आप प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती का समर्थन करेंगे? उन्होंने अपनी हामी
भरी और
मायावती मुस्कराईं. मायावती ने कहा कि यह गठबंधन 2019 के चुनाव से आगे जाएगा. कांग्रेस
को शामिल करने से गठबंधन का वोट बढ़ता, पर फसल का बँटवारा होता. दोनों के हिस्से
दस-दस सीटें कम पड़तीं. त्रिशंकु संसद बनने की स्थिति में उनकी मोल-भाव की ताकत कम
हो जाती. दोनों को अपनी मिली-जुली ताकत का एहसास है. उनकी दिलचस्पी चुनावोत्तर
परिदृश्य में है. कांग्रेस के साथ जाएंगे, तो उसके दबाव में रहना होगा. हमारी मदद
से वह 15-20 सीटें ज्यादा ले जाएगी. ताकत उसकी बढ़ेगी, हमारी कम हो जाएगी.
सपा और बसपा ने पिछली बार 1993 का विधान सभा चुनाव मिलकर
लड़ा था. तब सदन में कुल 425 सीटें थीं. बसपा को 67 और सपा को 109 सीटें मिली. बीजेपी
को 177, पर सरकार मुलायम सिंह के नेतृत्व में बनी. वह सरकार जून 1995 के गेस्टहाउस
कांड के बाद गिर गई थी और दोनों के बीच गलाकाट रंजिश का लम्बा दौर चला था, जो अब
जाकर खत्म हुआ है.
2014
के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में कुल 42.30 प्रश वोट मिले थे, जिनके
सहारे उसे 73 सीटें मिलीं. कांग्रेस, सपा और बसपा को मिले वोटों को जोड़ा जाए तो उन्हें
49.3 फीसदी वोट मिले. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के वोट 39.7 फीसदी रह गए, जबकि
सपा, बसपा और कांग्रेस के सकल वोट 50.2 फीसदी हो गए. इस स्थिति में बेशक
बीजेपी की सीटें कम होंगी.
सारे
अनुमान इतने सीधे और सरल भी नहीं हैं. कांग्रेसी वोटों में से कुछ सपा-बसपा विरोधी
वोट भी होते हैं. सपा-बसपा को मिले वोटों में कांग्रेस विरोधी. बसपा को मिले वोटों
में सपा विरोधी और सपा के वोटों में बसपा विरोधी. पार्टियों के साथ आने पर कुछ वोट
छिटकते भी हैं. कितने छिटकेंगे, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है.
2014
के लोकसभा चुनाव में बसपा 34 स्थानों पर और सपा 31 स्थानों पर दूसरे स्थान पर रही.
विश्लेषकों का अनुमान है कि केवल लोकसभा चुनाव के वोटों पर अनुमान लगाएं, तो अब
बसपा-सपा गठबंधन को 80 में 57 सीटें और बीजेपी को 23 सीटें मिलेंगी. पर यह अनुमान
भी अधूरा है. इस सोशल इंजीनियरी में कई बार बहुत छोटे कारक भी महत्वपूर्ण होते
हैं. अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में कुछ छोटे जातीय समूह होते हैं, जिनके दो-तीन या चार
फीसदी वोट होते हैं, पर वे हार-जीत
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पूर्वी
उत्तर प्रदेश के कुछ बहुत छोटे जातीय समूहों को अपने साथ जोड़कर यह स्थिति पैदा की
थी.
पूरा
ओबीसी या दलित वोट भी एकसाथ नहीं है. गठबंधन राजनीति में छोटे समूहों का महत्व भी
होता है. बीजेपी के खिलाफ पार्टियों के एकसाथ आने पर उनके कुछ समर्थक साथ भी
छोड़ेंगे. पार्टियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता भी है. सपा और बसपा के वोटर ऐसे भी
हैं, जिनकी एक-दूसरे से नाराजगी है. ऐसा कोई सीधा गणित नहीं है कि
पार्टियों की दोस्ती हुई, तो वोटरों की भी हो जाएगी.
बसपा-सपा
गठबंधन ने कांग्रेस के लिए दो सीटें छोड़ने के अलावा एक सहयोगी दल के लिए दो सीटें
और छोड़ी हैं. कौन है यह सहयोगी दल? शायद राष्ट्रीय
लोक दल, जिसे प्रेस-वार्ता का न्योता नहीं था. इसपर अजित सिंह अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुके
हैं. रालोद ने पाँच सीटें माँगी थीं, जिनमें मथुरा, मुजफ्फरनगर और बागपत शामिल
हैं. इस कहानी की कड़ियाँ अभी जुड़ना बाकी हैं.
अगले लोकसभा चुनाव
में यूपी, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र के अलावा दक्षिण के पाँचों राज्यों में गठबंधन
महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. उत्तर प्रदेश पहला राज्य है, जहाँ गठबंधन की योजना
सामने आई है. दोनों दलों ने कांग्रेस से दूसरी बनाकर यह संकेत भी दिया है कि उनकी
दिलचस्पी के चंद्रशेखर राव के प्रस्तावित फेडरल फ्रंट में है. केसीआर ने हाल में इस सिलसिले में नवीन पटनायक
और ममता बनर्जी से मुलाकात की थी. उसके बाद दिल्ली में उन्होंने अखिलेश यादव और
मायावती से मुलाकात की योजना बनाई थी, पर उनकी मुलाकात हो नहीं पाई.
सम्भावना
व्यक्त की जा रही है कि आने वाले दिनों में केसीआर की मुलाकात अखिलेश से होगी. खबरें हैं कि वे जल्द
ही हैदराबाद जाने वाले हैं. हालांकि
उत्तर प्रदेश में इस फेडरल गठबंधन के किसी घटक का असर नहीं है, पर यदि सपा-बसपा
उसके घटक बने तो त्रिशंकु संसद बनने पर यह फ्रंट प्रभावशाली हो जाएगा, क्योंकि वह ताकतवर
क्षेत्रीय दलों का गठबंधन होगा. परिणाम इनकी आशा के अनुरूप आए तो 2019 के चुनाव
में एनडीए के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा मोर्चा होगा, यूपीए से निश्चित रूप से बड़ा.
गत 4 जनवरी को दिल्ली में सपा-बसपा गठबंधन की रूपरेखा तय हो गई थी. तभी पता
लग गया था कि दोनों ने कांग्रेस को त्यागने का फैसला कर लिया है. इस अनदेखी पर शुक्रवार को कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने कहा,
गठबंधन भारी गलती कर रहा है. उत्तर प्रदेश में हमारी उपस्थिति और ताकत को कम न
मानकर चलें. उधर अखिलेश यादव ने शुक्रवार को कन्नौज में कहा, गठबंधन के अंदेशे से न केवल बीजेपी परेशान
है, बल्कि कांग्रेस भी चिंतित है. इस गठबंधन के कारण उत्तर प्रदेश में अनायास ही
मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-01-2019) को "कुछ अर्ज़ियाँ" (चर्चा अंक-3210) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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उत्तरायणी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'